अभी दूर की कौड़ी है ‘एक देश-एक चुनाव’ 

केंद्रीय कैबिनेट में ‘एक देश-एक चुनाव’ का प्रस्ताव मंजूर हो जाने के बाद सरकार और भाजपा मीडिया के जरिए ऐसा माहौल बना रहे हैं मानो इस पर फैसला अभी तुरंत होने ही वाला है। भाजपा और आरएसएस की पृष्ठभूमि वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक भी बड़े उत्साह के साथ सारे चुनाव एक साथ कराने के काल्पनिक फायदे गिना रहे हैं। इस प्रणाली को लागू करने में आने वाली महत्वपूर्ण व्यावहारिक बाधाओं और चुनौतियों की कोई चर्चा नहीं कर रहा है। सोशल मीडिया पर भाजपा के समर्थकों ने भी ‘एक देश-एक चुनाव’ के समर्थन में मुहिम छेड़ रखी है। लेकिन हकीकत यह है कि इसे लागू करने में कई संवैधानिक और व्यावहारिक बाधाएं हैं, जिन्हें पार करना आसान नहीं है। इसलिए ‘एक देश-एक चुनाव’ अभी बहुत दूर की कौड़ी है। सरकार और सत्तारूढ दल द्वारा बनाए जा रहे माहौल के बीच कोई यह दावा नहीं कर रहा है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ के लिए इस साल संसद के शीतकालीन सत्र में विधेयक पेश कर दिया जाएगा। सरकार ने अगर विधेयक पेश कर भी दिया तो यह तय है कि उसे संयुक्त संसदीय समिति में भेजा जाएगा, क्योंकि सरकार की ओर केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव पहले ही कह चुके हैं कि सरकार अगले कुछ महीनों में इस पर सभी राजनीतिक दलों से बात कर आम सहमति बनाने की कोशिश करेगी। 
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का ‘एक देश-एक चुनाव’ का इरादा नया नहीं है। नरेंद्र मोदी ने 2014 में प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही ‘एक देश-एक चुनाव’ का इरादा जता दिया था। उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार बहुत जल्द ही यह व्यवस्था लागू करेगी। उसके बाद उन्होंने लाल किले की प्राचीर से लेकर संसद में और दूसरे भी कई मौकों पर अपने इस इरादे को दोहराया ज़रूर लेकिन इस दिशा में कभी कोई गंभीर पहल नहीं की, जबकि उनके पास लोकसभा में इसे पारित कराने के लिए ज़रूरी दो तिहाई बहुमत भी था। 
राज्यसभा में भी मोदी इसे पारित करा सकते थे, क्योंकि वहां बहुमत न होने के बावजूद उनकी सरकार ने दस साल में कई विधेयक उचित-अनुचित तरीके से पारित कराए ही हैं। इन दस सालों के दौरान देश के आधे से ज्यादा राज्यों में भाजपा और उसके घोषित-अघोषित सहयोगी दलों की सरकारें थीं, इसलिए उन राज्यों की सहमति भी आसानी से ली जा सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दरअसल संवैधानिक बाधाओं से ज्यादा बड़ी चुनौतियां व्यावहारिक हैं, जो शायद मोदी भी समझते हैं या उन्हें समझा दी गई हैं। इसीलिए वे इस गंभीर मुद्दे को लेकर शिगूफेबाजी ही करते रहे। अलबत्ता अपना दूसरा कार्यकाल पूरा होने के कुछ महीने पहले इस मुद्दे पर सुझाव देने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति बना कर एक बार फिर यह जताने की कोशिश की कि वह इस मुद्दे को लेकर वाकई गंभीर है। 
बहरहाल कुल मिला कर स्थिति यह है कि सरकार ने ठहरे हुए पानी में एक पत्थर फेंक कर यानी कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कर यह देखने का प्रयास किया है कि कितनी लहरें उठती हैं। यानी उसने विपक्ष की ताकत का आकलन करने के लिए यह दांव चला है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की जिन सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार किया, उन्हें कोविंद समिति ने 14 मार्च को ही राष्ट्रपति को सौंप दिया था। सरकार ने इसे मंजूर करने में छह महीन से ज्यादा का समय लिया। उस सिफारिश के आधार पर अभी विधेयक का मसौदा तैयार नहीं किया गया है और न यह कहा गया है कि सरकार विधेयक को संसद में कब तक पेश करेगी। सिर्फ कैबिनेट में प्रस्ताव पारित करके हलचल मचाई गई है।
असल में ‘एक देश-एक चुनाव’ के इरादे को अमली जामा पहनाने के लिए संविधान में कई संशोधन करने होंगे, जिनमें से कुछ संशोधनों को देश के आधे राज्यों की विधानसभाओं से मंजूर कराना होगा और संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग दो तिहाई बहुमत से पास कराना होगा। लेकिन सरकार के पास संसद में इस तरह का बहुमत नहीं है। उसके पास लोकसभा में साधारण बहुमत है और राज्यसभा में वह जुगाड़ करके साधारण बहुमत हासिल कर सकती है। दो तिहाई बहुमत उसे विपक्ष की कई बड़ी पार्टियों को अपने साथ लाए बगैर नहीं हासिल होगा। इसका मतलब है कि मौजूदा लोकसभा में भी जब तक विपक्ष के साथ सहमति नहीं बनती है तब तक इसे पारित नहीं कराया जा सकता है। इसीलिए कैबिनेट के फैसले के बाद केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने सभी पार्टियों के साथ आम सहमति बनाने की बात कही है। अभी संसद में संख्या का जो हिसाब है वह सरकार के पक्ष में नहीं है। लोकसभा मे सरकार के 293 सांसद हैं, लेकिन इनमें से 22 सांसदों वाली पार्टियों ने रामनाथ कोविंद समिति के सामने एक देश, एक चुनाव के विचार का विरोध किया था या तटस्थ रहीं थीं। यानी सरकारी पक्ष के सिर्फ 271 सांसद ऐसे हैं, जो इस विचार का समर्थन कर सकते हैं। सरकार को अगर सभी 293 का समर्थन भी मिल जाए तो भी यह दो तिहाई बहुमत से बहुत कम है। दो तिहाई बहुमत के लिए सरकार को 362 सांसदों के समर्थन की ज़रुरत है। यानी तो सरकार 69 सांसदों का इंतजाम करे या ऐसा इंतजाम करे कि विधेयक पर मतदान के समय उसके सारे सांसद मौजूद रहे और विपक्ष के 103 सांसद गैरहाज़िर हो जाएं। अगर मतदान के समय 439 सांसद ही लोकसभा में रहते हैं, तब 293 के बहुमत से सरकार संशोधन पारित करा सकेगी।
इसी तरह राज्यसभा में भी भाजपा और एनडीए की स्थिति बहुत सुविधाजनक नहीं है। मनोनीत सांसदों को छोड़ कर उसके पास अभी 112 सांसद हैं। फिलहाल राज्यसभा की कुल सदस्य संख्या 237 है। इस लिहाज से सरकार के पास सामान्य बहुमत से एक सांसद कम है। अगर मनोनीत श्रेणी की सभी सीटें भर जाती है और जम्मू कश्मीर के भी चार सांसद आ जाते हैं तो बहुमत का आंकड़ा 123 का होगा। लेकिन संविधान संशोधन के लिए सरकार को 164 सांसदों की ज़रुरत है। सरकार को या तो 164 की संख्या पूरी करनी होगी या ऐसा इंतजाम करना होगा कि विपक्ष के लगभग आधे सदस्य मतदान के समय गैरहाज़िर रहें। यह संभव नहीं दिख रहा है। इसलिए ‘एक देश-एक चुनाव’ का विचार अभी महज झुनझुना है।