इस इलाके में इतना अंधेरा क्यों ?

कुछ समय पहले तक सोचा नहीं जा सकता था कि सरोगेसी  भारत जैसे कभी सांस्कृतिक चेतना के लिए जाने जाते मुल्क में एक इंडस्ट्री की शक्ल में उभर कर सानने आएगी। स्त्री अस्तित्व, स्त्री अधिकार, स्त्री मयार्दा का हनन सदियों से होता आया है। पिछले कुछ समय से स्त्री अस्तित्व और स्त्री अधिकारों के लिए फैली चेतना और सजगता ने काफी सकारात्मक कार्य किया है परन्तु बार-बार ऐसे हालात सामने आते हैं, जो स्त्री को विवश बना कर अपनी ज़रूरतों, स्वार्थ  और दमन का चक्र चला कर भारी शोषण की अनैतिकता का पिटारा खोल देते हैं। 
महामारी काल में हम में से बहुत से लोगों ने अपनो को खोया। लोगों के काम-धंधे पर व्यापक असर देखने को मिला। रोज़गार छिन गये। जहां काम मिला भी वेतन सिकुड़ कर आधा रह गया। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक क्षतियों का सामाना करना पड़ा। हज़ारों लोग न्यूनतम साधनों पर गुज़र करने के लिए मजबूर हुए। महामारी में कुछ महिलाओं को मजबूरी में सरोगेसी बनना पड़ा। एक अनुमान के अनुसार किराये की कोख का सालाना कारोबार तीन हज़ार करोड़ तक पहुंच गया है। जो काम कभी करुणा जनित, संवेदन सम्पन्न, निराश परिवार की सहायता के लिए होता था, अब तक धंधे के रूप में बदल चुका है। हमारे मूल्य छिन्न-भिन्न हो चुके हैं और एक-एक कदम पतनशीलता की तरफ बढ़ता जा रहा है। नेहा थिरानी बरगड़ी की रिपोर्ट हमारे सामने है—पिंकी नामक एक महिला को चार माह का गर्भ है। उनके पेट में जुड़वां बच्चे पर रहे हैं। वह थकान और सुस्ती महसूस कर रही है। रौशनी से नहाये हुए हाल से निकल उसे बाथरूम में जाना है।  वह अपने चेहरे पर पानी डालती है। इसके अतिरिक्त 46 अन्य महिलाएं भी इसी बाथरूम का इस्तेमाल करती हैं। ये सभी महिलाएं अपनी कोख किराये पर देकर  दूसरों के बच्चों को जन्म देने के काम पर है। सरोगेसी माताएं है।
 पिंकी गुजरात के आज़ाद शहर के एक अस्पताल के बैसमैंट में पिछले चार महीने से रह रही है। तीन हज़ार करोड़ के सालसा कारोबार की सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने की पहल चल रही है। बताया गया है कि पिंकी कुछ माह पहले एक गारमैंट फैक्टरी में सात हज़ार रुपये महीना की पगार पर काम करती थी। वह बीस साल की थी, जब उसका विवाह पास के गांव के सिक्योरिटी गार्ड से हो गया। 2020 की कोरोना महामारी के दौरान लाकडाऊन हुआ तो फैक्टरी बंद हो गयी। वह सरोगेट अस्पताल में आ गई। वहां सरोगेट महिलाओं के एक बच्चे के सफल प्रसव पर किस्तों में लगभग चार लाख छयासठ हज़ार रुपये मिलते हैं। गर्भपात होने पर महिला को उस समय तक मिले पैसे के अलावा दस हज़ार अतिरिक्त मिलते हैं।
 सरोगेसी को 2002 में कानूनी मान्यता मिली।  2012 की माया रिसार्स ग्रुप, दिल्ली की स्टडी का अनुमान है कि यह कारोबार तीस अरब रुपये वार्षिक तक है। ज़्यादातर गरीब महिलाएं ही इसके लिए आगे आती हैं। क्या यह धनपतियों के लिए एक खेल जैसा नहीं हो गया कि कमाई हुई लाखों करोड़ों की जायदाद संभालने के लिए कुछ पैसों में वारिस पा लेने का व्यावहारिक तरीका? इस पर बनाये गये कानून की पुन: पड़ताल की ज़रूरत नहीं लगती। यह समय गुलामों को कैद में रखने का समय नहीं है। ‘जियो और जीने दो’ में बड़ी सार्थकता है। हमें अंधकार युग त्याग कर प्रकाश युग में प्रवेश हर हाल में करना ही है चाहे कितनी भी बेड़ियां तोड़नी पड़ें।