फुटपाथी सपनों की औ़कात


ज़िंदगी में काम से अधिक महत्त्व शोर का हो गया है, बन्धुवर! अगर आप भीड़ में अपना बैंड खुद नहीं बजा सकते, तो भीड़ आपको धकिया कर एक किनारे कर देगी। आप यह भी नहीं कह पाएंगे, कि और हम खड़े-खड़े, मोड़ पर रुके-रुके ज़िन्दगी के चढ़ाव का उतार देखते रहे, कारवां गुज़र गया, गुब्बार देखते रहे।
इधर-उधर देखते हैं, तो पाते हैं आज किसी के पास रुकने की फुर्सत कहां? लोग पीछे से भागते हुए आते हैं, बेपरवाही से आपको कंधा मार कर गुज़र जाते हैं, जो इस इस्पाती युग में आज भी भावुकता की तरलता, आदर्शों की अर्चना और नैतिक मूल्यों के संरक्षण में जुटा है, उसको आपकी तकिया बेच रुमाल कर देने वाली इस भीड़ की अंधी दौड़ में एक निर्मम धक्का खा कर पीछे रह जाना ही पड़ता है।
क्या आपको चुनाव के दिनों में अपने मोहल्ले में नेता जी के पधारने का सुअवसर मिला है। यही तो दिन है जब सत्ता के मीनार से उतार कर हमारे नेता लोग संवेदना का लिहाफ ओढ़ लेते हैं। उन्हें अपनी गली याद आ गई। इसमें छूट गये बड़े बूढ़े याद आ गये। अपनी कैमरा ब्रिगेड के साथ वे उनसे मिलने के लिए पधारे हैं। कितने अच्छे, भाई-भतीजे बेटे हैं वह। अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेने आये हैं। मिलेगा, तभी तो प्रशंसक गद्गद हो कहेंगे ‘अहा, हमारे तो भाग्य ही संवर गये। देखो बाप से या भय्या से या मां से अपनी पीठ पर थपकी, सिर पर आशीर्वाद लेने आये हैं।’ भई कैमरे वाले ज़रा फोकस तो करो। ऐसा शालीनता भरा चित्र कल मीडिया में छपेगा, तो लोग बलैयां लेने लगेंगे। सब वोट पक्की हो ‘विजयी भव’ का कोलाहल कैमरे के फोक्स में लाने के लिए भीड़ उन्हें धक्का मार कर निकल गई। आप रुकिये ये रहे जगदम्बा बाबू, यहीं मोड़ काटने के इंतजार में। आप ही नहीं पूरा देश मोड़ पर रुका हुआ है। रोज़गार दफ्तरों की बंद खिड़कियों, सस्ते आटा-दाल की दुकानों के बंद दरवाज़ों के खुलने की इंतज़ार में।
नहीं उनकी गलियों की ओर नहीं खुलते ये दरवाज़े। इनके पिछले चोर दरवाज़े बड़े-बड़े माल गोदामों में आधी रात को खुल जाते हैं, और माल इन दुकानों में उतरने से पहले ही ये गोदाम चाट लेते हैं। वक्त बीत गया, अब यहां मोड़ पर रुके-रुके भी किसका इंतज़ार करते रहोगे, बाबू? क्या अपनी खुशहाली के एक और नारे के उभरने का।
उम्र गुज़र गयी। बरस दर बरस नहीं, नारा दर नारा इन बरसों की सुध ली गई। कभी इन्होंने कहा था, गरीबी हटाओ, देश बचाओ। नारे का स्वर एक दशक से दूसरे दशक तक फैलता गया। वोट गरीबी हटाने के लिए पड़ते रहे, देश धनी प्रासादों के लिए ज़िंदा होता चला गया। गरीबी तो वहीं खड़ी है, सिसकती म्लान, अपने बेहतरी के लिए किसी और नारे का इंतज़ार करती हुई। .... से वे लोग इस फटीचर मोड़ पर रुके हुए हैं, मीडिया में हमारे भाग्य विधाता चिल्लाते रहे, सुनो देश बाहुबली हो गया। दुनिया की सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थ-व्यवस्था का अंग बने हम। 
लेकिन वे लोग करोड़ों की तादाद में थे। जो प्रसाद और अट्टालिकाओं से बहु मंज़िली इमारतें हो जाने की इस अंधी दौड़ से बाहर हाशिये पर खड़े तालियां पीट रहे थे। न जाने कितना समय बीत गया। सोचा था बदलाव के नारे लग रहे हैं, इनका वक्त भी बदल जाएगा। लेकिन नारे तो नारे होते हैं, वे कभी धरती पर उतर कर फुटपाथों पर रेंगते नहीं। वे तो ऊंची इमारतों की फुनगियों पर टंगे रहते हैं। हां, उनसे पैदा हुआ ध्वनि प्रदूषण अवश्य इन फुटपाथों पर रेंगता हुआ। वह उन्हें उनकी औकात की याद दिला देता है।
औकात याद आ जाने के बाद वे लोग उस कोलाहल से उपराम हो अपने चेहरे पर नकाब की तरह दुपट्टा ओढ़ कर जाती लड़कियों से पूछ लेते हैं, अरे आपकी उम्र के चढ़ाव का तो उतार आ गया। अब काहे तरक्की के नाम पर देश में पर्दा धर्म को वापिस लौटा रहे हैं आप लोग? लड़की मायूस थी। बढ़ते कोलाहल के बावजूद मायूस रहेंगी। चढ़ाव तो कभी आया नहीं, अब किस उतार को टटोल रहे हो बाबू। लड़की ने अपने दुपट्टे की नकाब में से झांकती आंखें झिमझिया कर पूछा,
अब बाबू क्या जवाब दे। पहले कभी उसने भी समय बदलने की उम्मीद में झांझ कर ताल बजा कर सड़कों पर निकलते हुए भद्रजनों के जुलूस में शामिल होने की कोशिश की थी। लेकिन बहुत जल्द ही बाबू बाबू नहीं, अबे तबे के सम्बोधन के साथ उसे इस जुलूस से बाहर पटक दिया गया। उसे समझा दिया गया था, कि वह किसी विजय की साक्षी शोभायात्रा का हिस्सा नहीं उसका आभास मात्र है। शोभा यात्रा जो उनके जनपथ पर किसी मेहमान की तरह चुनावी रोज़े रखती है, फिर राजपथ पर जाकर ईद का चांद देखती है, केवल देखती ही नहीं, उसे वंश दर वंश, पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बटुए में कैद रखने का प्रयास करती है। परन्तु उन लोगों की पहुंच इस बटुए तक नहीं। चांद भी अब उनकी गलियों तक झांकने नहीं आता। विजय रथ का कारवां गुज़र गया। हमेशा उन्हें उस पर चांदी का चमरौधा जूता पहने बड़े लोग ही दिखाई देते रहे। इस बार भी दिखायी दे रहे हैं।
कारवां गुज़र गया, वे उनके ओझल होते हुए पैरों की धमक से उठता हुआ गुब्बार देखते रहे। हर बार ऐसा ही होता है। फिर उनके पास बचा रहता है, एक धूल भरा गुब्बार। कुछ नये नारे, नये जुमले, उन्हें घेर लेते हैं, और घेर लेता है एक इंतज़ार, वही पुराना इंतजार।