क्या इस बार भी नहीं होगा लोकसभा में विपक्ष का नेता ?

गुलाम हाथियों की सूफी कथा से प्रेरित वी. शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ का हीरो (शांताराम) एक आदर्शवादी जेलर है, जो छह खतरनाक अपराधियों को खुली जेल में सुधारने की इच्छा रखता है। वह उन्हें मेहनत, स्वतंत्रता व मूल्यों के जरिये सुधारना चाहता है। लेकिन इससे अपराधी असहज हो जाते हैं, उन्हें मेहनत व मूल्यों से अधिक स्वतंत्रता बर्दाश्त से बाहर प्रतीत होती है। वर्षों जेल में जंजीरों से बंधे रहने के कारण उन्हें ऐसी आदत पड़ गई थी कि वह नये सेट-अप में बिना जंजीरों के सो नहीं पाते, इसलिए वह खुद ही अपने को जंजीर बांध लेते ताकि ‘चैन’ से सो सकें। यह सीन कांग्रेस का नेहरू-गांधी परिवार से संबंध का प्रतीक है। बिना गांधी के नेतृत्व के कांग्रेसी अपने को भटका-भटका महसूस करते हैं। इसलिए राहुल गांधी से भावनात्मक अपील की जा रही हैं कि वह कांग्रेस का अध्यक्ष पद न छोडें। लेकिन राहुल गांधी अपने को इस भार से मुक्त करने की जिद्द पर अड़े हुए हैं। इसके दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। एक, भाजपा ने वंशवाद की राजनीति पर जबरदस्त प्रहार किया है और राहुल गांधी नहीं चाहते कि कांग्रेस के पास जो आगामी विधानसभा चुनावों में अपने को पुन: पथ पर लाने की जो छोटी-सी उम्मीद की किरण दिखाई दे रही है उसे भी वंशवाद के आरोप की भेंट चढ़ा दिया जाए। ध्यान रहे कि कांग्रेस कुछ राज्यों में सत्ता में है और जाति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों को जो करारी शिकस्त मिली है, उससे एक राजनीतिक ओपनिंग अवश्य मिली है जिसे एक ज्वलंत नेतृत्व टारगेट कर सकता है। कहने का अर्थ यह है कि संकट सुधार के लिए अवसर हो सकता है अगर कांग्रेस अपने को एक ऐसी आधुनिक पार्टी बना ले जो प्रोफैशनल व जवाबदेह हो। राहुल गांधी इसी लाइन पर सोच रहे हैं। दूसरा यह कि राहुल गांधी की इच्छा अब लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने की है ताकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा से सीधी टक्कर में आ सकें। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार राहुल गांधी को आधिकारिक तौर पर लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने देगी? गौरतलब है कि 2014 में तमाम आलोचनाओं के बावजूद मोदी सरकार ने लोकसभा में किसी को भी विपक्ष का नेता नहीं बनने दिया था। बहरहाल, यह पहला अवसर नहीं था, जब लोकसभा में कोई विपक्ष का नेता था ही नहीं। 1969 से पहले कोई विपक्ष का नेता नहीं था। फिर 1980 से 1989 के बीच भी लोकसभा में कोई विपक्ष का नेता नहीं था। लोकसभा में विपक्ष का नेता पद स्वत: ही मिलने के लिए पार्टी के पास कम से कम 55 सांसद (सदन की कुल संख्या का 10 प्रतिशत) होने चाहिये। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के बावजूद 2014 में कांग्रेस के पास मात्र 44 सांसद रह गये थे और 2019 में उसके पास 52 सांसद हैं। राज्यसभा में विपक्ष का नेता बनने के लिए 25 सांसद (10 प्रतिशत) चाहिये। संसद में विपक्ष के नेता का वेतन व भत्ता कानून 1977 के तहत विपक्ष के नेता का पद आधिकारिक व संवैधानिक होता है। अनेक महत्वपूर्ण नियुक्तियों जैसे विजिलैंस आयुक्त, लोकपाल आदि में उसकी भूमिका आवश्यक व महत्वपूर्ण होती है। ऐसा नहीं है कि उसकी अनुपस्थिति में ये नियुक्तियां नहीं होतीं, तब सबसे बड़े दल के नेता को ही तीन सदस्यों वाले नियुक्ति बोर्ड का सदस्य बना लिया जाता है, जैसे पिछले पांच वर्ष से कांग्रेस के मल्लिकार्जुन खडगे थे। लेकिन आधिकारिक रूप में विपक्ष के नेता का होना कुछ और ही बात होती है। यहां एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न भी है। क्या जिन पार्टियों ने चुनाव पूर्व समझौता करके चुनाव लड़ा था, उन्हें संयुक्त विपक्ष के रूप में लिया जायेगा? मसलन, कांग्रेस और द्रमुक ने मिलकर चुनाव लड़ा था और इन दोनों पार्टियों की कुल सांसद संख्या दस प्रतिशत से अधिक बैठती है। द्रमुक के लोकसभा में 23 सांसद हैं और कांग्रेस के 52 जो मिलकर 75 हो जाते हैं, तो क्या इस गठबंधन को विपक्ष के नेता का पद दिया जा सकता है? संविधान में ऐसा कोई प्रावधान तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिए ऐसा किया जाना अवश्य चाहिए। वास्तव में लोकतंत्र में जितना महत्व सत्तारूढ़ दल का है उतना ही विपक्ष का भी है। विपक्ष न केवल किसी भी मुद्दे पर दूसरा रुख रखता है बल्कि सत्तारूढ़ दल की मनमानियों और उसके तानाशाह होने की आशंका पर भी अंकुश लगाता है। इसलिए विपक्ष की अहमियत को कम करके नहीं आंकना चाहिए और विपक्ष का एक नेता भी होना चाहिए। भारत में भाषा के आधार पर जो राज्यों का गठन हुआ है, उससे क्षेत्रीय पार्टियों की राजनीति में भूमिका अधिक बढ़ गई है और अगर पिछले दो लोकसभा चुनाव छोड़ दिए जायें तो 1989 व उसके बाद से केंद्र में मिली-जुली सरकारें ही बन रही थीं। इन सरकारों में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका का अधिक महत्व था। ऐसी स्थिति में होना यह चाहिए कि विपक्ष के नेता का पद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी जिसके पास 10 प्रतिशत सांसद हों, को देने की बजाय सभी विपक्षी दलों पर यह ज़िम्मेदारी छोड़ दी जाये कि वह अपना एक नेता लोकसभा में चुन लें और उसे ही विपक्ष का नेता पद दे दिया जाये। लेकिन उस नेता के पास सदन में व्हीप जारी करने का अधिकार न हो क्योंकि अलग-अलग विपक्षी दलों की राय कुछ या अनेक मुद्दों पर भिन्न हो सकती है यानी किसी विषय पर एक विपक्षी दल सरकार से सहमत हो सकता है जबकि दूसरा विपक्षी दल असहमत। विपक्षी दलों को लोकसभा में विपक्षी दल का नेता चुनने का अधिकार देना न केवल लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा बल्कि ऐसा करने से फिलहाल जो इस संदर्भ में सत्तारूढ़ दल की मनमर्जी रहती है कि वह चो तो किसी को नवाज दे और चाहे तो अनदेखा कर दे, उस पर भी अंकुश लग जाएगा। आखिरकार विपक्ष का अर्थ केवल सबसे बड़ा विपक्षी दल ही नहीं होता है बल्कि सम्पूर्ण विपक्ष होता है और लोकतंत्र में इसी बात का सम्मान करते हुए विपक्षी दल का नेता चुनने का निर्णय विपक्षी दलों पर छोड़ देना चाहिए।