आखिर कब तक होती रहेंगी जानलेवा दुर्घटनाएं ?

त्यौहारों का मौसम प्रसन्नता, खुशहाली और सुख-शान्ति का द्योतक होता है। लेकिन हर साल किसी न किसी पटाखा स्टोर, फैक्टरी में ब्लास्ट इस खुशगवार मौसम को धूमिल कर देता है। और फिर पुलिस प्रशासन किसी कुम्भकर्णी नींद से अचानक उठकर सक्रियता दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। आरोपियों को पकड़ने के लिए धरपकड़, छापेमारी, चैकिंग व नाका अभियान पूरी तेज़ी से चलाकर यह सिद्ध करने के भरसक प्रयास किए जाते हैं कि ‘प्रशासन बिल्कुल ढील नहीं कर रहा’ और फिर किसी ब्लास्ट केस में किसी को न्याय मिला तो किसी को नहीं और अंत में इतिहास के पन्नों का एक पहरा मात्र बन जाता है यह सब। अक्सर ही यह होता है कि जब कोई धमाके वाली दुर्घटना होती है, तो जांच के दौरान ये पाया जाता है कि या तो फैक्टरी मालिक के पास लाइसैंस नहीं है या फिर लाइसैंस का नवीनीकरण नहीं करवाया गया। यहां तक कि कई बार तो यह भी सामने आता है कि किसी एक विभाग ने तो एन.ओ.सी. भी नहीं दिया, लेकिन फिर भी फैक्टरी पिछले कई दशकों से बेखौफ चलाई जा रही है। प्रशासनिक अधिकारी या तो इसे अपना कर्त्तव्य नहीं समझते या फिर लापरवाही का जामा पहनाकर चुप्पी साधे रखते हैं और जब कोई दुर्घटना घट जाती है, तो एक के बाद एक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो जाता है। कुकरमुतों की तरह फैल चुकी सैकड़ों ऐसी नाजायज़ फैक्टरियां और स्टोर रोज़ी-रोटी कमाने वाले शातिर जाल में फंसे भोले-भाले लोगों को मृत्यु का ग्रास बना देती है। हाल ही में हुए बटाला की पटाखा फैक्टरी ब्लास में 24 लोग मारे गए। इससे पहले कई अन्य शहरों में इस तरह की दुर्घटनाएं घट चुकी हैं। लुधियाना, मोगा, बठिंडा, अमृतसर और संगरूर। इस तरह की दुर्घटनाओं का सामना पिछले कई सालों से कर रहे हैं। तो क्यों न इन घटनाओं को होने से रोका जाए? क्यों न एन.ओ.सी. अवैध फैक्टरियों को देने पर रोक लगाई जाए, ताकि मृत्यु का ग्रास बनने वाले लोग ताउम्र निडरता के माहौल में काम कर अपना और अपने परिवार का पेट भर सके और सुरक्षित वातावरण का अपना अधिकार समझ सके, ताकि पटाखे के बारूद की चिंगारी इन्हें न झुलसा कर सिर्फ आसमानी मनोरंजन का माध्यम ही रहे।