देश में ‘विरासत कर’ की ज़रूरत नहीं 

पिछले दिनों भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने पश्चिमी देशों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यूरोप के मीडिया और संगठन जानकारी के अभाव में नहीं बल्कि जानबूझ कर भारत के संदर्भ में बेमानी विचार परोसते हैं। उन्होंने इसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास भी बताया। चुनावों में गरीबी उन्मूलन के लिए पार्टियों द्वारा किए जा रहे अनेक दावों के बीच अमरीका में बैठ कर सैम पित्रोदा ने विरासत टैक्स का जो राग छेड़ा, उससे जयशंकर के आरोप कुछ हद तक सही प्रतीत हो रहे हैं अन्यथा जो विषय भारत के परिप्रेक्ष्य में पूर्णत: अतार्किक और आधारहीन हो, उसे चुनावों के मध्य उदारता और विद्वत्ता का दृष्टिकोण बनाकर परोसे जाने की आवश्यकता ही नहीं थी। हालांकि 2019 की तरह ही इस बार भी चुनावों में तथ्यहीन विषयों को दी जा रही हवा पार्टियों के लिए लाभ के बजाय हानि का ही कारण बनती दिख रही है। 
साम्यवादी शासन की तर्ज का जनता की सम्पत्ति का अधिग्रहण किसी भी राष्ट्र के लिए अहितकारी ही होता है क्योंकि इसके दूरगामी प्रभावों के फलस्वरूप समाज की जिजीविषा और प्रतियोगीता की भावना धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है। कांग्रेस पार्टी के थिंक टैंक और ओवरसीज प्रमुख सैम पित्रोदा ने जिस इन्हेरीटेन्स टैक्स यानी विरासत पर कर लगाने का ज़िक्र किया, वह अधिग्रहण से बिल्कुल अलग व्यवस्था है, परन्तु यह एक राष्ट्र के रूप में अमरीकी सरकार की उदारता या सशक्त प्रशासन का प्रतिरूप न होकर उस देश की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का परिणाम है। इसे सही-सही समझने के लिए अमरीका के इतिहास पर दृष्टि डालनी पड़ेगी क्योंकि समाज या अर्थशास्त्र में कुछ भी लेने या मांगने का अधिकार तभी प्राप्त होता है, जब वह वस्तु या मूल्य पूर्व में प्रदान किया गया हो।
आज विश्व जिस अमरीका को देख रहा है, वह राष्ट्र नागरिकों के रूप में दर्जनों अन्य देशों के निवासियों का एक स्थायी केंद्र है, परन्तु इतिहास में यह देश वर्तमान की भांति सशक्त और समृद्ध नहीं था। 1492 में क्रिस्टोफर कोलम्बस के अमरीका पहुंचने के बाद यह महाद्वीप पूरे यूरोप को लुभाने लगा। 15वीं शताब्दी बीतते-बीतते ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, पुर्तगाल, इटली और स्पेन के उपनिवेशवादी समूह व्यापार की आड़ लेकर यहां इकट्ठा होने लगे। कुछ ही वर्षों में पूर्वी अमरीका से शुरू हुआ यह खेल मध्य, पश्चिम और उत्तरी अमरीका से लेकर कनाडा तक फैल गया। 16वीं शताब्दी के मध्य तक अमरीका में 13 से अधिक उपनिवेश राज्य स्थापित हो गए और इन सभी ने स्थानीय ‘रैड इंडियंस’ का असीम उत्पीड़न और दोहन किया। फिर यूरोप के साथ ही अफ्रीका से दासों को यहां लाकर बसाने की होड़ लग गई। 
उपनिवेशों के आपसी संघर्ष के साथ ही स्थानीय समूहों के प्रतिरोध के दृष्टिगत रेड इंडियंस के समूल नाश का अमानवीय युग भी आया जिसे पश्चिमी इतिहासकारों ने चेचक महामारी का प्रभाव बताया है। लगभग एक शताब्दी तक अमरीका के मूल निवासियों का इतना प्रचंड दमन हुआ कि 17वीं शताब्दी के अंत तक वहां सिर्फ  20 प्रतिशत ही मूल निवासी बचे। 1910 के आंकड़ों के अनुसार अमरीका में मूल निवासियों की जनसंख्या कुल आबादी का 10-12 प्रतिशत रह गयी। अमरीका में एक शताब्दी तक सत्ता के लिए हुए औपनिवेशिक संघर्ष ने 1861 में प्रचंड रूप ले लिया जिसे इतिहासकार गृहयुद्ध मानते हैं। चार वर्षों तक चली इस लड़ाई के बाद ब्रिटेन को अपने 13 उपनिवेश छोड़ने पड़े और अंतत: सभी राज्यों की संयुक्त सरकार स्थापित हुई। 
इस नई सरकार में सभी शक्तियों को प्रतिनिधित्व मिल गया, सिवाय मूल निवासियों के। अमरीकी क्रांति का एक कटु पक्ष यह भी था कि इस लड़ाई में बाहरी उपनिवेश स्थानीय संपत्ति के अधिकारी बन गए जबकि मूल निवासियों के प्राकृतिक अधिकार को परिदृश्य से पूरी तरह गायब कर दिया गया। पिछली शताब्दियों में यूरोप और अफ्रीका से जितने भी अवैध प्रवासी अमरीका में बसे, नई सरकार ने उन सभी की सम्पत्ति को राजकीय मान्यता दे दी, जैसे लूट का माल सहमति से बांट लिया जाता है। स्वतंत्र अमरीका की सरकार ने प्रवासियों को इतना कुछ दे दिया जिसकी गृहयुद्ध काल में किसी को उम्मीद नहीं थी। भविष्य के सशक्त, विकसित और समृद्ध अमरीका की स्थापना के लिए सरकार को भारी निवेश की आवश्यकता थी। आधारभूत संरचना स्थापित करने के लिए व्यापक पूंजी का निवेश आवश्यक था। इसी के दृष्टिगत 1916 में वहां सम्पत्ति पर कर की व्यवस्था शुरू की गई।
विदेशों से अमरीका आकर बसे लोगों ने विरासत कर मान्य स्वीकार किया क्योंकि उनके पास जो कुछ भी था, वह सब वहां की सरकार से मिली मान्यता के कारण ही उनका हो सका था क्योंकि लोग जानते थे कि वह इस देश के प्राकृतिक मूल निवासी नहीं थे। इसके ठीक विपरीत भारत में एक सहस्राब्दी के अनगिनत आक्रमणों और परतन्त्रता के बाद जो राष्ट्र स्वाधीन हुआ, उसके मूल निवासियों की समस्त सम्पत्ति आक्रांताओं की लूट के बाद बचा हुआ भाग था। सरकारें इस प्राकृतिक सम्पत्ति के नियमन का कार्य तो कर सकती हैं, परन्तु इसे किसी से छीना नहीं जा सकता अन्यथा जनता की दृष्टि में यह शासकीय अराजकता और तानाशाही का द्योतक बन जाएगा। 
वर्तमान भारत का कोई भी नागरिक अपने श्रम, प्रतिभा या पूर्वजों से जो भी सम्पत्ति अर्जित करता है, सरकार उस पर पहले ही प्रत्यक्ष कर लगा चुकी होती है। देश के प्रत्येक नागरिक की बचत केंद्र और राज्यों द्वारा प्राप्त प्रत्यक्ष-परोक्ष करों के उपरांत की राशि है। वहीं अमरीका में जनता को सिर्फ आयकर देना होता है। वहां परोक्ष बिक्री कर की व्यवस्था ही नहीं है। अमरीका के अधिकांश राज्यों में दीर्घ कालिक पूंजीगत लाभ पर भी कोई टैक्स नहीं लगता, जो की भारत में देय है।  (अदिति)