आज बलिदान दिवस पर विशेष त्याग की प्रतिमूर्ति निर्भीक संन्यासी स्वामी श्रद्धानंद

स्वामी श्रद्धानंद का सम्पूर्ण जीवन मानव कल्याण को समर्पित था। इनका पूर्व नाम मुंशीराम था। 1879 में एक बार बरेली में स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रवचन हुआ। मुंशी राम के पिता जी ने इनको भी स्वामी दयानंद के उस कार्यक्रम में जाने के लिए कहा। मुंशी राम का जीवन स्वामी दयानंद के प्रवचनों, तर्कों एवं सैद्धांतिक विचारधारा से बहुत प्रभावित हुआ। स्वामी दयानंद के उपदेशों ने नास्तिक मुंशीराम को आस्तिक बना दिया। अपने जीवन में व्याप्त समस्त व्यसनों का परित्याग करके सन 1884 में मुंशी राम जी आर्य समाज लाहौर के सदस्य बने। स्वामी दयानंद के वैदिक ज्ञान से प्रभावित होकर उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन वैदिक संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित किया। 1902 में उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी जैसी महान संस्था की स्थापना की। स्वामी श्रद्धानंद ने समाज के उत्थान के लिए तथा अपनी वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी नामक ऐतिहासिक संस्था की नींव रखी।
 इस संस्था के माध्यम से इस निर्भीक संन्यासी ने मैकाले की शिक्षा पद्धति को चुनौती देने का कार्य किया जो उस समय पूर्णरूपेण असंभव था। सर्वप्रथम कन्याओं की शिक्षा के लिए विद्यालय खोला तथा सबसे पहले अपने बच्चों को गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा हेतु तैयार किया। इसी गुरुकुल कांगड़ी से अनेक विद्वान, राष्ट्रभक्त, बलिदानी तैयार हुए। कल्याण मार्ग के पथिक महात्मा मुंशीराम ने त्याग के महान आदर्श का अनुसरण करते हुए अपनी जालंधर वाली कोठी तथा सम्पूर्ण सम्पत्ति आर्य समाज को दान कर दी। सन 1917 में महात्मा मुंशीराम ने संन्यास ग्रहण किया तथा अपना नाम श्रद्धानंद रखा। ईश्वर में उनकी अगाध श्रद्धा थी इसलिए उन्होंने अपना यह नाम रखवाया। 
सन् 1919 में जब दिल्ली में कांग्रेस की सभाओं और जलसों को पूर्ण रूप से बंद करने का अंग्रेज़ सरकार ने आदेश जारी किया, तब स्वामी श्रद्धानंद ने चांदनी चौक टाउन हॉल के सामने आन्दोलन करते हुए अंग्रेज़ सेना के सामने सीना खोलकर गोली चलाने की चुनौती दी थी। इस निडर संन्यासी के सामने उस समय अंग्रेज़ों को भी नतमस्तक होना पड़ा था। जलियांवाला बाग की दमनकारी तथा क्रूर घटना के बाद पूरे पंजाब में भय और आतंक का माहौल था। ऐसे डरावने माहौल में कोई भी कांग्रेस का नाम लेने वाला नहीं था। तब इसी स्वामी श्रद्धानंद ने अपने दृढ़ संकल्प के बल पर कांग्रेस का अमृतसर में अधिवेशन सम्पन्न करवाया। गुरुकुल कांगड़ी का प्रबंध आचार्य रामदेव को सौंप कर  स्वामी श्रद्धानंद दिल्ली पधारे। यहां से उन्होंने अपनी राजनीतिक धार्मिक गतिविधियों का संचालन किया।  
सन् 1922 में जब सिखों ने गुरु का बाग का सत्याग्रह शुरू किया तो अंग्रेज़ों ने इसे दबाने का प्रयास किया। स्वामी श्रद्धानंद को जब पता चला तो वह तुरंत अमृतसर पहुंचे और इस सत्याग्रह का संचालन अपने हाथ में लिया। स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आन्दोलन प्रारंभ करके मुस्लिमों के भय से धर्म परिवर्तन करने वाले को पुन: अपने धर्म में  शुद्धिकरण के माध्यम से प्रवेश करवाया। सर्वप्रथम आगरा के मलकाने राजपूतों की स्वधर्म में वापसी करवा कर शुद्धि के इस महान आन्दोलन का सूत्रपात किया। राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद जी का नाम आर्य जगत में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है। स्वामी दयानंद के व्रत कथा संकल्प को पूर्ण करने के लिए  स्वामी श्रद्धानंद ने अपने पूरे जीवन को समर्पित कर दिया। तथापि, बाद में कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति से नाराज होकर स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया। शुद्धि आन्दोलन के कार्य से कुछ सांप्रदायिक लोग उनसे नाराज़ हो गए और 23 दिसम्बर, 1926 को एक मतांध सांप्रदायिक मुस्लिम ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। स्वामी श्रद्धानंद  जीवन पर्यंत राष्ट्र, धर्म, जाति तथा अपनी स्वर्णिम वैदिक संस्कृति की रक्षा हेतु प्रयासरत रहे। कल्याण मार्ग के पथिक, अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानंद का यह आदर्शमय तथा त्यागमय जीवन सम्पूर्ण आर्य जाति के लिए प्रेरणा स्तमभ के समान है। स्वामी श्रद्धानंद का जीवन पुरुषार्थ और कर्ममय था। उन्होंने अंतिम क्षणों तक अपने पावन कार्यों के माध्यम से आर्य समाज की सेवा की। श्रद्धानंद जी का सम्पूर्ण जीवन युवा आर्य शक्ति को नई ऊर्जा, पुरुषार्थ तथा राष्ट्रभक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाला है।