अंतत :

मां अधिक दिन इस सदमें को नहीं झेल सकीं। पिता जी अकेले रह गए, अब तक तो उसकी पोस्टिंग भी कमला नेहरू अस्पताल में हो गई थी। इसके साथ ही उसने सर्जन की पढ़ाई शुरू कर दी थी। घर में अकेले रह गए पिताजी को लेकर अक्सर ही रेवा परेशान रहती। रेवा चाहती थी कि पिताजी उसके पास आ जाएँ लेकिन वह अपना घर छोड़ने को तैयार नहीं थे, हाँ कभी-कभार वह कुछ दिनों के लिए शिमला आ जाते और बेटी के साथ कुछ समय अवश्य गुजारते। फिर अपने घर वापस लौट जाते। वह जब उनके लिए बहुत परेशान होती तो पिताजी ही उसका हौसला बढ़ाते, पर सच तो यह था कि उन्हें कहीं न कहीं अपराध बोध अवश्य था, रेवा के बार-बार उनको शिमला आ जाने के लिए आग्रह करने पर वे कहते, ‘मैं ठीक हूँ रेवा! गोरखा मेरी देख-भाल कर लेता है, तुम मेरी चिन्ता छोड़ कर अपनी काम पर ध्यान दो।’
रेवा को शिमला में रामपुर की ़खबरें पिता से मिलतीं। वह शिमला की सर्दी में छुट्टी लेकर घर चली जाती और पिताजी के साथ समय व्यतीत करती। डॉ. सूर्य प्रकाश भी अब तक सेवानिवृत्त हो चुके थे। दरअसल रेवा को डॉक्टर बनाने का सुझाव उन्होंने ही अपने मित्र को दिया था। इसलिए वह हर बार रेवा की सुरक्षा के लिए तत्पर रहते। इस बार सर्दी की छुट्टियों में वह घर आई तो पिता जी को बेहद परेशान देखकर पूछ लिया, ‘आप को क्या हुआ है? आप तो कहते थे गोरखा आपकी देख-भाल कर लेता है।’
वह पिता जी की आराम कुर्सी के पास धरती पर ही बैठ गई। ‘मैं तो ठीक हूँ  रेवा, पर डॉ.  प्रकाश ठीक नहीं है। इसके अलावा एक बात और भी है। जय एक गरीब लड़की को पत्नी बना कर घर ले आया है, पर उसने उससे शादी नहीं की है। लोगों से कह रहा है कि उसकी नौकरानी है पर असलियत सब जानते हैं।’
‘तो लाने दीजिए न!’
‘तुम कहो तो मैं केस दर्ज कर दूँ, तुम हस्ताक्षर कर दो।’
‘जाने दीजिए पिता जी! जब मेरा उससे कुछ लेना-देना ही नहीं है, तो वह कुछ भी करता फिरे। बस मैं तो एक बार सर्जन बन जाऊं,  मुझे और कुछ नहीं चाहिए।’ ‘बेटा, तेरे और तेरी माँ के विरोध के बावजूद मैंने हठ की और तेरी जिन्दगी बरबाद हो गई।’
 ‘नहीं पिताजी, ईश्वर जो चाहते हैं वैसा ही होता है, यह आप ही तो कहा करते हैं न फिर आप ने कहाँ कुछ गलत किया? बस ईश्वर को यही मंजूर था इसलिए यह सब हो गया। आप मन में इस तरह के विचार कभी भी न लाइएगा।’ पिताजी ठण्डी सांस लेकर रह गए और रेवा फिर से शिमला चली गई। पिता जी का साथ भी कब तक रहता? पहले इकलौता बेटा परदेस जा बसाए फिर रेवा का विवाह टूट गया और उसकी माँ का वियोगए सब मिल कर उनके लिए घातक बन गए। ऐसे में कुछ वर्ष तो डॉ. सूर्य प्रकाश ने उसे पिता की कमी महसूस नहीं होने दी और हर तरह उसका मार्ग-दर्शन करते रहे, परन्तु पुराने पात तो झड़ने ही थे। 
खट-खट-खट खिड़की के पट बजे तो रेवा चौंकी, द्रौपदी को आवाज़ देकर उसे खिड़की बन्द करने को कहा। बाहर जोर की आँधी चल रही थी। खुली खिड़की से होकर बाहर से हवा के साथ बाग के पत्ते और धूल-धक्कड़ भी कमरे में आ गया था। ऐसी ही आँधी बनकर जय उसके जीवन में आज फिर आ धमका और अपने साथ ले आया था, ऐसे ही अतीत का वह धूल-धक्कड़ जिसे डॉ. सूर्य प्रकाश के स्नेह ने उजालों की वर्षा से धो-पोंछ कर साफ कर दिया था। 
वह फिर लौट चली अतीत में। अब उसने अपना रामपुर बुशहर का घर किराये पर दे दिया था। इस घर का एक छोटा हिस्सा तो पहले से ही किराये पर था किन्तु अब रेवा ने वह छोटा भाग अपने लिए रखकर बड़ा हिस्सा किराये पर उठा दिया, तीन-चार छुट्टियाँ पड़ने पर ही वह रामपुर जाती और मकान का किराया लेकर लौट आती। किरायेदार भी सज्जन थे। वह जब भी आती उसे किराया मिल जाता था। इस बार भी वह छुट्टी में घर आई थी। आते ही उसने अपनी बचपन की सहेली सुषमा को फोन किया जो शहर ही में ब्याही गई थी। सुषमा ने रात के खाने के लिए उसे अपने ही घर में बुला लिया। 
कल का पूरा दिन रेवा के पास था। उसे परसों शिमला लौटना था। दोनों ने उस दिन सराहन घूमकर आने का कार्यक्त्रम बनाया और प्रात: ही सुषमा घर से भोजन बनाकर साथ ले आई थी। सराहन पहुँचकर भीमाकाली के मन्दिर की तीनों सीढ़ियां लाँघकर उन्होंने अपना सामान वहाँ रख दिया जहाँ सभी दर्शनार्थियों का सामान रखा हुआ थाए हाथ-पैर धोए और मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ने लगी। आठ-दस सीढ़ियां चढ़कर खुले आँगन में दो समानान्तर खड़े मन्दिरों में से वे दोनों पहले पुराने मन्दिर के पास गईं। इस का दरवाज़ा जो मुश्किल से तीन फुट होगा, चाँदी के पतरे से मड़ा हुआ और सुन्दर बेल-बूटों एवं देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से सुशोभित था। यह द्वार सदा ही लोहे की मोटी साँकल से बन्द रहता है। (क्रमश:)
बड़े-बड़े पत्थरों और शहतीरों से निर्मित इस मन्दिर में चारों तरफ 6-6 इंच के चौकोर गवाक्षों के अतिरिक्त अन्य कोई भी खिड़की द्वार नहीं। मात्रा तीन फिट का एक दरवाजा। 150 फिट ऊँचे इस पुराने मन्दिर की चौकोर इमारत में चारों ओेर लगी एक-एक फिट चौड़ी शहतीरें उसकी उम्र बता रही थीं। इस मन्दिर की परिक्रमा करके वे दोनों मुख्य और नवीन मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ने लगी, तो रेवा बोली, ‘सुषमा! क्या तूने कभी सोचा है कि इस मन्दिर की बारीक नक्काशी के काम में कितनी मेहनत पड़ी होगी?‘
‘क्या खाली मन्दिर अरे साथ में कमला विश्रामगृह, राजा वीरभद्र सिंह का महल, बिजलीघर का कार्यालय! सभी की सजावट, उन पर की गई कीमती नक्काशी से ही तो है।’
 ‘क्यों न हो! यह सम्पत्ति राजा साहब की व्यक्तिगत सम्पत्ति ही तो थी। आज भले ही यह टैम्पल कमेटी को दे दी गई है।’ 
अब तक वे दोनों भीमाकाली मन्दिर के दूसरे तल तक आ पहुँची थीं। यहाँ भी पाँच फिट का चाँदी के पतरे से मड़ा दरवाजा सदा की भाँति आज भी मोटे से ताले के साथ बंद पड़ा हुआ था। तभी तंग सीढ़ियों की छत से रेवा का सिर टकराया, तो सुषमा झट से बोल उठी ‘पता नहीं कितनी बार आ चुकी है मन्दिर, फिर भी तेरा सिर टकरा ही जाता है।’ ‘झुक कर न चलने का यही नतीजा होता है  रेवा हँस दी। बात करते-करते वे लोग मन्दिर में पहुँच चुकी थीं, ‘यहाँ तो झुके बिना अन्दर जा ही नहीं सकते, दरवाजा इतना छोटा है।’ रेवा फिर हँस दी। मन्दिर के कक्ष में लाल रंग का मोटा कालीन बिछा हुआ था। भीतर पाँच फिट की कक्षा घेर कर पीतल के मोटे डंडे ऊपर छत तक लगाकर मूर्ति के चारों ओर जंगला बनाया गया था। इसके भीतर महिषमर्दिनी की तीन फिट ऊँची प्रतिमा शेर पर
सवार थी, जिस पर सोने का पतरा मढ़ा हुआ था। यहाँ चाँदी के बड़े-बड़े बर्तन (कमण्डल, अरघा) आदि के साथ ठोस चाँदी का दो फिट लम्बा और एक फिट चौड़ा सिंहासन भी रखा हुआ था। अन्य बीसियों चाँदी और अष्टधातु की मूर्तियाँ आदि भी चारों ओर रखी हुई थीं, मन्दिर के इस भाग में भी ताला पड़ा हुआ था। पीतल के जंगले के बाहर पुजारी एक ओर कालीन पर बैठा सब को चरणामृत और प्रसाद बाँट रहा था। इन दोनों ने भी दान पात्रों में कुछ सिक्के डाले। अपने सिर पर हाथ रख कर पुजारी से तिलक लगवाया और प्रसाद लेकर बाहर निकल आईं। परिक्रमा के बरामदे में खड़़े होकर कुछ देर बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों के सौंदर्य को आँखों से पीती रहीं, फिर वहाँ से भी बाहर निकल आईं। सीढ़ियां उतर कर अब वे लंकड़े के मन्दिर की ओर बढ़ रही थीं। तभी सुषमा ने उसे कोहनी से टोहका तो रेवा चौंकी।
सामने से जय मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ रहा था, उसके साथ उसकी माँ और छोटी भाभी थीं, लेकिन उनका ध्यान उन दोनों की ओर नहीं था फिर भी वे दोनों झट से दीवार की ओट में हो गई। ‘रेवा! तुझे पता है इस की सगाई ऊना से हो रही है। आजकल यह वहीं पर पोस्टेड है। सुना है वहाँ स्वयं को अविवाहित बताकर इसने किसी लड़की को पटा लिया है।’सुषमा कह रही थी, ‘क्यों? वह कुल्लू वाली कहाँ गई’?
‘वह... अरे गाँव की औरतें कहीं सुनतीं हैं ऐसा रौब? वह तो छ: ही महीनों में भाग गई छोड़कर!’ ‘छोड़ न सुषमा...हमें क्या लेना है जय से और उसकी शादियों से? ’रेवा का मूड उखड़ गया लगता था।
 ‘पर तू उस पर कुछ ऐक्शन क्यों नहीं लेती? बिना तुझे तलाक दिए कभी एक को ला रहा है कभी दूसरी को।’ 
‘वह चाहे तो दस ले आये। मेरे मन में तो वह कभी बैठा  ही नहीं, बेचारे पिता जी, अपनी भूल पर ही घुल-घुल कर मर गए। मुझे तो बस अपने पिताजी के लिए दुख है।’रेवा ने एक ठण्डी साँस ली।
‘डॉ. साहब! चाय ले आऊं’ द्रौपदी ने उसे फिर से वर्तमान में ला दिया था। 
‘हाँ...हाँ! द्रौपदी, तुम ठीक समय पर पूछने आई हो, जाओ दो कप चाय लाना!’जय ने दरवाजे पर से ही कहा। ‘द्रौपदी! मैंने तुम्हें कहा था क्या चाय लाने के लिए? जाओ! अपना काम करो!‘
‘चलो! चाय नहीं पिलाना चाहतीं तो न सही! तुम्हारी मर्जी।’जय ने दोनों हाथ झटके, ‘पर अब यह मत कहना कि बैठो भी नहीं।’ कहता हुआ जय रेवा के पास ही सोफे पर बैठने लगा तो रेवा एकदम वहाँ से उठकर कुर्सी पर जा बैठी। विवश होकर जय को दूसरी कुर्सी पर बैठना पड़ा। रेवा जान चुकी थी कि यदि वह भीतर शयन कक्ष में गई तो जय वहाँ भी आ धमकेगा, जो वह कभी सहन नहीं कर सकेगी। ‘पता नहीं कैसे.कैसे ढीठ लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं कि न अपनी इज्ज़त का विचार न बेइज्जती का। फिर उन्हें किसी और की इज्जत का क्या ख्याल होगा’ रेवा रुआँसी हो रही थी। ‘क्यों भई डॉक्टर रेवा! अपनी पत्नी के घर आने में क्या बेइज्जती होती है? ‘
‘मिस्टर जय प्रकाश अस्थाना..’रेवा ने एक-एक शब्द को चबाते हुए कहा, ‘यह बात तो तुम्हें उस समय सोचनी चाहिए थी जब तुम मुझे बाप के दरवाजे पर छोड़ आये थे, या जब तुम कुल्लू से नई पत्नी लाए थे, या फिर जब रजनी से विवाह किया था। इतनी सारी वारदातों के बाद भी अब तुम ब्याहता पत्नी को चारा डालने की कोशिश कर रहे होघ्’रेवा का चेहरा क्रोध से लाल हो रहा था। ‘नहीं रेवा, तुम गलत सोच रही हो। मैं किसी को चारा नहीं डाल रहा। बस अपनी रूठी पत्नी को मना रहा हूँ!’ 
‘वह भी तब, जब एक छोड़कर भाग गई और दूसरी भगवान को प्यारी हो गई।’ ‘तुम चाहती तो रजनी को बचा सकती थीं, पर तुमने जान-बूझकर अपनी ड्यूटी बदलवा ली, ताकि तुम अपनी सौत को बचाने की जिम्मेदारी से बच सको।’
 ‘यदि रजनी बच जाती फिर तुम मेरा पीछा नहीं करते, क्यों?
‘हाँ! मेरा घर नहीं उजड़ता तो मैं तुम्हारे पास क्यों आता? और अब तुम्हें उसका भुगतान तो करना ही होगा न। फिर भी मैं तुम्हारा गुस्सा दूर कर के तुम्हें मनाकर अपने घर ले जाऊँगा। ठीक रहेगा न? ‘
‘नहीं मिस्टर जय प्रकाश! मैं तुम्हारी शक्ल न पहले देखना चाहती थी और न अब देखना चाहती हूँ बल्कि सच तो यह है कि तुम्हारी शक्ल मैं कभी भी नहीं देखना चाहती। जिस आदमी के कारण मेरे पिताजी को सारी उम्र घुट-घुट कर जीना पड़ा और वे मेरे सामने खुद को अपराधी मानते रहेए उस व्यक्ति को मैं कैसे माफ  कर सकती हूँ? और एक तुम ऐसे ढीठ हो कि तुम पर इन सब बातों का कोई असर ही नहीं पड़ता। लेकिन अब मैं कह रही हूँ कि तुम यहाँ से दफा हो जाओ और फिर कभी इधर मत आनाए वरना...।’
‘वरना क्या? बताओ! वरना पुलिस में रिपोर्ट करोगी?’ जय बड़ी बेशर्मी से हँसा, ‘अरे भई हमें भी तो पता चले कि ऐसा कौन सा कानून है जो पति को पत्नी के घर आने से रोकेगा’ थोड़ा रुक कर बोला, ‘खैर अभी तो मैं जा रहा हूँ! कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर भी जा रहा हूँ। मगर मेरे लौटने तक फैसला कर लेना कि मैं यहाँ रहने आऊँ या तुम मेरे पास आ रही हो।’
‘अच्छी जबरदस्ती है, मान न मान मैं तेरा मेहमान। तुम यहाँ से दफा हो जाओ और कान खोल कर सुन लो कि न तुम यहाँ आ सकते हो न मैं वहाँ आ रही हूँ। तुम जो सोच रहे हो, वैसा कुछ नहीं होने वाला।’ जय बेशर्मी से हँसता हुआ दरवाजे से बाहर निकल गया। द्रौपदी पिछले दरवाजे में खड़ी अपनी मालकिन की बेबसी देख रही थी। वह सोच रही थी कि बेचारी डॉ. रेवा कुछ भी तो नहीं कर सकती। डरती हैं कि शोर होने से लोगों में बदनामी होगी। अगर मेरा आदमी होता तो मैंने अब तक लकड़ी काटने वाले दराट से इसके काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दिए होते।
यह इज्ज़त भी बहुत बुरी चीज़ है। कोई अपने मन की बात भी किसी से नहीं कह सकता। इससे तो हम गरीब ही अच्छे हैं। कम से कम जो मन में आया कह दिया और छुट्टी, पर यह आदमी राम राम यह कितना बेशरम है। डॉ. रेवा रोज ही इसकी बेइज्जती करती हैं पर इस पर कुछ भी असर नहीं होता। ब्याहता बीवी के होते हुए दो-दो औरतें ब्याह लाया और अब भी रेवा बीबीजी जैसी बड़ी डॉक्टर से रिश्ता निभाने की उम्मीद रखता है।
 ‘द्रौपदी।’अचानक रेवा की पुकार पर चौंक उठी वह। ‘खाना लगाओ। सुबह दो आप्रेशन हैं और यह कम्बख्त जब-तब आकर मूड ख़राब कर जाता है।’ रेवा बड़बड़ाते हुए डाइनिंग टेबल पर आ बैठी। अब तक जय प्रकाश जा चुका था। रेवा सोच रही थी कि उसने तो पिता जी को दहेज का सामान वापस माँगने से भी मना कर दिया था, ‘अगर उसका पेट भर जाता है तो खा लेने दीजिए।’ कहकर पल्ला झाड़ लिया था। लेकिन यह तो जोंक की तरह चिपक गया है, किससे कहे रेवा? क्या करे? अब तो डॉ. सूर्यप्रकाश भी नहीं रहे, जिनका उसे सहारा था। ले-देकर एक सुषमा ही तो थी जिससे वह अपने मन की कह सकतीए इसलिए रेवा ने सुषमा को फोन करके अपना मन हल्का किया। 
इधर सभी डॉक्टरों को और सभी स्टाफ को भी रेवा से हमदर्दी थी, क्योंकि रजनी का आपरेशन तो इसी अस्पताल में हुआ था न? यह तो तय था कि रेवा जय से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहती थी लेकिन जय उचित-अनुचित किसी भी हथियार को प्रयोग करने से बाज़ नहीं आ रहा था। हद यह कि एक दिन वह बच्चे को भी रेवा के क्वार्टर में छोड़ गया कि शायद बच्चे को देखकर उसके दिल में ममता जाग जाए पर उसने तुरन्त ही द्रौपदी के हाथों बच्चा उसके घर वापस भिजवा दिया।
जय कई दिनों बाद शिमला वापस आया था। आते ही नहा-धोकर तैयार होने लगा। ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा हुआ तो उसे याद आया कि यह टेबल भी रेवा ही का तो था। वह बालों में कंघी घुमाते हुए सीटी बजाने लगा। अभी वह जूते पहनने ही जा रहा था कि कॉलबैल बज उठी। बाहर आकर देखा, माँ जिस आदमी को साथ लेकर आ रही थी, वह एक वकील के अलावा कुछ नहीं था। अभी जय कुछ पूछता कि आगंतुक बोल उठा, ‘मिस्टर जय प्रकाश आप ही हैं’
‘जी हाँए कहिए।’
‘यह लीजिए! यहाँ साइन कर दीजिए।’उसने कुछ कागज़ जय की ओर बढ़ाए तो जय अचकचाकर बोला, ‘यह क्या है?’
‘पढ़ लीजिए, डाइवोर्स पेपर हैं...।’ ‘डॉ. रेवा ने आपके खिलाफ तलाक का केस फाइल किया है।’ ‘अगर मैं उसे तलाक न देना चाहूँ तो,’वह ढिठाई दिखाने लगा। ‘उन्होंने आपके विरुद्ध चरित्रहीनता का आरोप लगाया है।’ 
‘कैसे?’
‘उन्होंने आप पर बिना उन्हें तलाक दिए दूसरे विवाह का आरोप लगाया है। प्रमाण के तौर पर उन्होंने अपने अस्पताल में श्रीमती रजनी के पति के रूप में रजनी के केस को साक्षी पेश किया है और इसी आधार पर कोर्ट ने जो आदेश पारित किया है, उसके अनुसार आप वहाँ अब नहीं जा सकते। कोर्ट के आदेश का उल्लंघन करने पर आपके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है। 
‘यह कैसे हो सकता है’? उसकी आवाज़ दहाड़ने के बजाए अब मिमियाने वाली सी लग रही थी और वह बरामदे में पड़ी कुर्सी पर धम्म से बैठ गया।

(समाप्त)