नये परमाणु अधिनियम के तहत जवाबदेही के प्रावधान अपर्याप्त
संसद द्वारा पारित नए परमाणु विधेयक, जिसका शीर्षक ‘भारत को बदलने के लिए परमाणु ऊर्जा का सतत उपयोग और उन्नति (शांति) है, को 20 दिसम्बर, 2025 को भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की स्वीकृति मिल गई है। इसके साथ ही, यह देश में परमाणु ऊर्जा के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने वाला एक अधिनियम बन गया है।
बिजली उत्पादन के लिए परमाणु ऊर्जा के विस्तार पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया बढ़ते जलवायु संकट को लेकर बहुत चिंतित है—जो विनाशकारी स्तर तक पहुंचने का खतरा दरपेश कर रहा है—परमाणु समर्थक लॉबी आक्रामक रूप से परमाणु ऊर्जा को ‘स्वच्छ ऊर्जा’ के रूप में पेश कर रही है। हालांकि ऊर्जा के किसी भी वास्तविक हरित स्रोत के मानदंडों में स्थिरता, स्थापना और डीकमीशनिंग की लागत, उत्पादन की लागत और मानवीय परिणाम शामिल हैं। परमाणु ऊर्जा इनमें से कई मामलों में विफल रहती है।
परमाणु ऊर्जा प्रक्रिया में कई चरण शामिल होते हैं— यूरेनियम खनन और परिवहन से लेकर संवर्धन, रिएक्टर स्थापना, बिजली उत्पादन और दीर्घकालिक अपशिष्ट प्रबंधन तक। रेडियोधर्मी कचरे को संभालने के लिए एक फुलप्रूफ प्रणाली आवश्यक है, फिर भी यह विश्व स्तर पर अनसुलझा है। इसके अलावा परमाणु संयंत्रों को बंद करने की भारी लागत को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह देखते हुए कि परमाणु ऊर्जा स्वाभाविक रूप से खतरनाक है, कोई भी दुर्घटना गंभीर परिणाम दे सकती है। ऐसी स्थितियों में प्रभावित समुदायों की सुरक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए।
इंडियन डॉक्टर्सफॉर पीस एंड डेवलपमेंट (आईडीपीओ) द्वारा किए गए एक अध्ययनए जिसका शीर्षक ‘जादुगोड़ा यूरेनियम खदानों के आस-पास रहने वाले लोगों पर स्वास्थ्य प्रभाव’ था, में स्थानीय आबादी के बीच खतरनाक स्वास्थ्य प्रभावों का खुलासा हुआ। इनमें जन्मजात विकृतियां, विकृत बच्चे, प्राथमिक बांझपन, कैंसर और कई अन्य गंभीर बीमारियां शामिल थीं। ये स्थितियां उसी जातीय पृष्ठभूमि और समान सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोगों की तुलना में काफी अधिक थीं जो खदानों से 30 किलोमीटर से अधिक दूर रहते थे।
भारत ने 1950 के दशक की शुरुआत में ही परमाणु ऊर्जा को अपनाना शुरू कर दिया था। 1960 में अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने अनुमान लगाया था कि भारत सन् 2000 तक 43,500 मेगावाट परमाणु ऊर्जा का उत्पादन करेगा। हालांकि फरवरी 2025 तक वास्तविक उत्पादन केवल 8,180 मेगावाट है। नतीजतन, परमाणु ऊर्जा भारत के कुल बिजली उत्पादन में 2 प्रतिशत से भी कम का योगदान देती है। इसके बावजूद भारत सरकार अपने नाभिकीय ऊर्जा मिशन के ज़रिए 2047 तक नाभिकीय क्षमता को 100 गीगावाट के महत्वाकांक्षी लक्ष्य तक बढ़ाने का इरादा रखती है। परमाणु ऊर्जा प्लांट को उच्चतम स्तर की सुरक्षा की आवश्यकता होती है और इसलिए उन्हें सीधे और सख्त सरकारी नियंत्रण की ज़रूरत होती है। कोई भी लापरवाही विनाशकारी साबित हो सकती है। शान्ति अधिनियम निजी कंपनियों को परमाणु ऊर्जा उत्पादन में पूरी तरह से प्रवेश की अनुमति देकर इन आवश्यकताओं के सीधे विपरीत प्रावधान करता है। फ्रैंड्स ऑफ द अर्थ इंडिया (एपओई) और नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स (एनएपीएम) के एक विश्लेषण में चेतावनी दी गई है कि ऐसा खुलापन बेहद खतरनाक है और परमाणु घटनाओं और दुर्घटनाओं के जोखिम को काफी बढ़ा देता है। निजी संस्थाओं को विखंडनीय और अत्यधिक रेडियोधर्मी पदार्थों पर परिचालन नियंत्रण देने के विनाशकारी और अपरिवर्तनीय परिणाम हो सकते हैं। निजी कंपनियां, जो मुख्य रूप से मुनाफे के मकसद से चलती हैं, सुरक्षा और संरक्षा के मामले में समझौता करने की ज़्यादा संभावना रखती हैं। यह अधिनियम साफ तौर पर सार्वजनिक सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण, मज़दूरों के अधिकारों और प्रभावित समुदायों की भलाई के बजाय व्यावसायिक हितों को प्राथमिकता देता है। इस अधिनियम के तहत जवाबदेही के प्रावधान बहुत ही अपर्याप्त हैं। शांति अधिनियम ने उस पुराने प्रावधान को भी हटा दिया है जो ऑपरेटरों को उपकरण सप्लायरों से मुआवज़ा मांगने की अनुमति देता था। नतीजतन, अगर खराब डिज़ाइन या घटिया उपकरणों के कारण कोई दुर्घटना होती है तो आपूर्तिकर्ता देनदारी से बच जाएंगे, जबकि बोझ भारतीय करदाताओं पर पड़ेगा।
इसके अलावा यह अधिनियम मुआवज़े के दावों को दाखिल करने की समय सीमा को घटाकर तीन साल कर देता है जबकि पहले संपत्ति के नुकसान के लिए 10 साल और व्यक्तिगत चोट के लिए 20 साल का प्रावधान था। ये प्रतिबंधात्मक समय सीमाएं कई वास्तविक पीड़ितों को बाहर कर देंगी जिन्हें रेडियोधर्मी एक्सपोजर के सालों बाद गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। (संवाद)



