संविधान से धर्म-निरपेक्ष शब्द हटाने की मांग

सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल हुई है, जिसमें संविधान की प्रस्तावना में बाद में जोड़े गए दो शब्द समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष हटाने की अपील की गई है। इसमें कहा गया है कि न्यायालय घोषित करे कि प्रस्तावना में दिए गए ये शब्द गणतंत्र की अवधारणा की प्रकृति से जुड़े भी हैं अथवा नहीं? जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29-ए (5) में दर्ज समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान की मूल प्रस्तावना में नहीं थे। इन्हें 42वें संविधान संशोधन के जरिए 3 जनवरी 1977 को जोड़ा गया। इस समय देश में आपातकाल लागू था और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। संशोधन के इस प्रस्ताव पर संसद के दोनों सदनों में बहस भी नहीं हुई थी, क्योंकि सभी विपक्षी दलों के प्रमुख नेता आपातकाल के दौरान जेलों में बंद कर दिए गए थे। यह याचिका वकील विष्णुशंकर जैन, बलराम सिंह और करुणेश कुमार शुक्ला ने प्रस्तुत की है। यह सही है कि भारत का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भारतीय संविधान का बुनियादी आधार है, लेकिन इस अभिव्यक्ति की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई है। इसलिए जब भी गीता या रामायण के नैतिक मूल्यों और चारित्रिक शुचिता से जुड़े अंशों को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात आती है तो वामपंथी दल व अन्य बुद्धिजीवी इन पहलों को लोकतंत्र के मूलभूत संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों के विरुद्ध बताने लगते हैं। दरअसल, स्वतंत्रता के बाद से ही केवल हिंदू और हिंदुओं से जुड़े प्रतिरोध को ही धर्मनिरपेक्षता मान लेने की परम्परा सी चल निकली है। जबकि वास्तविकता यह है कि मूल संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द था ही नहीं। यह शब्द तो आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाकर ‘समाजवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान अधिनियम 1976’ के माध्यम से जोड़ा गया था।आपातकाल के बाद जब जनता दल की केंद्र में सरकार बनी तो यह सरकार 43वां संशोधन विधेयक लाकर सेक्युलरिज्म मसलन धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या स्पष्ट करना चाहती थी। प्रस्तावित प्रारूप में इसे स्पष्ट करते हुए वाक्य जोड़ा गया था, गणतंत्र शब्द जिसका विशेषण ‘धर्मनिरपेक्ष’ है, का अर्थ है, ऐसा गणतंत्र जिसमें सब धर्मों के लिए समान आदर हो, ् लेकिन लोकसभा से इस प्रस्ताव के पारित हो जाने के बावजूद कांग्रेस ने इसे राज्यसभा में गिरा दिया था। अब उस समय के कांग्रेसी ही यह स्पष्ट कर सकते हैं कि धर्मों का समान रूप से आदर करना धर्मनिरपेक्षता क्यों नहीं है। गोया, इसके लाक्षणिक महत्व को दरकिनार कर दिया गया। शायद ऐसा इसलिए किया गया जिससे देश में सांप्रदायिक सद्भाव स्थिर न होने पाए और सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता को अनंतकाल तक वोट की राजनीति के चलते तुष्टिकरण के उपायों के जरिए भुनाया जाता रहे। साथ ही इसका मनमाने ढंग से उपयोग व दुरुपयोग करने की छूट सत्ता-तंत्र को मिली रहे। जहां तक गणतंत्र शब्द का प्रश्न है तो विक्टर ह्यूगो ने इसे यूं परिभाषित किया है, ‘जिस तरह व्यक्ति का अस्तित्व उसके जीने की इच्छा की लगातार पुष्टि है, उसी तरह देश का अस्तित्व उसमें रहने वालों का परस्पर तालमेल नित्य होने वाला जनमत संग्रह है।’ दुर्भाग्य से हमारे यहां परस्पर तालमेल खंडित हो रहा है। अलगाव और आतंकवाद की अवधारणाएं निरंतर देश की संप्रभुता व अखण्डता के समक्ष खतरा बनकर उभरी हैं। राष्ट्रवाद और भारत माता की जय को भी संकीर्ण और अल्प-धार्मिक दृष्टि से देखा जा रहा है। जवाहरलाल नेहरू विवि में जिस तरह से देश के हजार टुकड़े करने के नारे लगाए गए, और उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी के परिप्रेक्ष्य में संवैधानिक ठहराने की कोशिशें हुईं, उस संदर्भ में लगता है कि धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के मायने राष्ट्रद्र्रोह को उकसाने और उन्हें सरंक्षित करने के उपाय साबित हो रहे हैं। लिहाज़ा इन शब्दों को संविधान से विलोपित किया जाना ज़रूरी है।वर्तमान में हमारे यहां धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के शब्द ‘सेक्युलर’ के अर्थ में हो रहा है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड शब्द-कोश में इसका अर्थ  ‘ईश्वर-विरोधी’ दिया गया है। भारत और इस्लामिक देश ईश्वर विरोधी कतई नहीं हैं। ज्यादातर क्रिश्चियन देश भी ईसाई धर्मावलम्बी हैं। हां, बौद्ध धर्मावलम्बी चीन और जापान ज़रूर ऐसे देश हैं, जो धार्मिक आस्था से पहले राष्ट्र-प्रेम को प्रमुखता देते हैं। हमारे संविधान की मुश्किल यह भी है कि उसमें धर्म की भी व्याख्या नहीं हुई है। इस बाबत न्यायमूर्ति राजगोपाल आयंगर ने ज़रूर इतना कहा है, ‘मैं यह जोड़ना चाहता हूं कि अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक सहिष्णुता का वह सिद्धांत शामिल है, जो इतिहास के प्रारंभ से ही भारतीय सभ्यता की विशेषता रहा है।’ इसी क्रम में उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘धर्म शब्द की व्याख्या लोकतंत्र में नहीं हुई है और यह ऐसा शब्द है, जिसकी निश्चित व्याख्या संभव नहीं है।’ संभवत: इसीलिए न्यायालय को कहना पड़ा कि गणतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव राष्ट्र-निर्माताओं की इच्छा के अनुरूप होना चाहिए और इसे ही संविधान का आधार माना जाना चाहिए।’  वैसे भारतीय परम्परा में धर्म कर्त्तव्य के अर्थ में प्रचलित है यानी मां का धर्म, पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, स्वामी का धर्म और सेवक का धर्म। इस संदर्भ में कर्त्तव्य से निरपेक्ष कैसे रहा जा सकता है। सेक्युलर के लिए शब्द-कोश में पंथनिरपेक्ष शब्द भी दिया गया है, पर इसे प्रचलन में नहीं लिया गया। कर्त्तव्य के उपयुक्त पालन के निहितार्थ ही संविधान के 42वें संशोधित अधिनियम 1976 के अंतर्गत बुनियादी कर्त्तव्य के परिप्रेक्ष्य में एक परिच्छेद संविधान में जोड़ा गया है। अनुच्छेद 51ए (ई) में कहा गया है, ‘धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय भेदों से ऊपर उठकर सौहार्द्र और भाईचारे की भावनाएं बनाए रखना और स्त्रियों की गरिमा की सुरक्षा करना हरेक भारतीय नागरिक का दायित्व होगा।’देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए ऐसे ही समीचीन उपायों की ज़रूरत है लेकिन विधि सम्मत दायरे में धर्मनिरपेक्ष शब्द की अपरिभाषित स्थिति में कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि इसका लचीलापन दुरुपयोग का सबब बन रहा है। हालांकि देश को एकरूपता देने की दृष्टि से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को हटा कर इस दिशा में उल्लेखनीय विधि-सम्मत पहल की है।