मुख्यमंत्री के विरुद्ध जांच का अभूतपूर्व मामला

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की सी.बी.आई. द्वारा जांच का आदेश दिया है और साथ ही यह भी कहा है कि सरकार की आलोचना करना राजद्रोह के दायरे में नहीं आता है। यह आदेश महत्वपूर्ण होने के अलावा दुर्लभ भी है, क्योंकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है कि किसी सर्विंग मुख्यमंत्री के विरुद्ध कोई हाईकोर्ट एफ.आई.आर. दर्ज करने व जांच के आदेश दे। 
हाईकोर्ट के आदेश से ‘बचने’ के लिए रावत ने स्पैशल लीव पटीशन (एस.एल.पी.) के जरिए सुप्रीम कोर्ट की शरण ली है और कहा है कि वह किसी भी जांच के लिए तैयार हैं। उन्हें विश्वास है कि ‘सत्य तथ्य’ सामने आ जाएंगे। न्यायाधीश रवीन्द्र मैथानी ने आदेश पत्रकार उमेश कुमार शर्मा की याचिका पर दिया है और कानून के अनुसार तेजी से जांच करने के लिए भी कहा है। शर्मा का आरोप है कि 2016 में जब नोटबंदी हुई थी तो रावत भाजपा के झारखंड इंचार्ज थे। तब रांची के एक व्यक्ति को झारखंड गौ सेवा आयोग का चेयरमैन नियुक्त कराने के लिए रावत के एक रिश्तेदार के बैंक खाते में 25 लाख रुपए जमा कराए गए।   बहरहाल, हाईकोर्ट ने साक्ष्यों के अभाव में शर्मा पर लगाई गईं राजद्रोह (आई.पी.सी. की धारा 124-ए) व आपराधिक साजिश (आई.पी.सी. की धारा 120-बी) की धाराओं को निरस्त कर दिया और कहा, ‘जब तक जन-प्रतिनिधियों की आलोचना नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र को मजबूत नहीं किया जा सकता... अगर असहमति को राजद्रोह के कानून से कुचला जाएगा, तो इससे लोकतंत्र कमज़ोर हो जाएगा। अगर जन-प्रतिनिधियों के विरुद्ध आरोप लगे हैं तो वह राजद्रोह नहीं हो सकता।’
न्यायाधीश मैथानी ने एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह कही, ‘लोकतंत्र में असहमति का हमेशा सम्मान किया जाता है और माना जाता है कि अगर उसे राजद्रोह कानूनों से कुचला जाएगा तो इससे लोकतंत्र कमज़ोर होगा। संबंधित मामले में आई.पी.सी. की धारा 124-ए के लगाए जाने से जाहिर होता है कि राज्य आलोचना की आवाज़ को दबाना चाहता है, शिकायत/असहमति को दबाने की कभी भी अनुमति नहीं दी जा सकती।’ 
दूसरी ओर भाजपा ने हाईकोर्ट के आदेश को ‘गलत’ और ‘कानून में बुरा’ बताते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच का आदेश कैसे दिया जा सकता है जबकि वह केस में पार्टी ही नहीं थे। उन्हें अदालत में न कभी बुलाया गया और न कभी सुना गया।  भाजपा का यह भी कहना है कि जिन बैंक खातों में पैसा जमा किया गया था, उनका मुख्यमंत्री या उनके किसी रिश्तेदार/परिवार के सदस्य से कोई संबंध नहीं है। भाजपा का यह भी सवाल है कि हाईकोर्ट उस व्यक्ति की शिकायत का कैसे संज्ञान ले सकता है जिसके विरुद्ध गंभीर अपराधों सहित दर्जन से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं और वह भी पांच राज्यों में। यह अजीब दावा है। हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील राज्य सरकार करेगी या मुख्यमंत्री सुप्रीम कोर्ट में एस.एल.पी. दायर करेंगे? गौरतलब है कि भारत में एस.एल.पी. या विशेष अवकाश याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट को ‘अवशिष्ट शक्ति’ प्रदान करती हैं। जाहिर है कि हाईकोर्ट द्वारा शर्मा के खिलाफ राजद्रोह व आपराधिक साज़िश के मामले निरस्त किया जाना न तो कानून का कोई ठोस प्रश्न है और न ही स्पष्ट अन्याय है। इसलिए अनुमान यही है कि मुख्यमंत्री रावत ने सी.बी.आई. जांच पर रोक लगाने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट की शरण ली है। 
भाजपा की यह बात भी बेतुकी प्रतीत होती है कि जिस व्यक्ति पर दर्जन से अधिक एफ.आई.आर. दर्ज हों, उसकी याचिका का संज्ञान हाईकोर्ट को नहीं लेना चाहिए था और न ही उसे राहत प्रदान करनी चाहिए थी। यहां यह बताना आवश्यक है कि शर्मा ने अपनी याचिका के माध्यम से सिर्फ राजद्रोह व आपराधिक साजिश के मामले निरस्त करने का आग्रह किया था, यानी उन्होंने सी.बी.आई. जांच की मांग ही नहीं की थी। हाईकोर्ट ने स्वत: ही सी.बी.आई. जांच के आदेश दिए और ऐसा करना उसके अधिकार क्षेत्र में है। हाईकोर्ट के आदेश से सिर्फ इतना जाहिर होता है कि भ्रष्टाचार का यह मामला काफी गंभीर है और इसमें निष्पक्ष जांच से ही दूध व पानी अलग हो सकते हैं।