एक देश-एक चुनाव
मोदी सरकार ने अपनी तीसरी पारी में एक और बड़ा फैसला लिया है। विगत दिवस हुई केन्द्र सरकार के मंत्रिमंडल की बैठक में ‘एक देश-एक चुनाव’ संबंधी कोविन्द समिति की रिपोर्ट को स्वीकृति दी गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विगत लम्बी अवधि से यह विचार प्रकट करते आ रहे हैं कि एक ही समय में लोकसभा तथा विधानसभाओं एवं दूसरे चरण में स्थानीय निकाय अभिप्राय यह कि पंचायतों एवं नगरपालिका और नगर निगम चुनाव करवाये जाने चाहिएं। इसके पक्ष में समर्थन देने वाली पार्टियों की राये यह रही है कि ऐसी प्रक्रिया से व्यापक स्तर पर किया जाने वाला चुनावी खर्च कम होगा। भिन्न-भिन्न समय पर होने वाले चुनावों के कारण विकास कार्यों संबंधी लिए जाने वाले फैसले रुके रहते हैं। चुनाव आयोग, प्रबन्धन मशीनरी तथा सुरक्षा बलों पर लगातार दबाव बना रहता है।
मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में एक देश, एक चुनाव के संबंध में दस्तावेज़ तैयार करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द के नेतृत्व में 2 सितम्बर, 2023 को ‘कोविन्द समिति’ का गठन किया था। इस समिति ने व्यापक स्तर पर विचार-विमर्श करके इस वर्ष मार्च मास में अपनी रिपोर्ट दी थी। कोविन्द समिति ने इस नई राजनीतिक प्रक्रिया के लिए लगभग सभी राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श किया था। इसके पक्ष में 32 पार्टियों ने समर्थन दिया तथा कांग्रेस सहित लगभग 15 पार्टियों ने इसके प्रति विरोध प्रकट किया था। उक्त समिति की ओर से 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को जो रिपोर्ट पेश की गई थी, उसके 18,000 पृष्ठ थे, जिनमें यह भी व्याख्या की गई है कि सभी स्तर के चुनावों में समरसता कैसे लाई जा सकती है। देश के स्वतंत्र होने के बाद लोकसभा के प्रथम चुनाव 1951 में हुए थे। 1967 तक सभी स्तरों पर चुनावों की निरन्तरता बनी रही थी। हालात बदलते गये राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस का राजनीतिक दबदबा कम होता गया। स्थानीय एवं प्रादेशिक राजनीतिक पार्टियों में बड़ा उभार देखने को मिला। तत्कालीन केन्द्रीय सरकारों की ओर से विपक्षी दलों की सरकारें भंग भी की जाती रहीं, जिस कारण इन चुनावों में समरसता न रही। आज देश के राजनीतिक हालात पहले से बहुत बदल चुके हैं। केन्द्र में भी समय से पहले सरकारें टूटती एवं बनती रही हैं। प्रदेशों में भी राजनीतिक स्तर पर बड़े प्रशासनिक फेरबदल होते रहे हैं। इसी कारण अब एक ही समय पर भिन्न-भिन्न स्तरों पर चुनाव करवाना बेहद कठिन एवं जटिल काम बन गया है। इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार भी पहली दो पारियों वाली नहीं रही। भाजपा अपने दम पर लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल नहीं कर सकी। सरकार बनाने के लिए इसे अन्य 13 छोटी-बड़ी पार्टियों का सहयोग लेना पड़ा है। लोकसभा में भी विपक्षी पार्टियां संख्या के पक्ष अधिक मज़बूत हो गई हैं।
अब केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा लिए गए इस फैसले को सम्पन्न बनाना इसके लिए कठिन प्रतीत होता है क्योंकि संसद में इसे दो-तिहाई मतों से पारित करवाना पड़ेगा। उसके बाद सभी राज्यों की विधानसभाओं से भी इसे पारित करवाना होगा, जो आज के हालात में भारी जोखिम भरी कार्रवाई होगी। इस संबंध में भिन्न-भिन्न राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने विचार प्रकट करने भी शुरू कर दिए हैं। प्रधानमंत्री ने कहा है कि लोकतंत्र को अधिक सक्रियता भरपूर बनाने की दिशा में यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। गृह मंत्री अमित शाह ने इसे आर्थिक विकास को गति देने वाली मजबूत इच्छा-शक्ति वाला फैसला कहा है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे संविधान एवं संघवाद की भावना के विरुद्ध बताया है तथा यह भी कहा है कि यह वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने वाली कार्रवाई है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी इस पर सवाल उठाये हैं।
हम महसूस करते हैं कि इस बेहद नाज़ुक विषय पर हर स्तर पर व्यापक एवं विस्तारपूर्वक बहस होना ज़रूरी है। इसके साथ ही सभी राजनीतिक एवं अन्य महत्त्वपूर्ण पक्षों का इसके लिए एकमत होना ज़रूरी है, ताकि हर स्तर पर उठी आशंकाओं को दूर किया जा सके। इसके लिए उपरोक्त उद्देश्य के लिए संविधान में संशोधन करने के लिए सरकार को किसी भी स्तर पर जल्दबाजी में कदम नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि इसका प्रत्यक्ष संबंध भारतीय संविधान में लोगों के विश्वास के साथ जुड़ा हुआ है।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द