बिना नियमन के निजीकरण खतरनाक हो सकता है

मौजूदा नरेन्द्र मोदी नीत राजग सरकार पर हाल फिलहाल में ये आरोप निरंतर लगते रहे हैं कि वह सब कुछ निजी हाथों में देती जा रही है तथा आर्थिक गतिविधियों को एक-एककर देश के बड़े कारपोरेट अंबानी, अडानी को सौंपती जा रही है। इन्हीं आरोपों के दायरे में  केन्द्र सरकार द्वारा अभी लाए तीन नये कृषि विपणन कानूनों को भी रखा गया है। इससे पूर्व मोदी सरकार ने 151 रेल ट्रेनों को निजी हाथों से संचालित करने का फैसला लिया। इतना ही नहीं मोदी सरकार सार्वजनिक उपक्रमों, बैंकों व बीमा क्षेत्र को भी लगातार विनिवेश के ट्रैक पर लाकर ज्यादा राजस्व हासिल करने के अपने एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य पर निरंतर कार्य कर रही है। अब सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार सचमुच निजी व कारपोरेट क्षेत्र के सामने घुटने टेकती जा रही है? देखा जाए तो उपरोक्त सभी मामलों पर मीडिया और लोकमंचों के विभिन्न विमर्शों में ये आशंकाएं निर्मूल भी हैं, तो कुछ जगह सरकार में नीतिगत स्पष्टता का अभाव भी साफ-साफ दिखता रहा है। इन सभी मामलों पर सरकार द्वारा एक औचित्यपूर्ण और देश के व्यापक हित में एक बेहतर निर्णय लिया जा सकता है। परंतु, इसे तय करने के पहले यह समझना बेहद जरूरी है कि क्या निजीकरण सचमुच खराब चीज है? दूसरा, क्या सरकारी क्षेत्र हर हाल में अच्छे हैं? अगर हम अर्थव्यवस्था के पिछले अनुभवों के आधार पर उपरोक्त दोनों पक्षों को देखें तो इसका जवाब ठीक उल्टा आएगा यानी सरकारी क्षेत्र को नियंत्रित व संतुलित रखना है तो इसे निजीकरण का झटका देना ज़रूरी है, और निजी क्षेत्र के मुनाफाखोरी रुझान को नियंत्रित करना है तो इसके लिए इनके सरकारी नियमन की सख्त दरकार है। इन दोनों अवधारणाओं के आधार पर नयी आर्थिक नीति के उत्तरार्ध में देश के आर्थिक पटल पर कुछ बातें पूरी तरह स्पष्ट हो गईं यानी हमें देश की अर्थ-व्यवस्था का सबसे प्रगतिशील व आदर्श स्वरूप देखना है तो वह निजी व सरकारी क्षेत्र के बीच बनी साझेदारी के स्वरूप में है। यह आदर्श स्वरूप निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के बीच एक आपसी प्रतियोगिता के माहौल में है। यह आदर्श स्वरूप अर्थ-व्यवस्था के किसी भी क्षेत्र में एक नियमन प्राधिकरण के अधीन निजी व सरकारी दोनों के व्यवसाय के नियमन के जरिये बनता है। इस आधार पर भारतीय अर्थ-व्यवस्था ने पिछले तीन दशकों में निजी व सार्वजनिक क्षेत्र के बीच कंधे से कंधे मिलाते हुए आर्थिक विकास को सबसे तीव्र दर हासिल करते देखा है। निजीकरण जब नियमन के दौर से चलेगा तो वह अपनी बेलगाम मुनाफाखोरी के बजाय, व्यवसायिक अवसरों को अपनी बेहतर प्रबंधन, कार्यक्षमता तथा कम मार्जिन पर बड़े आकार के व्यवसाय हासिल करने तथा गैर अवशोषित आर्थिक क्षेत्रों की तरफ  रुख करेगा। इसी तरह जब बाज़ार में निजी क्षेत्र का अस्तित्व रहेगा तो सरकारी क्षेत्र में भी बेहतर परफॉर्मेंस करने का दबाव होगा।यदि मोदी सरकार सरकारी कम्पनियाें का विनिवेश करना चाहती है तो वह नीतिपूर्ण होना चाहिए। सबसे पहले उस सरकारी उपक्रम की पूरी  फैक्टशीट रखी जानी चाहिए। फिर बाजार की तेजी को देखते हुए इसका विनिवेश करना चाहिए, जिससे कि उससे ज्यादा राजस्व हासिल हो। कई बार सरकार एकमुश्त मोटी राजस्व उगाही के लिए अपने उपक्रमों की रणनीतिक बिक्री करती है जिसके तहत भारत पेट्रोलियम और एयर इंडिया को सूचीबद्ध किया गया। विनिवेश को लेकर सरकार की आपाधापी इस बात को इंगित करती है कि सरकार के पास राजस्व बढ़ाने के वैकल्पिक स्रोत नहीं बचे हैं। मिसाल के तौरपर मौजूदा वित्त साल 2020-21 में सरकार का लक्ष्य 1,20,000 करोड़ रुपये अपने पीएसयू के विनिवेश से और 90,000 करोड़ बैंकों व एलआइसी के विनिवेश से हासिल करने का है। 
सरकार को निजीकरण का उपयोग और उनका सहयोग सरकारी क्षेत्र को संतुलन प्रदान करने, अर्थ-व्यवस्था की आर्थिक गतिविधियों को विस्तार देने, अर्थ-व्यवस्था के गैर शोधित क्षेत्रों को शोधित करने के लिए करना चाहिए। मोदी सरकार को समझना चाहिए कि निजी हाथों में बिना नियमन के आर्थिक बागडोर देने का मतलब उन्हें बेलगाम मुनाफाखोर बनाना है। देश के टेलीकाम क्षेत्र में निजी व सरकारी साझेदारी व आपसी प्रतियोगिता बढ़ाने में कैसे टेलीकाम नियमन प्राधिकरण एक बड़ा कारक बना। आज टेलीकाम की हालत यह है कि बड़ी-बड़ी निजी कम्पनियां दिवालिया हो गईं या घाटे में चल रही हैं। मोदी सरकार द्वारा रेलवे में 151 ट्रेनों के 109 जोड़े रूटों को निजी क्षेत्र को देने के फैसले को देखा जाए तो यह एक निहायत गलत फैसला लगता है। यदि यह फैसला एक नियमन प्राधिकरण गठन के उपरांत किया जाता, और निजी कम्पनियों को रेलवे के बुनियादी निवेश में खर्च करने को बाध्य किया जाता और उसके बाद उन्हें राजस्व हिस्सेदारी का प्रस्ताव दिया जाता तो फिर ट्रेनों के निजीकरण फैसले का औचित्य बनता।

 -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर