कर्मचारियों के लिए तनाव का कारण बनती वर्चुअल बैठकें
डिजिटल क्रांति ने कार्य दिवस के परम्परागत समय सीमा को बदल कर ही रख दिया है। कहने को तो छह या सात घंटें का कार्य दिवस होता है, परन्तु वर्चुअल युग में कर्मचारी 24×7 के दौर में आ गया है। इससे कार्मिकों की मानसिकता और सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को भी प्रभावित किया है। एक समय था जब शीर्ष या पहली-दूसरी कतार के अधिकारियों की ज़िम्मेदारी अधिक होती थी और उनके लिए समय सीमा नहीं होती थी, परन्तु अब तो वर्चुअल सुविधाओं के चलते दिन हो या रात, रविवार हो या शनिवार, कभी भी कहीं भी एक संदेश मात्र से आपकों सक्रिय होकर कैमरे के सामने आना पड़ता है। दरअसल कोरोना काल ने यह परिवर्तन दिया है। भारत सहित दुनिया के देशों में अभी भी कार्मिकों के लिए कार्य दिवस पांच या छह दिवस का है, तो कार्य समय भी मानने को तो सुबह 9.30 से सायं बजे 6 या दूसरे शब्दों में औसतन लगभग सात घंटे का है, परन्तु डिजिटल क्रांति ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। देखा जाए तो अब असीमित कार्य दिवस का दौर आ गया है। वास्तविकता यह है कि डिजिटल उपकरणों के उपयोग के बाद से कमोबेस कार्य दिवस 24×7 हो गया है तो कार्य समय भी तय समय सीमा के बंधन से मुक्त हो गया है। माइक्रोसॉफ्ट द्वारा कराये गये वर्क ट्रेंड इंडेक्स स्पेशल रिपोर्ट 2025 में यह खुलासा हो गया है कि अब कार्मिक चाहे वह किसी भी स्तर का हो, के लिए चाहे निजी क्षेत्र में हो या सरकारी क्षेत्र में, तय समय सीमा बीते ज़माने की बात हो गई है। ई-मेल, चैट, वर्चुअल या हाईब्रिड बैठकें, सोशिल मीडिया संदेश आदि को समग्र रूप से देखने से अब कार्मिक 24 घंटे का कार्मिक हो गया है।
रिपोर्ट के अनुसार सुबह छह बजे से ही व्यक्ति अपनी ई-मेल टटोलने लगता है तो सर्वाधिक प्रोडक्टिविटि का समय 11 बजे के लगभग काम के स्थान पर ई-मेल का दबाव 54 प्रतिशत तक बढ़ जाता है सायं तीन बजे बाद ई-मेल, चैट या अन्य संदेशों की आवक कम होने लगती है। वैश्विक औसत की बात की जाये तो कार्मिक को 100 से अधिक ई-मेल से दो-चार होना पड़ता है। हर दो मिनट में मेल, चैट या अन्य संदेश कार्मिक के कार्य में बाधा उत्पन्न करता है। इसका कारण यह होता है कि उसे काल, ई-मेल या संदेश चैक करने या उससे दो-चार होना ही पड़ता है। हालात यह है कि रात को भी ई-मेल या संदेश का सिलसिला जारी रहने से अब कार्यालयीय वातावरण से दूर व्यक्तिगत क्षण तो कल्पना की बात होती जा रही है।
डिजिटल क्रांति के कारण बैठकें खासतौर से वर्चुअल या हाईब्रिड बैठकें सुविधाजनक होने के साथ ही कार्मिकों के तनाव का कारण भी बनती जा रही है। हालांकि वैश्विक रूझान के अनुसार मंगलवार को सर्वाधिक बैठकें होती हैं। इनमें खासतौर से एडहॉक बैठकें अधिक होती है तो शुक्रवार को अपेक्षाकृत बैठकों का दबाव कम होता है। सबसे खास बात यह कि औसतन 10 में से एक बैठक तो बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक तय होती है। एक और खास बात कि वर्चुअल बैठकें सुविधाजनक होने और अपना संदेश संबंधित लोगों तक पहुंचाने का बेहतरीन माध्यम होने के बावजूद यह तनाव का कारण तो बनता ही है, इसके साथ ही गुणवत्ता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाया जाने लगा है। इसको इस तरह से समझा जा सकता है कि दस में से एक बैठक अंतिम समय बुक की जाती है, तो बैठकों में प्रस्तुत होने वाले पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन में बैठक के दस मिनट पहले तक आंशिक बदलाव या अपडेशन होता है। यह कोई किसी एक पक्ष यानी सरकारी या गैर-सरकारी प्रतिष्ठान या किसी देश विशेष की बात न होकर वैश्विक वास्तविकता है। विशेषज्ञाें की माने तो अंतिम समय तक प्रेजेंटेशन में बदलाव का मतलब ही यह है कि गुणवत्ता कहीं न कही प्रभावित हो रही है। वैश्विक आंकड़े तो यही कहते हैं कि अंतिम समय में पीपीटी में अपडेशन या संशोधन में 122 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी देखी जा रही है। वर्चुअल बैठक का सिलसिला दरअसल कोरोना महामारी के दौर से अधिक सामने आया है और इसे समय और धन बचाने में सहायक माना जाता है, परन्तु बैठकों के दौर जिस तरह से बढ़ने लगे हैं, उससे कार्मिक सूचनाएं संग्रहित करने और उसमें अपने बचाव के उपाय खोजने में ही अपनी अधिकांश कार्यक्षमता व्यय कर देता है और परिणामस्वरुप कार्य में गुणवत्ता और उत्पादकता में कमी आना स्वाभाविक माना जाने लगा है।
माइक्रोसॉफ्ट की हालिया रिपोर्ट से यह साफ हो गया है कि डिजिटल युग को देखते हुए अब कार्मिकों के कार्य दिवस की नई रूप-रेखा बनाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। इसका प्रमुख कारण कार्मिकों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा सामाजिकता एवं निजता पर विपरीत प्रभाव पड़ना है। वर्चुअल बैठकों में सार्वजनिक रूप से ज़लालत की संभावना, आंखों में सूखापन और सामाजिक व व्यक्तिगत संबंध बाधित होना आम होता जा रहा है। इसका दुष्प्रभाव संत्रास, कुंठा, तनाव आदि के रूप में सामने आने लगा है। ऐसे में विषेषज्ञों, गैर-सरकारी संगठनों, मनोविज्ञानियों के साथ-साथ मानव संसाधन विशेषज्ञों और नियोक्ताओं को भी इस समस्या का समाधान ढूंढना चाहिए।
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