द़ागी राजनेताओं के गठजोड़ पर ज़ोरदार कोड़ा

देश की शीर्ष अदालत कई बार ऐसे फैसले लेती है जिनका इतिहास दर्ज हो जाता है। ताजा फैसला इसी बात का प्रमाण है। राजनीति का अपराधीकरण जगजाहिर है। साफ -सुथरे और पार्टी विद द डिफरेंस का दावा करने वाले दल भी इससे मुक्त नहीं हैं। हिन्दुस्तान में ऐसे उदाहरण पड़े हैं कि राजनेताओं के दागदार दामन को उनकी पार्टी ने सत्ता सम्भालते ही पवित्र कर दिया लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला ऐसी पार्टियों और सरकारों के हाथ में हथकड़ी से कम नहीं सिद्ध होगा। हमारे विधायी सदनों में बैठे कुछ माननीयों के खिलाफ  चल रहे आपराधिक मामलों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला नैसर्गिक न्याय के अनुरूप तो है ही, उम्मीद है, राजनीति और अपराध के गठजोड़ की चूलें भी इससे हिलेंगी। 
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक दागियों के मामले हाईकोर्ट की अनुमति के बगैर वापस नहीं होंगे। उम्मीदवारों के आपराधिक मामले 48 घंटे के भीतर सार्वजनिक करने होंगे। दलों को आपराधिक उम्मीदवार होम पेज पर अलग से दर्शाना होगा। चुनाव आयोग मोबाइल एप तैयार कर प्रचार-प्रसार-जागरूकता पर जोर दे यानि सुप्रीम कोटे  ने साफ  कर दिया है कि हाईकोर्ट की इजाज़त के बिना राज्य सरकारें सांसदों और विधायकों के खिलाफ  दर्ज आपराधिक मुकद्दमे वापस नहीं ले सकतीं। प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने न्याय-मित्र विजय हंसारिया की रिपोर्ट के आलोक में यह फैसला सुनाया है। ऐसी तमाम जानकारियां समाने आ रही थीं कि कुछ राज्यों की सरकारें अपने दल के सांसदों-विधायकों के खिलाफ  कायम ऐसे मामले वापस लेने की कोशिश में जुटी हैं। इस मामले में शीर्ष अदालत की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरल से कहा है कि वे अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के ऐसे तमाम मामले फौरन संबंधित हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाएं। इसका राजनीति के क्षेत्र में कितना असर पड़ेगा, यह समय ही बतायेगा। वैसे भी हिन्दुस्तान में कोई भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं जिसमें अपराधी नेताओं की उपस्थिति दर्ज न हो। 
वैसे तो भारत में दशकों से राजनीति को अपराध मुक्त बनाने को लेकर विमर्श जारी है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के मुताबिक, मौजूदा लोकसभा में ही 43 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। बढ़ते जन-दबावों और न्यायिक सख्ती को देखते हुए कुछ कानून भी बने। सजायाफ्ता लोगों को चुनावी राजनीति से तय अवधि के लिए बाहर करने के विधान ने कुछ सांसदों-विधायकों पर सत्ता-सदनों के पट बंद भी किए, लेकिन राजनीतिक दलों के चरित्र में इससे कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया। उल्टे कुर्सी से वंचित हुए चंद जन-प्रतिनिधियों के मुकाबले संसद और विधानसभाओं में दागी लोगों की आमद पहले से बढ़ गई। यह कोई सुखद तस्वीर नहीं है और इसके लिए किसी एक पार्टी या नेता को दोषी ठहराया नहीं जा सकता। तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी कथनी और करनी के फर्क से इस समस्या को गंभीर बनाया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अब इस गंदगी को साफ  करने के लिए कठोर निर्णय लिया है। 
सम्भावना यह थी कि जनप्रतिनिधियों पर मुकद्दमों की निगरानी के लिए विशेष पीठ भी बनाई जा सकती है। अगर ऐसा हुआ तो यह सोने पर सुहागा साबित होगा। सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में यह कहना कि हमारे पास शब्द नही हैं। हम वह सब कुछ कह चुके है,जो हम कह सकते थे। हमें बताया गया कि सरकार सांसद-विधायकों पर मुकद्दमों को पूरा करने के बारे में गम्भीर है, लेकिन आपने कुछ नहीं किया। यानि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान फरवरी 2020 के आदेश का हवाला देते हुए सभी दलों से 48 घण्टे में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के विज्ञापन के आदेश को पुन: दोहराया है। यही नहीं बिहार चुनाव मामले में भाजपा सहित आठ दलों पर जुर्माना भी लगाया गया है। देखा जाए तो सरकारों की राजनीतिक पक्षधरता ने देश में ऐसा माहौल बना दिया है कि कई सारे लोग असामाजिक कृत्य को ही राजनीतिक सफलता की सीढ़ी मानने लगे हैं। 
उद्दंड, अराजक लोगों को पुरस्कृत करने की राजनीति लोकतंत्र के लिए ही नहीं, समूचे सामाजिक ताने-बाने के लिए चुनौती बन चली है। ऐसे में, विधायी सदनों के सदस्यों के खिलाफ चल रहे मामलों का जितनी तेजी से निपटारा होगा, राजनीतिक पार्टियों पर सही उम्मीदवारों के चयन का उतना ही दबाव बढ़ेगा। उनसे अपने तईं ऐसी पहल की उम्मीद बेमानी है, क्योंकि उनके लिए सिर्फ  जीत महत्वपूर्ण है। आशा है, सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आजादी की हीरक जयंती मनाने जा रहे देश के लिए एक अहम मोड़ साबित होगा, लेकिन चिंता यह है कि दो साल के भीतर सांसदों-विधायकों पर दागी मामलों में 17 फीसदी का इजाफा हुआ है। 2018 में दागियों के 4122 मामले थे जो 2020 में बढ़कर 4859 हो गए। इतना ही नहीं 122 वर्तमान और पूर्व विधायक-सांसद ईडी के राडार पर हैं। आमतौर पर जब सरकारें बदलती हैं, तो अपने-अपने दलों से जुड़े माननीयों पर से आपराधिक मामले वापस ले लेती। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल समेत कई राज्य बानगी हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार ने मुजफ्फरनगर दंगे में भड़काऊ बयानवीरों (संगीत सोम, सुरेश राणा, साध्वी प्राची आदि) पर से मामले वापस लिए। उ.प्र. में 76 और कर्नाटक में 61 मामलों की वापसी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला तत्काल लेना पड़ा। 
यूं तो सियासत में दाग और मनी लॉन्ड्रिंग ज्यादातर को पसंद हैं, लेकिन गणतंत्र की धरती बिहार के चुनाव से जुड़े ये सुप्रीम फैसले आगे के लिए नजीर साबित हो सकते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि सुप्रीम फैसले से राजनीति के सबसे बड़े वायरस (अपराध व लेनदेन) के खिलाफ  चुनाव आयोग को इम्युनिटी बूस्टर डोज मिले। विधायिका कानून बनाने और माननीयों के आपराधिक मामलों के तेजी से निपटारे को लेकर गंभीर हो, दल भी दागदार दामन से बच कर जनता-जनार्दन में छवि चमकाने की पहल करें। दागियों से जुड़े मामलों का भी तेजी से निपटारा हो। उम्मीद करें कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए राजनीतिक दलों के लिए ये फैसले सुप्रीम कोर्ट का हथौड़ा साबित होंगे।