विरोधी टीम के लिए मुश्किल हो जाता था मुहम्मद शाहिद को रोकना

1980 मास्को, 1984 लास एंजलेस, 1988 सियोल ओलम्पिक हाकी खेलने वाले तथा एशियन खेलों, विश्व कप हाकी, एशिया कप में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले मुहम्मद शाहिद, 1960 में वाराणसी में पैदा हुए। यह वही वर्ष था जब भारत पहली बार ओलम्पिक हाकी में स्वर्ण पदक के बिना लौटा था। स्कूल के दिनों में जल्द ही उन्होंने हाकी को चुन लिया था। लखनऊ स्पोर्ट्स होस्टल ने उनके करियर में एक अहम भूमिका निभाई। 1979 में आगा खान कप टूर्नामैंट में शाहिद लखनऊ स्पोर्ट्स की ओर से खेले। उन दिनों में इस युवा हाकी खिलाड़ी ने भारतीय हाकी में एक तहलका सा मचाया हुआ था। यहीं से उन्हें भारतीय टीम के लिए स्वीकार कर लिया गया। कुछ जूनियर स्तर के अंतर्राष्ट्रीय  टूर्नामैंटों में उसकी खेल कला और चमकी। उल्लेखनीय है कि अभी 19 वर्ष से भी कम आयु के थे कि उनका सीनियर टीम में चयन हो गया। मुहम्मद शाहिद जैसे खिलाड़ियों की बदौलत ही है कि हाकी एक लोकप्रिय खेल बनी रही। माना जाता है कि जब भी शाहिद बाल लेकर आगे बढ़ते विरोधी टीम के डिफैंडर घबरा जाते थे क्योंकि उनके लिए उन्हें रोकना मुश्किल हो जाता था। उनका हमला हमेशा या तो गोल होता था या पैनल्टी कार्नर या पैनल्टी स्ट्रोक।  टीम के सैंटर फारवर्ड के लिए बहुत ही खूबसूरत अवसर पैदा करते रहे। उनकी खेल ने बेशुमार लोगों को हाकी की ओर आकर्षित किया भी। सच तो यह है कि 80 के दशक में भारतीय हाकी में सबसे अहम वस्तु शाहिद ही थे। 1976 मांर्टियल ओलम्पिक हाकी टूर्नामैंट जब पहली बार  एस्ट्रोटर्फ मैदान में सफलतापूर्वक करवाया गया तो हाकी समीक्षकों का मानना था कि भारत और पाकिस्तान जिस शानदार एशियन शैली के लिए पूरे विश्व में जाने जाते हैं और जिस कारण वे हाकी की दुनिया के बादशाह बने रहे, उन्हें अवश्य झटका लगेगा, परन्तु शाहिद के संदर्भ में यह बाद ठीक साबित न हुई। उन्होंने सिंथैटिक टर्फ पर भी अपनी कला के जादू से अपनी शानदार शैली को बरकरार रखा। यह भी उनकी इस खेल क्षेत्र को एक महान देन है। उन्होंने यह सिद्ध करने की उस समय कोशिश की कि ध्यान चंद के वारिस एस्ट्रोटर्फ मैदान पर भी किसी से कम नहीं।  विश्व का कोई भी खिलाड़ी चाहे कितना ही महान क्यों न हो, वह आलोचना से बच नहीं सकता शायद यह टैक्स है, जो उसे अपनी महानता के बदले अवश्य उतारना पड़ता है। मुहम्मद शाहिद को भी अपने हिस्से की आलोचना सहन करनी पड़ी। वह यह थी कि समझा जाता था कि उनका ड्रिब्लिंग स्टाइल सिंथैटिक टर्फ के अनुकूल नहीं। जब भी कभी देश हारता, उनकी ओर ही उंगलियां उठतीं परन्तु मुहम्मद शाहिद ने हमेशा अपनी शैली का पक्ष लेते हुए यह कहा, ‘परमात्मा ने मुझे इस ड्रिब्लिंग स्टाइल की कला से नवाज़ा है, मैं किसी भी प्रशिक्षण एवं अभ्यास के बिना ही सब कुछ करता हूं।’ फिर भी इस खिलाड़ी ने सिंथैटिक टर्फ की ज़रूरत के अनुसार कुछ और प्रभावशाली तकनीक सीखी। शाहिद के खेल के महत्व को उनके द्वारा किये गये गोलों के आधार पर नहीं जाना जा सकता बल्कि प्रत्येक मैच में उनके द्वारा किये गए प्रयासों के परिणामस्वरूप मिले अधिक से अधिक पैनल्टी कार्नर और स्ट्रोकों की संख्या में ढूंढा जा सकता है।