आज बेटी बचाओ की ज़रूरत

किस समाज में जी रहे हैं हम जहां मानवीय मूल्य हैं ही नहीं, संवेदनाएं मृतप्राय हो गयी हैं, इंसान ही नहीं, अपराधी और पीड़ित भी धर्मों में बंट से गए हैं, सरेआम दिन-दहाड़े मासूम बच्चियों को हवस का शिकार बनाया जा रहा है। कुछ दिन जरूर हल्ला होता है पर फिर परिणाम वही ढाक के तीन पात। अगर पहली घटना पर ही अपराधियों को माकूल जवाब मिल जाये तो दूसरी घटना को कुछ हद तक रोका जा सकता है। अलीगढ़ की ढाई वर्षीय मासूम के साथ जो घृणित औऱ जघन्य कुकृत्य हुआ उस घटना से आहत हूँ, नि:शब्द भी और शर्मसार भी। कैसे एक नन्ही सी अबोध बच्ची को नोचते हुए, मारते हुए बहशी दरिंदों का दिल भी न रोया होगा क्या? बेहद डरावनी यह घटना क्या सिर्फ  10 हज़ार रुपयों के लिए हुई होगी? शायद नहीं क्योंकि अभी इंसान इतना जलील नहीं हुआ होगा कि पैसों के लिए ये सब करे। इसके लिए तो अपराधी की मानसिकता पर सवाल उठते हैं कि वो कैसे पिता द्वारा लिए पैसों के बदले एक जीती जागती बच्ची को मौत के घाट उतार सकते हैं।  इस तरह के अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है। कुछ वर्ष पूर्व जब निर्भया के साथ अत्याचार हुआ था तो उस वक्त उस अपराध के विरोध में दिल्ली से लेकर पूरे देश में आक्रोश देखा गया और ऐसा लगा कि अब शायद इस तरह के अपराध कुछ कम हों, लेकिन न तो अपराधों में कमी आयी और न इस तरह की मानसिकता में। 
बेटी पढ़ाओ से ज्यादा आज बेटी बचाओ की जरूरत है। जब बचेगी ही नहीं बेटी तो पड़ेगी क्या खाक। ये दुर्भाग्य है देश का, समाज का कि हम बच्चियों के दुष्कर्म और अत्याचार को भी धर्म और जाति के चश्मे से देख रहे हैं। सोशल मीडिया भी दो समूहों में बंटा नज़र आता है, किसी के लिए जम्मू की अबोध मायने रखती है तो किसी के लिए अलीगढ़ की मासूम। पर ये समझने में हम क्यों असमर्थ नज़र आ रहे हैं कि बच्चियां सब एक सी हैं, मासूम हैं, प्यारी हैं, अबोध हैं और निरपराध भी। दोषी हर हालत में अपराधी है और उसे सिर्फ  अपराधी मानकर सजा दी जाए। तमाम कड़े कानूनों के बावजूद भी लड़कियों के साथ हो रहे अत्याचारों में कोई कमी नहीं आ रही है। 
कानून और सख्त तथा ईमानदार होने चाहिए और सजा इतनी कठोर मिले इन अपराधियों को कि कोई भी इस विकृत मानसिकता का व्यक्ति इस सजा को देख दहल जाए। क्योंकि ये मानसिकता ही होती है कि हम बच्चियों को भी एक जिस्म के रुप में देख रहे हैं। सरकारें अपने कर्तव्यों में असफल लग रही हैं तो अपनी बच्ची की सुरक्षा का जिम्मा हर पिता, भाई, माँ और उसके आसपास के समाज को ले लेना चाहिए। समाज को सतर्क होना ही होगा क्योंकि न जाने किस मोड़ पर कौन दरिंदा बेटी के लिए घात लगाए बैठा है। एक बेटी के लिए इंसाफ  मांगते हुए कुछ दिन बीतते नहीं कि दूसरी बेटी न्याय के लिए गुहार लगा रही होती है और असहाय, बेबस, संवेदनहीन समाज बस न्याय के लिए आवाज ही लगाता रह जाता है। कैंडल मार्च, तख्तियों में स्लोगन, शांति पूर्वक न्याय मांगना सभ्य समाज में होता है परंतु जिस समाज में ऐसे पाशविक, दुर्जन, हवशी और दरिंदे बसते हैं तो वहां के कानून को सख्त होना ही होगा।
 ये अपराधी किसी अन्य ग्रह से नहीं आये हैं ये हमारे ही समाज का हिस्सा हैं, हमारे ही बीच से आते हैं तो ये देखना कि इस तरह की प्रवृति क्यों कुकुरमत्ते की तरह फैल रही है, इसका उत्तर भी खोजना होगा, ढूंढना होगा उन तत्वों को जो इस मानसिकता को अंकुरित करते हैं, निशानदेही करनी होगी उस सोच की जो नन्हीं-सी कलियों को भी ठीक से खिलने नहीं दे रहे और अगर हम इसमें नाकामयाब हो गए तो लड़की को पैदा करने से भी लोग डरेंगे। अभी तक तो वंश बढ़ाने के लिए लड़की को भ्रूण में मारा जाता रहा है, ऐसा न हो कि आने वाले  वक्त में अपनों के दरिंदगी के डर से ही बेटी पैदा करने से लोग भय खाने लगें और जब बेटी ही नहीं पैदा होगी तो सृष्टि कैसे बचेगी?