अंत:करण को पवित्रता एवं एकाग्रता प्रदान करती है ईश्वर उपासना 

परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार करने की विधि का नाम उपासना है। ईश्वर का शांत चित्त से ध्यान करते हुए उसकी समीपता का  अनुभव करना तथा अपनी आत्मा को आनंद स्वरूप परमेश्वर में मगन करना उपासना कहा गया है। हमारे ग्रंथों में इसे भक्ति भी कहा गया है । जिस विधि के द्वारा चित्त की वृत्तियों का निरोध करके परमेश्वर के चिंतन में स्वयं को लगाया जाता है, वही भक्ति है। नारद पुराण में लिखा है कि परमेश्वर के प्रति परम प्रेम ही भक्ति है। यह अमृत स्वरूपा है। इस भक्ति उपासना के पथ पर चलने वाला साधक सर्वथा संतुष्ट हो जाता है। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथ वेदों में भी उपासना को परमपिता परमात्मा की प्राप्ति का विशेष साधन माना गया है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने उपासना के विषय में बताया है कि. ‘जैसे सर्दी से आतुर पुरुष की अग्नि के पास जाने से सर्दी निवृत्त  हो जाती है, वैसे ही उपासना के माध्यम से परमेश्वर की समीपता प्राप्त होने से सब दुख दूर हो जाते हैं’। दैनिक जीवन चर्या में मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से तनावग्रस्त रहता है। इसी तनाव का मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है। तनाव से मुक्त रहने के लिए अभी तक किसी औषधि का निर्माण तो नहीं हुआ, परंतु तनाव मुक्ति के लिए जिन विधियों का परीक्षण हुआ, उनमें सर्वोत्तम विधि है उपासना अर्थात ईश्वर का चिंतन मनन। संसार के दुखों से संतप्त मनुष्य के लिए शांति प्राप्ति का परम साधन यही उपासना है। हमारे दुखों कष्टों की चिकित्सा है उपासना। मनुष्य के अंत: करण में जब तामसिक वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं, तो उससे मनुष्य में लोभ, मोह ईर्ष्या, घृणा एवं वासना तथा अज्ञानता भी बढ़ जाती है, जिससे संपूर्ण अंत: करण मलिन हो  जाता है। यही मलिन अंत:करण मनुष्य को अधोगति की ओर ले जाता है । परमात्मा के साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधा अंत:करण की अशुद्धि ही है ।उपासना इसी अशांत अंत:करण को सात्विकता एवं एकाग्रता प्रदान करती है। जब मनुष्य एकांत में अपने सांसारिक कार्यों से निवृत्त होकर परमेश्वर का चिंतन करता है तो उससे उसके चित को शांति मिलती है। उपासना से मनुष्य की आत्मा में आनंद एवं आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार होता है । सात्विक प्रवृत्तियों का जन्म इसी उपासना से होता है । सत्व गुण की वृद्धि चित्त को एकाग्रता प्रदान करती है।  धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार वस्तुएं हैं जिनके लिए मनुष्य भटकता फिरता है। धर्म बुद्धि के लिएए अर्थ शरीर के लिए, काम मन के लिए, मोक्ष आत्मा के लिए। इन चारों पुरुषार्थो की प्राप्ति का हेतु तथा ज्ञान वैराग्य का परम साधन परमात्मा की भक्ति ही है । भक्ति ही वह साधन है जिसके माध्यम से मनुष्य के अंत: करण में पवित्रता का संचार होता है। श्री गुरु नानक देव जी ने भी कहा है कि सभी दुखों की औषधि प्रभु की उपासना ही है। सामवेद में भी बताया गया है कि उपासना से हृदय में उदारता, कार्यों में नियमितता एवं शक्ति संपन्नता की वृद्धि होती है । इसी उपासना से मनुष्य में विवेक शक्ति का उदय होता है । उपासना के माध्यम से प्रभु का चिंतन राक्षसी वृत्तियों का समूल नाश कर देता है।उपासना से ही उपासक के हृदय में ज्ञानाग्नि  का उदय होता है जो प्रतिपल जीवन के पथ पर मनुष्य का मार्गदर्शन करती है। हमारे ऋषियों का भी यही चिंतन था कि उपासना ही मनुष्य के अन्त:करण में आध्यात्मिक शक्तियों को जागृत करती है। वर्तमान में भौतिकवाद ने मनुष्य को एक मशीन मात्र बना कर कर रख दिया है । अशांति, तनाव, व्यस्त दिनचर्या व बनावटी जीवनशैली ने  मनुष्य की मानसिक व आत्मिक शक्ति को पूर्ण रूप से भंग कर दिया है। ऐसे अशांत चित्त मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा यही प्रभु उपासना है। प्रभु उपासना शांति एवं समृद्धि व आनंद का मार्ग है । स्वामी दयानंद जी ने भी उपासना का महत्व बताते हुए कहा है कि ईश्वर की उपासना से आत्मा का बल इतना बढ़ जाता है कि वह पर्वत के समान दुख प्राप्त होने पर भी नहीं घबराता। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। उपासना प्रभु अनुभूति की सीढ़ी है। यजुर्वेद में भी बताया गया है।  दुखों से निवृत्ति एवं मोक्ष प्राप्ति का अन्य कोई रास्ता नहीं है। केवल मात्र प्रभु भक्ति से ही आनंद की अनुभूति की जा सकती है। इस प्रकार उपासना से ही अंत:करण में पवित्रता तथा दिव्य गुणों का अवतरण होता है। यही उपासना एवं प्रभु भक्ति मनुष्य के भ्रमित चित को एकाग्रता का कवच प्रदान करती है।

-आचार्य दीप चन्द भारद्वाज
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