एक देश, एक चुनाव का मतलब

इस समय एक देश एक चुनाव को लेकर पक्ष और विपक्ष में तर्क जुटाये जा रहे हैं। एक तरह का अविश्वास का माहौल बन गया है। सरकार द्वारा तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रीय एकता, सरकारी कामकाज, चुनाव में खर्च से होने वाला आर्थिक बोझ, इस सबसे छुटकारा मिलेगा। विपक्ष इन तर्कों को सिरे से रद्द कर रहा है। कांग्रेस पार्टी हर सभा में संविधान की सुरक्षा का सवाल उठा रही है। कुछ लोग तो इसे भारत की विविधता के प्रतिकूल मान रहे हैं। दरअसल चुनाव की टाइमिंग से न तो राष्ट्रीय एकता का कोई संबंध है, सरकार का दावा ऐसा ही है और न ही इसका कोई नाता देश की विविधता से है। जैसा कि विपक्ष का आक्षेप है। एक देश एक चुनाव पर जो यह आरोप लगाया जाता है कि वह चुनावी लोकतंत्र में व्याप्त अव्यवस्था के प्रति अधीरता प्रदर्शित करता है। इसे चुनावों के प्रति पर्याप्त गम्भीर माना जा सकता है। कुछ आलोचक विद्वान लोकतंत्र को केवल चरणबद्ध चुनावों और राजनीतिक दलों की आपसी लांछन-बहस तक ही सीमित करना चाहते हैं जबकि लोकतांत्रिक चेतना इससे बढ़कर और ऊपर मानी जानी चाहिए। इसके लिए जनमत निर्माण, सिविल सोसायटी का गठन, सरकारी नीतियों की क्रिया-प्रतिक्रिया और सामाजिक जवाबदेही जैसे तत्व भी प्रभावी भूमिका का निर्वाह करते हैं।
बार-बार चुनाव करवाने पर जो चुनौती सामने आती है, वह यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का केवल एक ही आयाम दृष्टिगोचर होता है और वह पार्टीगत निष्ठा जबकि एक देश एक चुनाव वास्तव में बहुत बार सामाजिक आन्दोलनों की पैरवी कर जाता है, जिससे कुछ मुद्दों को विस्तार मिलता है और चुनौती का पता भी चलता है। वे कारण साफ उभर आते हैं जिन्होंने हमारे लोकतंत्र को कमज़ोर किया है। इन कारणों में से एक की पहचान इस तरह की जा रही है कि हमने पार्टीगत निष्ठाओं को लोकतंत्र पर पूरी तरह से हावी होने दिया है। चुनाव के कारण लगातार पैदा होने वाली निष्ठाओं का साया अगर सामाजिक व्यक्तित्व पर न रहे तो जवाबदेही के अन्य तरीके भी सोचे जा सकते हैं। फिर इस सबसे (एक देश एक चुनाव) यह हमारा चुनने का तरीका क्या प्रेसिडैंशियल शैली का बन सकता है या इससे राज्यों के चुनावों का राष्ट्रीयकरण कैसे बना देगा? ज्यादातर लोग मानने लगे हैं कि जब केन्द्र और राज्य के चुनाव एक साथ होंगे तब राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे और स्थानीय मुद्दे पीछे रह जाएंगे। 
कुछ राज्यों से मिले अनुभव भी यही कुछ बताते हैं। यह मुद्दा भी इतना स्पष्ट नहीं है। जब एक साथ राष्ट्रीय चुनाव होंगे तो उन राज्यों में एक जैसे परिणाम कैसे मिलेंगे? कहीं किसी राज्य में एक पार्टी के प्रति पूर्वाग्रह अधिक है, कहीं दूसरी पार्टी के प्रति। इस तर्क में लोकतंत्र विरोधी रवैया भी नज़र आता है। कहीं हम यह तो नहीं समझ रहे कि मतदाताओं में इतनी भी समझ नहीं है कि स्थानीय बनाम राष्ट्रीय मुद्दों में अंतर परिभाषित कर सकें। अतीत में उन्होंने व्यापक सूझबूझ का परिचय दिया है। असल में, एक देश एक चुनाव की स्थिति में राष्ट्रीय नेतृत्व को स्थानीय सहयोगियों पर अधिक निर्भर रहना पड़ सकता है। कारण यह कि तब वे प्रत्येक राज्य को उतना समय नहीं दे पाएंगे जितना वे अलग-अलग चुनाव के समय देते हैं। एक और बात की चिंता ज़ाहिर की जा रही है कि एक देश एक चुनाव जन-प्रतिनिधि की शक्ति में कमी की ओर इशारा करता है, परन्तु दल-बदल विरोधी विधेयक ने पहले ही व्यक्तिगत प्रतिनिधि को अपनी पार्टी का बंधक बना दिया है। दूसरे केन्द्र में अविश्वास प्रस्ताव आम तौर पर कभी सफल नहीं होते हैं। कई बार विधानसभा का कार्यकाल पांच साल से कम हो जाना अलोकतांत्रिक नहीं होता ताकि सरकार गिरने  पर चुनाव करवाये जा सकें।