विधेयक संबंधी विस्तृत विचार-चर्चा

अंतत: कई वर्षों के परिश्रम के बाद केन्द्र सरकार की ओर से लोकसभा में बिजली संशोधन विधेयक-2022 पेश कर ही दिया गया। इस संबंध में विचार-चर्चा एवं वाद-विवाद विगत लम्बी अवधि से चलता रहा है। बिजली आज मानव जीवन के लिए बहुत ज़रूरी आवश्यकता बन गई है। इसके बिना आम जीवन के चलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी कि आधुनिक युग में बिजली की आवश्यकताएं अतीव बढ़ गई हैं। इसलिए प्राय: इसकी पूर्ति के संबंध में शिकायतें बनी रहती हैं। घर से लेकर खेतों एवं कारखानों के अतिरिक्त प्रत्येक छोटे-बड़े क्षेत्र में बिजली की आवश्यकता महसूस की जाती है। इसे संविधान की समवर्ती सूची में रखा गया है।
चाहे पहले पहल तो इस क्षेत्र में सरकारें ही अधिकतर बिजली का उत्पादन करती रही हैं परन्तु विगत कुछ दशकों से इसकी निरन्तर बढ़ती जाती मांग को देखते हुये केन्द्र एवं प्रदेश सरकारें इस काम से अपने हाथ खड़े करती जा रही हैं। इसलिए इसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी और बढ़ने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है। आज से 10 वर्ष पूर्व देश भर में लगभग 2 लाख मैगावाट बिजली का उत्पादन होता था। मात्र 10 वर्षों में यह उत्पादन 4 लाख मैगावाट से कहीं बढ़ गया है। इसमें अब निजी क्षेत्र का आधा योगदान रहा है। बिजली के उत्पादन एवं इसकी ट्रांसमिशन तथा वितरण का कार्य अतीव जटिल हो गया है। बिजली देश की आधारभूत आवश्यकताओं का अंग बन गई है। इसलिए आज की वोट की राजनीति में इसे राजनीतिक लाभ लेने के लिए भी प्रयुक्त किया जाने लगा है। इसमें देश के अधिकतर प्रदेश शामिल हैं, जिनके राजनीतिज्ञ बिजली को आधार बना कर उच्च पदों पर पहुंचने का यत्न करते रहे हैं। पंजाब जैसे छोटे-से प्रांत की स्थिति यह है कि बिजली की राजनीति यहां की न्यून हो चुकी आर्थिकता का एक मुख्य कारण है। विगत लगभग तीन दशकों से प्रदेश में इस क्षेत्र में जिन योजनाओं एवं रियायतों की घोषणाएं की गई हैं, उन्होंने समाज में एक प्रकार से बड़ी खलबली मचा दी है। आज भी इसे लेकर इस प्रकार की राजनीति की जा रही है जिसने समूचे समाज को कई श्रेणियों में बांट दिया है। दशकों से बिजली के क्षेत्र में त्रुटिपूर्ण व्यवस्था, सतही नीतियों एवं प्रशासनिक ढिलाई ने प्रदेश को निचले स्तर तक पहुंचा दिया है। देश की आज़ादी के बाद लागू हुये बिजली कानून में नये संशोधन करके बिजली कानून-2003 लागू किया गया था। अब बढ़ी हुई मांग, उत्पादन की पेचदीगियों एवं सरकारों की ढिलाईपूर्ण नीतियों के दृष्टिगत केन्द्र की ओर से लाये गये नये संशोधन विधेयक के संबंध में आज भारी चर्चा छिड़ी हुई है। जहां केन्द्र के साथ अन्य कई राज्य इन संशोधनों को सही दिशा में उठाया गया पग समझते हैं, वहीं कई प्रदेश इसे जन-विरोधी कह रहे हैं तथा इसे देश के संघीय ढांचे को कमज़ोर करने के तुल्य समझते हैं। इसके साथ ही इसके समर्थक इसे सामाजिक सरोकारों की अवहेलना भी कह रहे हैं। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार विगत समय में अपने बहुमत को देखते हुये बहुत-से ऐसे विधेयक पास करवाने में सफल हो गई जिनके प्रति अधिकतर अन्य पार्टियों ने अपना तीव्र विरोध व्यक्त किया था। इसका एक कारण यह भी था कि बहुत ही गम्भीर विषयों को छूने वाले इन विधेयकों पर प्रत्येक पक्ष से पूर्ण विचार-विमर्श करके एक मत बनाने का यत्न ही नहीं किया गया था। इस संशोधन विधेयक के संबंध में भी सरकारी पक्ष की ऐसी ही नीति दिखाई देती है। इसीलिए इस विधेयक के पेश करने पर सदन में हुये भारी विरोध के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया है ताकि इसके प्रत्येक पक्ष पर विस्तृत विचार-विमर्श किया जा सके। विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की राय इसमें शामिल की जाए तथा सम्पूर्ण सुझावों के आधार पर इसमें अन्य संशोधन भी किये जायें। इस विधेयक को स्थायी समिति को भेजे जाने को हम सही दिशा में उठाया गया पग समझते हैं। यह भी आशा करते हैं कि यह विधेयक देश के सभी वर्गों के लिए एक समान लाभदायक सिद्ध होगा।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द