दिल्ली चुनाव के आईने में कांग्रेस का भविष्य_ क्या अभी भी इसे बचाया जा सकता है?


—उपेन्द्र प्रसाद
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत हुई और भारतीय जनता पार्टी की हार हुई, लेकिन आज ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि कोई यह नहीं कह रहा कि यहां कांग्रेस की हार हो गई है। कारण स्पष्ट है, उसकी हार चर्चा का विषय होती है, जिसकी जीत की उम्मीद थी, लेकिन कांग्रेस की जीत की तो कोई उम्मीद ही नहीं थी। देश की सबसे बड़ी पार्टी के लिए चुनावी आशावाद सिर्फ  इसको लेकर ही था कि शायद कांग्रेस अपना खाता खोल ले। यदि कांग्रेस को वास्तव में एक सीट भी मिल जाती तो कुछ कांग्रेस नेता खुश होकर बोलते कि खाता खुल जाना ही उनकी जीत है। लेकिन दिल्ली की जनता ने संतोष करने के लिए कांग्रेस को एक सीट तक नहीं दी।
कोई सीट तो इसे पांच साल पहले 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में भी नहीं मिली थी। लेकिन तब इसे करीब 10 फीसदी मत मिले थे। सीट इस बार भी नहीं मिली है, लेकिन इस बार उसे करीब साढ़े चार फीसदी मत मिले हैं। यानी पिछले विधानसभा चुनाव में मिले मतों का आधा ही उसे इस बार मिल पाया है। पार्टी ने 66 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे। शेष 4 सीटें सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के लिए छोड़ दी थी। इन 66 सीटों में मात्र 3 पर ही कांग्रेस उम्मीदवार की जमानत बच सकी। किसी भी सीट पर देश की सबसे पुरानी पार्टी दूसरे नंबर पर भी नहीं आ पाईं। अनेक सीटें तो ऐसी हैं, जहां कांग्रेस उम्मीदवार को 1000 मत भी नहीं प्राप्त हो सके।
यानी कांग्रेस ने दिल्ली में अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार पाई है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन आम आदमी पार्टी से बेहतर था। उसे 22 फीसदी से भी ज्यादा मत मिले थे, जबकि आम आदमी पार्टी को सिर्फ  18 फीसदी वोट ही मिल पाए थे। लोकसभा की 7 में से 5 सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार ही दूसरे स्थान पर थे। इसलिए उम्मीद जागी हुई थी कि शायद इस बार स्थिति कुछ बेहतर हो, लेकिन आम आदमी पार्टी ने तो अपना वोट शेयर तीन गुना कर लिया, जबकि कांग्रेस 22 फीसदी से सिकुड़कर साढ़े चार फीसदी पर आ गई। इतनी बदहाली के बावजूद चिदंबरम जैसे नेता सिर्फ  इस बात को लेकर खुश थे कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव हार गई।
इस तरह का विचार रखने वाले कोई अकेले चिदंबरम ही नहीं हैं। सच तो यह कहा जाय कि अनेक कांग्रेस नेता सिर्फ यह देखना चाह रहे थे कि भाजपा हार जाय, क्योंकि उन्हें पहले से ही पता था कि उनकी जीत की दूर-दूर तक संभावना नहीं है। यानी कांग्रेस चुनाव के पहले ही हार स्वीकार कर चुकी थी और यह चुनाव उसके लिए महज औपचारिकता ही था। बिहार और उत्तर प्रदेश के बाद दिल्ली से कांग्रेस लगभग पूरी तरह साफ  हो गई है। बिहार में उसे कुछ सीटें गठबंधन के कारण है। यही हाल झारखंड का है। उत्तर प्रदेश में खुद सोनिया गांधी इसलिए जीत पाई, क्योंकि उनके खिलाफ  सपा या बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं था। इन दोनों पार्टियों में से यदि किसी ने भी वहां अपना उम्मीदवार खड़ा किया होता, तो सोनिया भी वहां हार सकती थीं। राहुल गांधी तो अमेठी से चुनाव हार ही गए। प्रियंका ने बनारस से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ  चुनाव लड़ने की इच्छा जताई थी, लेकिन कांग्रेस के समझदार लोगाें ने उन्हें समझाया कि चुनाव लड़कर वे अपनी तौहीनी ही करवाएंगी। इसलिए प्रियंका चुनाव लड़ी ही नहीं।
दिल्ली की शर्मनाक पराजय ने एक बार फि र कांग्रेस के भविष्य को लेकर सवाल खड़ा कर दिया है। लेकिन कांग्रेस अभी भी कुछ राज्यों में सत्ता में है और खासकर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे तीन हिन्दी राज्यों में अपने बूते सत्ता में है। पंजाब में भी वह पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में है। महाराष्ट्र में वह सत्ता की भागीदारी कर रही है और झारखंड में भी। गुजरात, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, असम और हिमाचल प्रदेश में वह प्रमुख विपक्ष है। इनमें से कुछ राज्यों में तो यह एक मात्र विपक्ष है। जाहिर है, कांग्रेस अभी भी जिंदा है, भले इसके प्रभाव का क्षेत्र घट गया हो। लेकिन गंगा के मैदानी प्रदेशों में इसकी दुर्गति इसके भविष्य पर सवाल खड़ा कर रही है। जिन प्रदेशों में यह प्रमुख विपक्ष नहीं है, वहां इसके फि र से उभरने की संभावना क्षीण से क्षीणतर होती जा रही है। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के फि र से उदय का जिम्मा संभाल रखा है। लेकिन अब वह शायद ही कोई करिश्मा दिखा सकें। इसका कारण यह है कि जिस परिवार का होने के कारण उनको फ ायदा मिल सकता था, उस परिवार की छवि सही और गलत तरीके से बुरी तरह बिगाड़ दी गई है। जिन राज्यों में कांग्रेस ने हाल के समय में विजय पताका लहराई है, उनमें से किसी में भी विजय के लिए सोनिया गांधी या उनके परिवार को श्रेय नहीं दिया जा सकता। उन प्रदेशों में अन्य राजनीतिक ताकतें खड़ी नहीं हो पाई हैं, इसका फायदा ही कांग्रेस को मिलता है न कि नेहरू या सोनिया के परिवार की ख्याति के कारण।
कांग्रेस की हार और जीत का यदि विश्लेषण किया जाय, तो साफ  हो जाता है कि जीत में सोनिया या उनके परिवार का कोई रोल नहीं होता, लेकिन उनके परिवार को भारतीय जनता पार्टी जरूर कोसती है और उससे कांग्रेस का जरूर कुछ न कुछ नुक्सान होता है। इसका मतलब है कि नेहरू, इन्दिरा या राजीव की यादें कांग्रेस को जिताने का काम नहीं करतीं और उनकी यादों के सहारे जीतने के लिए अब गांधी परिवार के हाथ में पार्टी की बागडोर दिए रखना गलत है। कांग्रेस के लिए यह अच्छा होगा कि वह सोनिया, राहुल और प्रियंका से छुटकारा पा ले और यदि सोनिया खुद कांग्रेस का बेहतर भविष्य चाहती हैं, तो अपने बेटे और बेटी के साथ वह खुद भी कांग्रेस को अपने हाल पर छोड़ दें। कांग्रेस अपना कोई नेता ढूंढ़ लेगी और शायद तक उसका कोई भविष्य हो। पर सोनिया, राहुल या प्रियंका के नेतृत्व में कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है। (संवाद)