उल्टी गंगा बही रे, साजन!

शिक्षा क्रांति के दावों के बाद स्कूलों का चेहरा बदल गया है। हमारे बच्चों को कुपोषण का मज़र् है। घर में तो उन्हें उचित खाने को मिलता नहीं, एक जून रोटी मिल जाये तो भी असंख्य धन्यवाद। सरकार ने बच्चों के हाथ में पुस्तक और पेट में रोटी देने के लिए स्कूलों में बच्चों के लिए मध्य दिवस योजना शुरू कर दी थी। उम्मीद थी कि कम से कम एक समय तो उन्हें उचित भोजन मिल जाएगा। उधर सर्व शिक्षा अभियान भी चला रखा है। प्राथमिक शिक्षा के लिए सब बच्चों को संवैधानिक अधिकार भी दे दिया है, लेकिन देने की घोषणा करने और वास्तव में मिल जाने के सच में यहां योजना का अन्तर होता है। पब्लिक स्कूल कल्चर की कमर तो टूटी नहीं। गरीब बच्चों को इन स्कूलों की फ्री आरक्षित सीटों पर दाखिला नहीं मिला। बीच में निजी शिक्षा के मसीहाओं ने अदालतों की निषेधाज्ञा खड़ी कर दी। अब इंतज़ार और अभी।
इधर सरकारी स्कूलों में जो मध्य दिवस भोजन योजना शुरू हुई है, उसमें पुष्ट-पोषण के नाम पर खबरचियों ने ़खबर दी कि बच्चों को सूखी रोटी के साथ नमक मिलना शुरू हो गया है। गोदी मीडिया ने इसमें राजनीतिक अदावत की गन्ध सूंघ ली। संबंधित ़खबरची अन्दर हुआ। आंकड़ा शास्त्रियों ने भी इसके असल चेहरे की गवाही दे दी। बताया कि इस देश में पांच साल की उम्र तक के बच्चे आधे से अधिक काल कलवित हो जाते हैं, तो बारह-चौदह साल के बच्चों में भी कुपोषण की वजह से, उसी तरह लगभग आधे काल का ग्रास हो जाते हैं। शेष जो बचते हैं, उनमें से बड़ी तादाद मानव तस्करों की कृपा से लापता हो कर तेल धनी देशों के शेखों के द्वार तक पहुंच जाती है। लेकिन अब मध्यपूर्व के इन देशों में राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ जाने के बाद सोचा जा रहा है, कि क्या इससे धनी शेखों के धन के पहाड़ कुछ कम हो जाएंगे? क्या उनकी रुचियों, ऐश्वर्य और विलास में कुछ अन्तर आयेगा? अन्तर तो चाहे न आये, लेकिन इसी आशंका से हो सकता है कि मानव तस्करी के धंधे में कुछ मन्दा हो जाये। बच्चे अगर अपहृत होकर लापता कम होने लगेंगे, और गरीबों की गूदड़ बस्तियों में दनदनाते नज़र आयेंगे तो हो सकता है उन्हें शिक्षा का मूल अधिकार देने की घोषणा पूरी हो जाये।
स्कूलों में मध्यदिवस भोजन देने की योजना शुरू होकर भ्रष्टाचार की नज़र लग जाने से बंद होने के कगार पर हैं। कहीं कहीं तो उच्च न्यायालय के आदेश से इसे पुन: जीवनदान मिला है और अब यह लड़खड़ाती और कांपती-करहाती पुन: उठती नज़र आ रही है, लेकिन केवल भूख ही तुष्ट करना क्यों, यहां तो अधनंगे बदनों को कपड़े से भी ढकने की समस्या है। अपने राज्य के स्कूलों में सरकार ने बच्चों के लिए मुफ्त वर्दियां बांटने की घोषणा की है। लालफीताशाही इसे भूल गई, खाली ़खज़ाने का रुदन राग तो चलता ही रहता है। सुबह के मुर्गों ने दोपहर को बांग दे दी, सरकारी मशीनरी जागी। गर्मियों की वर्दियां सर्दियों में बंटी। अब उम्मीद है कि सर्दियों की वर्दियां भरपूर गर्मी तक बंट सब का उपकार कर सकेंगी। भई, भला हो पर्यावरण प्रदूषण वालों का। मौसम का सारा गणित बिगाड़ रखा है। गर्मी के दिनों में सर्दी पड़ने लगती है और सर्दियों में पंखा चलाने की नौबत आती है, कि जैसे सावन की बेवफाई ने बिन बादल बरसात के अतिकथन को सच करना शुरू कर दिया है। उम्मीद है कि इससे इन वर्दियों का इस्तेमाल भी बे-मौसम नहीं लगेगा। इस पर्यावरण प्रदूषण से जल्द तो छुटकारा मिलेगा नहीं, क्योंकि चचा सैम ने ‘अमरीका अमरीकियों’ का वादा लगा कर इन संधियों पर हस्ताक्षकर करने से मना कर दिया है, और सज़ा के तौर पर ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा कर तीसरी दुनिया के देशों का तेल-डीज़ल बंद करने का प्रयास किया है। अब अगर महंगा होता कच्चा तेल कम आयात होने लगेगा तो इसका प्रयोग भी कम होगा। यूं पर्यावरण प्रदूषण अपने आप कम हो जाएगा।
इस बात पर हमें जन-संख्या का माल्यस सिद्धांत याद आ गया कि अगर ज्योमैट्रिक प्रोग्रेशन से बढ़ती जन-संख्या को निरोधक उपायों से रोका नहीं गया तो प्रकृति अपना आपदाओं और मौत का ताण्डव बढ़ा कर जन-संख्या कम कर देगी। इसी तरह तेल का आयात जब घटेगा, गरीब देशों की उत्पादक गतिविधियां कम हो जाएंगी। उनका हरित गैस का उत्सर्जन अपने आप कम हो जाएगा। अब अमीर देशों को अपना उत्पादन कम करने की संधि करने की क्या ज़रूरत है। जी हां, यहां और वहां, देश में और विदेश में जटिल समस्याएं यूं ही हल होती हैं। पर्यावरण प्रदूषण रुक नहीं पाया, मौसम बेवफा हो गया। बच्चों की सीजन पिछड़ी वर्दियां काम आ गई। नई शिक्षा नीति के अनुसार तीन घंटे की परीक्षा का विकल्प ढूंढा जा रहा है। अभी फिलहाल स्कूल बोर्ड शिक्षा गुज़र जाने के बाद किताबें छाप कर स्कूलों में भेज रहे हैं। ऑनलाइन अनुमान न मिलने के कारण सरकारी आदेश के बावजूद दलित छात्रों के रोल नम्बर नहीं मिल रहे। परीक्षायें व्यर्थ हो रही हैं, अवश्य इनका कोई विकल्प नई शिक्षा नीति में तलाश लिया जाएगा। 
इधर मध्यम दिवस स्कूली भोजन योजना की असफलता और भूख के दबाव के कारण स्कूली छात्र भी भगौड़े होने लगे। इससे देश में बाल श्रमिकों की संख्या में कोई कमी नहीं आएगी, और सरकार का यह दावा सच होता नज़र आता रहेगा कि अपने देश में उत्पादकों के लिए श्रम बड़ा सस्ता है और यह सस्ता ही रहेगा।