पाप का भय 

बहुत पुरानी बात है। एक बार एक महारानी का हार कहीं खो गया। राजा ने नगर में घोषणा करवा दी कि जिस व्यक्ति को हार मिला हो, वह तीन दिन के भीतर वापस कर दे, अन्यथा उसे मृत्युदंड का भागी होना पड़ेगा। यह संयोग था कि वह हार एक  सन्यासी को मिला था। उसके मन में हार के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। उसने यह सोचकर हार रख लिया कि कोई ढूंढता हुआ आएगा तो दे देगा, पर वह हार देने नहीं गया। वह अपनी तपस्या में लीन रहा। तीन दिन गुज़र गए। चौथे दिन संन्यासी हार लेकर राजा के पास पहुंचा। राजा को जब मालूम हुआ कि वह तीन दिनों से हार को अपने पास रखे हुआ था, क्रोधित हो उससे बोला, क्या तुमने मेरी घोषणा नहीं सुनी थी? संन्यासी ने जवाब दिया, राजन घोषणा तो मैंने सुनी थी, परन्तु जान बूझकर हार देने नहीं आया। लोग भी क्या कहते, एक संन्यासी होकर मृत्यु से भयभीत हो गया। संन्यासी की बात पर राजा ने फिर पूछा, तो आज चौथे दिन क्यों आए हो? इस पर संन्यासी ने कहा, मुझे मौत का भय नहीं, पर पाप का ज़रूर भय है। किसी दूसरे की सम्पत्ति को अपने पास रखना पाप है। मैं संन्यासी हूं, पापी नहीं। संन्यासी का जवाब सुन राजा का क्रोध शांत हो गया। 

-मुकेश शर्मा
 ग्राम व पत्रालय-फरल, कैथल (हरियाणा)