धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने की आवश्यकता

खरीफ के मौसम में धान का विकल्प ढूंढने की कोशिश लगातार जारी रही है। इसका कोई विकल्प तलाशने में सफलता नहीं मिली। समस्या खरीफ के मौसम में धान की काश्त के अधीन रकबा कम करने की है। कृषि वैज्ञानिकों द्वारा कोई भी ऐसे फसली चक्कर अपनाने का सुझाव नहीं दिया जा सकता जिसका लाभ खरीफ में धान की फसल से कम हो। धान की फसल को पानी की अधिक आवश्यता है जिस कारण भूमिगत पानी का स्तर नीचे होता जा रहा है। भूमि की उपजाऊ शक्ति कम हो रही है और पर्यावरण में प्रदूषण की समस्याएं पैदा हो रही हैं। किसानों ने इसके विकल्प जैसे मक्की आदि की बिजाई कर या अन्य सब्ज़ियों आदि की काश्त करके देख ली है। कपास-नरमे की उत्पादकता 827 किलो प्रति हैक्टेयर पर अवश्य आ गई परन्तु कपास-नरमे की काश्त के अधीन रकबा सिर्फ सीमित कपास पट्टी में ही थोड़ा-सा बढ़ सकता है। जब किसी फसल का उत्पादन कम हो जाता है और मूल्य में तेज़ी आ जाती है तो अगले वर्ष और किसान अधिक लाभ लेने के लिए वे भी वही फसल की बिजाई करना शुरू कर देते हैं जो फिर मांग से अधिक उत्पादन होने के कारण मंदे का शिकार हो जाती है। किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। 
पंजाब के कुल रकबे में से 84 प्रतिशत रकबा काश्त के अधीन है। इसमें से 31 लाख हैक्टेयर रकबे पर धान लगाया जाता है जिस में से 6.29 लाख हैक्टेयर रकबे पर गत वर्ष बासमती लगाई गई। सब्ज़ इन्कलाब के बाद धान-गेहूं के फसली चक्कर के अधीन रकबा तेज़ी से बढ़ा है। मक्की, मूंगफली, गन्ना और कपास से रकबा निकल कर धान की काश्त के अधीन आ गया। 
पंजाब केन्द्रीय चावल अनाज भंडार में 31 प्रतिशत योगदान डाल रहा है। गत वर्ष 110 लाख टन के लगभग चावल केन्द्रीय अनाज भंडार में दिया। इस वर्ष 202.78 लाख टन धान की सरकारी खरीद हुई। पंजाब में धान की काश्त के अधीन रकबा क्यों कम किया जाये? इस पानी की आवश्यकता अधिक है और प्रदूषण की समस्या लाता है। विशेषज्ञों के अनुसार पंजाब द्वारा डाले जा रहे योगदान का आधा हिस्सा पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम राज्यों से लिया जा सकता है। धान को लगभग 30 सिंचाईयों की आवश्यकता है। पंजाब के भूमिगत पानी का स्तर 50 सैं.मी. वार्षिक नीचे जा रहा है। पंजाब के किसान अधिक उत्पादन लेने हेतु लम्बे समय में पकने वाली किस्मों की काश्त अधिक कर रहे हैं। पूसा 44 किस्म से किसान 36 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर तक उत्पादन ले रहे हैं जबकि दूसरी किस्मों की उत्पादकता 26 से 30 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर के मध्य है। पूसा 44 किस्म गत वर्षों से काफी रकबे में रोपी जाती रही है। पंजाब सरकार ने इसकी रोपाई 15 जून से पहले करने पर पाबंदी लगा दी। इससे यह समस्या आई कि यह किस्म और अन्य लम्बे समय में पकने वाली किस्में अक्तूबर के मध्य में पकती हैं। पंजाब सरकार ने इस वर्ष पंजाब राज्य बीज प्रमाणित अथारिटी को पूसा 44 किस्म का बीज तस्दीक करने पर पाबंदी लगा दी है परन्तु जो किसान पूसा 44 किस्म की बिजाई करते हैं, उनमें अधिकतर इस वर्ष भी पूसा 44 किस्म की काश्त करने पर तुले हुए हैं। पंजाब यंग फार्मर्स एसोसिएशन ने आई.सी.ए.आर. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के डायरैक्टर और चावलों के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ डा. अशोक कुमार सिंह को विनती की है कि वह जो गत कुछ वर्षों से यह प्रयास कर रहे हैं कि धान की एक ऐसी किस्म विकसित कर किसानों को दी जाए जिसकी उत्पादकता पूसा 44 किस्म जितनी हो और पकने को कम समय ले। जो पी.आर. 126 जैसी थोड़े समय में पकने वाली किस्में पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी द्वारा विकसित की गई हैं, उनका उत्पादन पूसा 44 के मुकाबले कम होने के कारण मालवा के किसान उन्हें अपना नहीं रहे। 
विशेषज्ञ कहते हैं कि किसानों को धान के स्थान पर कुछ रकबे पर बासमती लगानी चाहिए। इसकी पूसा बासमती 1509 जैसी किस्में कम समय में बरसात के पानी से ही पक जाती हैं। अधिक उत्पादन देने वालीं पूसा बासमती 1718 तथा बढ़िया किस्म के चावल वाली पूसा बासमती 1121 और पूसा बासमती 6 (पूसा 1401) किस्मों को भी सिंचाई की आवश्यकता कम है। बासमती पैदा करने के लिए पंजाब की भूमि, पानी अनुकूल है। केन्द्र सरकार को बासमती का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देना चाहिए ताकि फसली विभिन्नता में सफलता मिले।