महिला आरक्षण के नाम पर परिवारवाद का बोलबाला

स्वतंत्रता के पश्चात पहले दो दशकों में तो देश की राज- सत्ता उनके हाथों में रही जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए स्वयं साधना की थी और उन्होंने वास्तव में ही भारत की जनता के प्रतिनिधि बनकर जनहित का कार्य किया। धीरे-धीरे वह पीढ़ी जब समय के साथ विलीन होने लगी तो कुछ नेताओं में परिवार मोह बुरी तरह जाग गया और उन्होंने सत्ता इस तरह अगली पीढ़ी को सौंपी जैसे यह उनकी बपौती हो और यहीं से राजनीति में भाई-भतीजावाद का प्रचलन हुआ। इसके पश्चात राजनीति में वंशवाद के नाम से सर्वप्रथम नेहरू खानदान का नाम चला और अब तो वंशवाद हर राज्य, हर पार्टी की बात हो गई है, अंतर केवल प्रतिशत का है।  जैसे-जैसे राजनीतिक दलों के प्रमुख आयु में वृद्ध होते गए और परिवार बढ़ता गया, उसके साथ ही भाई-भतीजावाद गायब होने लगा और उसका स्थान पुत्र-पौत्र पुत्र-वधु, जीजा और सालों ने ले लिया। यद्यपि उत्तर प्रदेश में अभी भी पुत्र एवं पुत्रवधुओं के साथ भाई-भतीजों का वर्चस्व विद्यमान है  तथापि यह भी सच है कि जैसे-जैसे अपना परिवार बढ़ता जाएगा तो यह भाई-भतीजे भी अतीत की बात हो जाएंगे। हरियाणा का चैटाला परिवार पुत्र पौत्रवाद का सजीव उदाहरण है और पंजाब के बादल तथा जम्मू-कश्मीर के अब्दुल्ला शासक भी इसी परम्परा को पाल रहे हैं।
भारत की संसद ने स्थानीय स्वशासन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया। यह कानून हर जागरूक महिला को प्रसन्नता देने वाला था, पर इसका परिणाम विपरीत हुआ। तब किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि कड़वे करेले पर नीम चढ़ जाएगी और परिवारतंत्र बनता लोकतंत्र महिला आरक्षण को भी अपनी चपेट में ले लेगा। मेरा ऐसा विचार है कि महिलाओं के लिए वार्ड आरक्षित करके सरकार ने महिला कार्यकर्ताओं को कमज़ोर किया। अगर वास्तव में ही राजनीति के क्षेत्र में और स्थानीय स्वशासन के लिए महिलाओं को प्रभावी भूमिका देने का विचार हमारी संसद रखती तो नियम यह बनाया जाता कि हर राजनीतिक दल 33 प्रतिशत टिकट चुनावों में महिलाओं को देगा, लेकिन ऐसा नहीं किया गया। महिला आरक्षण कानून बनाने वालों की नीयत पर संदेह करना तो उचित नहीं, पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने वार्ड आरक्षित करने और हर चुनाव में आरक्षित वार्ड बदल देने से महिलाओं के लिए उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों का अनुमान ही संभवत: नहीं किया होगा। अब पंजाब सरकार समेत देश के कई प्रदेशों की सरकारों ने महिलाओं की भागीदारी स्थानीय स्वशासन में 50 प्रतिशत कर दी है, पर मुझे नहीं लगता कि इससे महिलाएं सशक्त हो जाएंगी। यह ठीक है कि उनकी शक्ति से पति, पुत्र शक्तिमान बन जाएंगे।
जिस प्रकार राजनेताओं के प्रति जनता का विश्वास कम होता जा रहा है, मुझे लगता है कि इसी प्रकार चुनावी राजनीति में सक्रिय नेता भी दूसरों पर विश्वास बहुत कम करते हैं। इसी का यह दुष्परिणाम है कि स्थानीय स्वशासन में चुनावों में भाग लेने वाले दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं का अपनी पत्नी और परिवार के निकट संबंधियों के अतिरिक्त और किसी पर विश्वास नहीं रहा। चुनावी समर भूमि का नेता जब वार्ड महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाने के कारण स्वयं चुनाव नहीं लड़ पाता तो उसे केवल अपनी पत्नी ही चुनाव लड़वाने के लिए सबसे योग्य दिखाई देती है। इसी का परिणाम यह है कि पंजाब में नगर निगम और नगर निगमों के जो चुनाव होते रहे, वहां 90 प्रतिशत से ज्यादा वही महिलाएं चुनाव के क्षेत्र में नेतृत्व करती हुई दिखाई देती रहीं जिनका अपना कोई सामाजिक, राजनीतिक व्यक्तित्व और अस्तित्व नहीं। उनका एक ही परिचय है कि वे किसी वरिष्ठ अथवा सक्रिय पदाधिकारी की पत्नी हैं।
कहीं-कहीं नेताओं की मां अथवा पुत्रवधु को स्थान मिला है, परन्तु यह अपवाद केवल उन्हीं परिवारों में है जहां पत्नी किसी भी कारण चुनाव मैदान में आगे नहीं आ सकी। वैसे महिला समानता और सशक्तिकरण के नारे मंचों से लगते हैं, लाखों रुपये खर्च कर इस पर प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर के सेमीनार भी करवाए जाते हैं परन्तु महिलाएं वास्तव मैं कितनी सशक्त हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण पंजाब में चुनावों के पोस्टर और बैनर देखकर लगाया जा सकता है। एक भी पुरुष उम्मीदवार ऐसा नहीं जिसकी प्रचार सामग्री में उसकी पत्नी का चित्र अथवा नाम छपा हो, परन्तु एक भी ऐसी महिला उम्मीदवार नहीं जिसके फोटो के साथ उसके पति की बड़ी फोटो और नाम न छपा हो। उनका एक ही परिचय है कि वे किस विशेष कार्यकर्ता की पत्नी हैं। इससे स्पष्ट हो गया कि यह पुरुष प्रधान राजनीति पांच वर्ष बाद होने वाले चुनाव के लिए अपनी सीट सुरक्षित रखने के लिए पत्नियों का सहारा लेती है, क्योंकि पत्नी कितनी भी योग्य पार्षद अथवा पंच-सरपंच सिद्ध हो जाए, उसको अगली बार चुनाव नहीं लड़ने दिया जाएगा और केवल पत्नी ही ऐसा निरीह प्राणी होगी जो पति के संकेत पर अपना बना-बनाया कार्यक्षेत्र छोड़कर रसोई तक सीमित हो जाएगी। 
1991 से 2012 तक के जितने भी चुनाव स्थानीय संस्थाओं के हुए, वहां 90 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जो एक बार पार्षद बनने के बाद पुन: प्रत्याशी नहीं बनाई गईं। अब भी पंजाब में वही महिला अधिकतर प्रत्याशी बने हैं जो पति के नाम पर अथवा उसके स्थान पर टिकट ले रही हैं। 
बहुत से पार्षद पति और सरपंच पति पिछले दिनों में जो कारनामे कर चुके हैं, वे किसी से छिपे नहीं हैं। अब चिंता का विषय यह है कि पंच पति, सरपंच पति और पार्षद पति कुछ ज्यादा ही सक्रिय होकर अपनी उपस्थिति सरकार में और समाज में दर्ज करवाते हैं। सरकारी कार्यालयों में अधिकतर यही पार्षद पति और पंच-सरपंच पति ही पहुंचते हैं। मंचों की शोभा भी यही पार्षद पति बनते हैं और बहुधा अपनी जेब में पार्षद अथवा सरपंच की मोहर रखते हैं। अपनी ही कलम से पत्नी का नाम लिखकर सभी प्रकार के प्रमाण-पत्रों को सत्यापित भी कर देते हैं। उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पूर्व पार्षद पतियों के लिए एक कानून भी बनाया गया था, जिसके आधार पर उन्हें मीटिंगों में अपनी पार्षद पत्नियों के साथ न बैठने का हुक्म सुनाया गया था।  विधानसभा और संसद के लिए महिलाओं को आरक्षण देने का बिल वर्षों से लटक रहा है। मुझे लगता है कि यह अगले कई वर्षों तक ऐसे ही लटकता रहेगा।