किसान आन्दोलन को भटकाव से बचाना ज़रूरी

लोकतंत्र में आन्दोलन सामान्य बात है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब भी किसी को अपनी अपेक्षाएं पूर्ण नहीं होती दिखाई नहीं देतीं अथवा अपने हितों पर आंच आती हुई महसूस होती है तो वह अपनी आवाज़ बुलंद करता है। इस क्र म में वह धरना, प्रदर्शन, रैली, विरोध पत्र भेजना जैसे अनेक उपक्र मों में से किसी एक अथवा सभी को चुनता है। आन्दोलन के माध्यम से जनमत का निर्माण कर सरकार पर दबाव बनाया जाता है। ऐसा करना लोकतांत्रिक देश के हर नागरिक का अधिकार है लेकिन उसका यह कर्त्तव्य भी है कि आन्दोलन को मुठभेड़ बनाने से बचे ताकि जनसामान्य को कम से कम असुविधा हो और उसके अधिकार भी सुरक्षित रहें।
यदि हम वर्तमान सरकार के कार्यकाल के आन्दोलनों का सिंहावलोकन करें तो नागरिकता कानून के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग के बाद वर्तमान में कृषि कानून के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर जारी आन्दोलन प्रमुख हैं। इन दोनों आन्दोलनों में अनेक समानताएं हैं यथा, एक ही स्थान पर लगातार रास्ता रोककर हठ प्रदर्शन हुए। दोनों ही स्थानों पर कुछ चेहरे ऐसे रहे जिनका इन दोनों कानूनों से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था लेकिन वे दोनों आन्दोलनों में मुख्य भूमिका में रहे। आमतौर पर आन्दोलनकारी त्याग, समर्पण, सादगी और विनम्रता से जनता को प्रभावित करते हुए सरकार पर दबाव बनाते हैं लेकिन इन दोनों आन्दोलनों में भौतिक संसाधनों की भरमार दिखाई दी तो उग्र नारे भी छाए रहे।
कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आन्दोलन की बात करें तो एक बात पूरी स्पष्टता से कही जा सकती है कि इस आन्दोलन ने भारतीय राजनीति के संवेदनहीन विद्रूप चेहरे को पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। यह बात देश के हर प्रबुद्ध व्यक्ति को मालूम है कि इन कानूनों को पिछली संप्रग सरकार ने भी पारित कराने का प्रयास किया था। उस समय जिन दलों ने इसका समर्थन किया था, वे आज इसका विरोध कर रहे हैं और विरोध करने वाले इसे किसानों के हित में बता रहे हैं लेकिन आज तक न तो समर्थन करने वाले इस बात पर अपनी सफाई प्रस्तुत कर सके हैं कि आखिर उस समय उन्होंने इसका विरोध क्यों किया था, और न ही उस समय समर्थन करने वाले आज के विरोधी अपने इस दोहरे आचरण का कारण बता रहे हैं। 
आश्चर्य की बात यह है भारतीय राजनीति में अचानक उभरे ईमानदार क्र ांतिकारी चेहरे का दोहरा आचरण भी एक बार फिर उजागर हुआ। संसद द्वारा इन कानूनों को पारित करने के बाद स्वयंभू ईमानदार नेतृत्व ने इन कानूनों को गजट नोटिफिकेशन से अपने राज्य दिल्ली में लागू किया तो स्पष्ट है कि वे इस कानून के पक्ष में ही थे अन्यथा वैसे लागू क्यों करते। उनके बचाव में कहा जा सकता है कि उन्होंने इस कानून की बारीकियों को समझे बिना जल्दबाजी में इसका गजट नोटिफिकेशन किया तो उन्हें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके यहां विषयों को गंभीरता से समझने की परंपरा नहीं है।
किसान आन्दोलन का लगातार लम्बा चलना एक बड़ी चुनौती बन गया तो दूसरी ओर बातचीत के द्वारा इस मसले का समाधान न निकलना दोनों पक्षों की विवेकशीलता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। लेकिन किसी भी बातचीत को सफल बनाने के लिए जिस विश्वास की आवश्यकता होती है, वह दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं दिया अन्यथा बातचीत के लिए मात्र एक राज्य के सभी 38 संगठनों के प्रतिनिधियों के शामिल होने का औचित्य क्या हो सकता है? अच्छा होता, वे अपनी ओर से 4 या 6 या 8 प्रतिनिधियों को तय करते जो उनकी ओर से पंच परमेश्वर के रूप में निर्णय करने के लिए अधिकृत होते लेकिन सभी संगठन अपने-अपने प्रतिनिधियों को बातचीत में भेजने पर अड़ गए जो आपसी संदेह का परिचायक है।
दुनिया भर के आन्दोलनों का इतिहास साक्षी है कि बातचीत के लिए लचीलापन आवश्यक है लेकिन इस आन्दोलन में लचीलापन न केवल नदारद रहा बल्कि मुंह पर पट्टी बांधने से लेकर नारे प्रदर्शित करने के माध्यम से बातचीत को एक कर्मकांड के रूप में निपटाने का प्रयास किया गया। इसे किस तरह उचित ठहराया जाए, इस पर कुतर्क तो हैं लेकिन तर्क नदारद हैं। (युवराज)