त्रिशंकु संसद की बरकतें

अब जबकि 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए हर तरह के प्रचार-प्रसार और शोरगुल को ब्रेक लग चुकी हैं। राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि देश त्रिशंकु संसद (हंग पार्लियामैंट) की ओर बढ़ रहा है। ग्रामीण जनता इसको लंगड़ी सरकार कहती है। हमें खुश होना चाहिए कि इस बार हमें बहुमत वाली सरकार के लारे-लप्पे नहीं सुनने पड़ेंगे। हर तरह की ‘मैं-मैं’ का गला घोंटा जायेगा। हमारे देश में बहुमत वाली सरकारें पहले भी बनती रही हैं, परन्तु आम लोगों ने गत पांच वर्षों  जितनी ‘मैं-मैं’ नहीं सुनीं। निम्नलिखित पर पहरा देने का समय आ गया प्रतीत होता है :
बकरी जो ‘मैं-मैं’ करे, गले में छुरी फिराये
मैंना जो ‘मैं ना’ कहे सबके मन को भाये
यह तो हुआ मौजूदा राजनीति का सत्य। अब सम्भावना की बात करे, यदि लंगड़ी सरकार बनती है तो इसको विपक्षी पार्टियों की दुलतियों का खौफ रहेगा और हर कार्य संभल कर करेगी। लोकप्रिय उर्दू शायर टी.एन. राज ने निम्नलिखित शेअर में देश की वर्तमान समस्याओं का उल्लेख किया है :
मुफलसी, बेरोज़गारी, रेप, रिश्वत, कत्ल, सब
वक्त-ए-आखिर नाम तेरे ए वतन कर जायेंगे
मामले बड़े हैं। पांच वर्षों में हल होने वाले नहीं। देश की जनसंख्या भी पहले जैसे संयम संतोष वाली नहीं। घरों में ऐशो-आराम कितना बढ़ चुका है, इसका अनुमान सड़कों पर भागती मोटर गाड़ियों और घरेलू कारों की भीड़भाड़ से लगाया जा सकता है। श्रमिक, किसान और छोटा दुकानदार हाय-तौबा कर रहा है। आत्मत्याओं का दौर जारी है। इन बातों ने शांति व्यवस्था की स्थिति को वश से बाहर किया हुआ है। सब कुछ पर ‘मैं-मैं’ का ढक्कन लगाया जा रहा है। अर्थ-व्यवस्था से जूझने वाले किनारे धकेले गए हैं, ऐसे में यदि कोई उम्मीद बंधती है तो त्रिशंकु सरकार के अस्तित्व में आने से। सम्भल कर चलेगी। हर किसी की सुनेंगी। बनते अमल अस्तित्व में आयेंगे। देश की एकता और अखण्डता बनी रहेगी। अनेकता में एकता वाला पहरा लौटेगा। साम्प्रदायिक पार्टियों की फुंकार कम होगी। चोरों को संरक्षण देने वाली चौकीदारी को नकेल पड़ेगी। राजनीतिक क्षेत्र में वाम सोच वालों की भी सुनी जायेगी। 
निश्चय ही त्रिशंकु सरकार को विपक्षी गुट नई शीशियों में पुरानी दारू बेचने से रोकेगा। राजीव गांधी वाले क्लीन गंगा प्रोजैक्ट को ‘नमामि गंगे’ का नाम देकर या मनमोहन सिंह के शासन की निर्मल भारत योजना को स्वच्छ भारत भारत अभियान का नया नाम देकर भोली-भाली जनता को भरमाने का समय लग गया प्रतीत होता है। त्रिशंकु सरकार ही नोटबंदी और जी.एस.टी. जैसी योजनाओं को प्रबंधकीय असफलता की भेंट चढ़ने से बचा सकती है। कुएं में गिरकर मरने का डर इसको सतर्क रखेगा। प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियां पैदा करने का झांसा देकर युवाओं के लिए पहले जितनी नौकरियां कम करने के दिन लद जायेंगे। 
मुख्य फैसले लेने में योजना आयोग जैसी लोकतांत्रिक संस्थाओं और कैबिनेट के मंत्रियों को नज़रअंदाज़ करने के घटिया हथकंडों का सवाल ही पैदा नहीं होता। 
उर्दू भाषा के अदब आदाब 
मेरी आयु के लोगों की प्राथमिक शिक्षा उर्दू भाषा द्वारा हुई। हम अपने निवेदन पत्र स्कूल प्रमुख का ‘दाम ए इकबाल’ मांग कर स्वयं को कमतरीन कहकर गुजारिशें करते थे। इसने हमें अपनों से बड़ों का मान-सम्मान करना सिखाया। नित्य प्रति जीवन का सलीका भी किसी के कथनानुसार :
उर्दू का मुसाफिर है, यही पहचान है इसकी
जिस राह से गुजरता है, सलीका छोड़ जाता है
इस शेअर ने मुझे अपनी रुद्रपुर (उत्तर प्रदेश) वाली पांच दशक पूर्व की यात्रा स्मरण करवा दी है। मुझे और मेरी पत्नी को रामपुर से लांघते हुए याद आया कि उस शहर में हमारे परिचित सुरिन्द्र सिंह विर्क वकालत करते हैं। हमने एक राहगीर से उनके घर का रास्ता पूछा, उस बुजुर्ग को नहीं पता था उनका जवाब था ‘माफ करना मुझे तो उनका कोई इल्म नहीं है’। 
हमनें सुरिन्द्र के बाप-दादा और चाचों-तायों के नाम भी बताए। वह भी समझ न आए तो वह पूछने लगे कि हमारे रामपुर पहुंचने का असली मकसद क्या था। मेरे मुंह से ‘बस ऐसे ही घूमते-घुमाते’ शब्द निकलने की देर थी, तो उन्होंने रामपुर शैली में निम्नलिखित वाक्य बोला, जो मुझे कल की तरह याद है। 
‘अच्छा! तो अब समझा। अब यहां न सिलसिला ए आवारगी तशरीफ लाए हैं।’ बुजुर्ग के शब्दों में इतना दम था कि हमनें सुरिन्द्र सिंह के ठिकाने का पीछा किये बिना ही अपनी गाड़ी रुद्रपुर के लिए चला ली। 

अंतिका
(लोक नसीहतें)
जुत्ती सोट्टी बिनां तुरिये ना रात नूं
करिये ना टिच्चर मरासी जात नूं
वड्ड खाणे मुहरे लंघिये ना ऊठ दे
जुत्तियां ना मारिये जवान पुत्त दे
फुल्लां उत्ते आई पुट्टिये ना वल जी
सभा विच बैठ टोकिये न गल्ल दी