‘एक देश, एक चुनाव’ की योजना के पीछे भाजपा के इरादे क्या हैं ?

जी बहुत चाहता है सच बोलें, 
क्या करें हौसला नहीं होता।
आज का कालम लिखते हुए प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र का यह शे’अर बार-बार याद आया क्योंकि जो मैं आज लिखना चाहता हूं, वह सत्य कुछ लोगों के लिए बहुत कड़वा है और इतना कड़वा सच लिखना शायद मेरे बस से बाहर की बात है। फिर भी थोड़ा बहुत हौसला करके थोड़ा-सा सच लिखने की कोशिश कर रहा हूं। भारत के केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी है। हालांकि हालात को देखते हुए मुझे दृढ़ विश्वास है कि अभी तो यह मामला सिरे नहीं चढ़ेगा, और यह भी कि या तो वक्फ बोर्ड कानून की भांति यह भी बट्टे खाते में पड़ जाएगा, या फिर यदि किसी चक्रव्यूह की रचना से यह कानून बना भी लिया गया तो लोगों में इसका इतना विरोध उठेगा कि यह भी कृषि कानूनों की भांति वापिस ही लेना पड़ेगा, परन्तु सोचने वाली बात है कि इसके पीछे सोच क्या है? क्या जैसे हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसके लाभ गिनाए हैं कि इससे सरकारी खर्च की बचत होगी, फैसले लेने में देरी से राहत मिलेगी (अर्थात आचार संहिता लागू होने के कारण बड़ी नीतिगत फैसले नहीं लिए जा सकते), चुनावी थकावट कम होगी जिससे बेहतर प्रशासन दिया जा सकेगा। इससे स्थिरता तथा नीतियों में निरन्तरता आदि जैसे लाभ होंगे, आदि सब ठीक है।
पहली बात तो यह कि भारत के चुनावों पर भारतीय बजट का एक प्रतिशत भी खर्च नहीं होता और हम कार्पोरेट टैक्स कम करके तथा बड़े कार्पोरेट घरानों के ऋण को बट्टे खाते में डाल कर इससे कई गुणा अधिक खर्च अकारण कर रहे हैं। परन्तु यदि सचमुच ऐसी ही सोच है तो अभी हो रहे चार राज्यों के चुनाव एक बार में ही क्यों नहीं करवा लिए गए? दूसरी बात यह कि फैसले लेने में चुनाव संहिता के कारण ही देरी होती है। कहां होती है देरी? यह इतना बड़ा फैसला भी तो हरियाणा एवं जम्मू-कश्मीर के चुनावों के लिए मंत्रिमंडल ने चुनाव आचार संहिता के बीच ही लिया है। हालांकि इस प्रस्ताव को लागू करवाने के लिए संविधान में लगभग 18 संशोधन करने पड़ेंगे। किसी ने रोका? क्या इतना बड़ा फैसला राज्यों के चुनाव आचार संहिता के  बीच केन्द्रीय मंत्रिमंडल नहीं कर सकता? शायद कोई रोक भी नहीं सकता।  हालांकि यह संविधान के मूल ढांचे में बदलाव जैसा प्रस्ताव है। 
चुनावी थकावट कम करने की बात मेरी समझ से बाहर की है, परन्तु जो मुझे समझ आ रहा है, वह यह है कि कहीं यह फैसला देश में एक कानून-एक देश की सोच पर चलता हुआ एक देश-एक धर्म की सोच के साकार करने की ओर उठा कोई कदम तो नहीं? खैर, शायद मैं कुछ अधिक ही सोच रहा हूं, परन्तु एक बात स्पष्ट है कि यदि यह फैसला लागू हुआ तो यह देश में संघवाद (फैडरलिइज़्म) के खात्मे की ओर एक बड़ा कदम अवश्य सिद्ध होगा और देश एक अत्याचारी शासन प्रणाली की ओर एक कदम आगे बढ़ जाएगा।
यदि इसके पीछे भाजपा की असल मंशा को समझना हो तो नज़र पीछे की ओर डालनी पड़ेगी। भाजपा की सोच वास्तव में आर.एस.एस. की सोच ही है। इसका प्रकटावा आर.एस.एस. के सबसे बड़े सिद्धांतवादी माने जाते प्रमुख गुरु गोलवलकर के विचारों से अच्छी तरह हो जाता है। उनके कई भाषणों तथा उनकी पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ के कुछ अंश विचारणीय हैं जो यह स्पष्ट कर देंगे कि इसके पीछे वास्तव में क्या सोच है और आर.एस.एस. भारतीय संविधान के बारे में क्या सोचता है। 
1949 में आर.एस.एस. के प्रमुख गुरु गोलवलकर एक भाषण में कहते हैं कि संविधान बनाते समय अपने स्वतव को, अपने हिन्दुत्व को भुला दिया गया (उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अपनाया गया था)। हम में एकता का निर्माण करने वाली भावना कौन-सी है, इसकी जानकारी न होने से ही यह संविधान ‘एकत्व’ का पोषक नहीं बन सका। एक देश, एक राष्ट्र तथा एक ही राज्य में एकात्मक शासन रचना स्वीकार करनी होगी। एक संसद हो, एक ही मंत्रिमंडल हो जो देश की शासन सुविधा के अनुकूल विभागों की व्यवस्था कर सके। बिल्कुल स्पष्ट है कि वे राज्यों की अलग विधानसभाओं तथा सरकारों को देश को विभाजित करने वाला मानते हैं अर्थात वे स्पष्ट रूप में संघीय ढांचे की नहीं, एकात्मक ढांचे की बात कर रहे हैं। हालांकि पूरे इतिहास में भारत कभी भी एक ही राजा के अधीन नहीं रहा। प्रत्येक वंश के राज-काल में छोटे-बड़े राज्य अलग-अलग समय पर अलग-अलग क्षेत्रों में बनते-टूटते रहे हैं। यह देश सदा ही बहु-जाति, बहु-भाषी तथा बहु-संस्कृतियों वाला समाज रहा है।
इसे और स्पष्टता से समझने के लिए गुरु गोलवलकर (एम.एस. गोलवलकर) की पुस्तक ‘बंच ऑफ थॉट्स’ के हिन्दी अनुवाद में लिखा है कि हम अपने देश के विधान (संविधान) में से संघीय ढांचे (फैडरलिइज़्म) की पूरी चर्चा को ‘सदा के लिए’ समाप्त कर दें—एक राज्य, अर्थात भारत के अंतर्गत अनेक स्वायत (स्व-शासित) अथवा अर्ध स्वायत राज्यों के अस्तित्व (हस्ती) को मिटा दें तथा एक देश, एक राज, एक विधानमंडल, एक कार्यपालिका घोषित करें। उसमें खंडात्मक, क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गौरव चिन्ह भी नहीं होने चाहिएं। यहीं बस नहीं, एक और जगह वे तिरंगे झंडे के विरोध में स्पष्ट कहते हैं कि हमारी महान संस्कृति का परिपूर्ण परिचय देने वाला प्रतीक स्वरूप हमारा भगवा झंडा है, जो हमारे लिए परमेश्वर स्वरूप है। इसलिए इस परम पूजनीय झंडे को हमने अपने गुरु स्थान में रखना उचित समझा है। हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में इस झंडे के सामने सारा राष्ट्र (भाव भारत) नतमस्तक होगा। सो, स्पष्ट है कि यह कदम आर.एस.एस. की वास्तविक सोच को आगे बढ़ाने की एक कोशिश है क्योंकि यदि राज्यों का चुनाव संसद के चुनाव के साथ ही होगा तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने स्थानीय मुद्दे हीन हो जाएंगे और संघवाद की समर्थक क्षेत्रीय पार्टियां भी कमज़ोर होंगी। हां, यह अलग बात है कि इस योजना को पेश देश के भले की भांति किया जाएगा। यहां परवीन शाकिर का एक शे’अर मामूली बदलाव से पेश करना ज़रूरी है :
मैं सच कहूंगी मगर फिर भी हार जाऊंगी,
वो झूठ बोलेगा और ला-जवाब कर देगा। 
आखिर तात्कालिक व राजनीतिक मंतव्य क्या है? 
परन्तु जब यह स्पष्ट है कि चाहे यह आर.एस.एस. तथा भाजपा की सोच की तरफ बढ़ने वाला एक कदम है, परन्तु वर्तमान हालात में इसका कानून बनना बहुत कठिन है, क्योंकि इसे पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों का दो-तिहाई बहुमत चाहिए, जो संभव नहीं प्रतीत होता। वैसे देश के आधे से ज़्यादा राज्यों की विधानसभाओं से भी यह पारित करवाना पड़ेगा, तो फिर इस प्रस्ताव को पारित करने का तात्कालिक मंतव्य क्या है? मौजूदा हालात में इसका तात्कालिक एवं पहला मंतव्य आर.एस.एस.को खुश करना प्रतीत होता है और उसे यह आश्वासन दिलाने के लिए है कि भाजपा उसकी सोच पर ही खड़ी है, क्योंकि यह चर्चा है कि आर.एस.एस. आजकल प्रधानमंत्री के साथ नाराज़ है। वैसे भी आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत विगत कई माह से ऐसे सख्त बयान दे चुके हैं, जो यह प्रभाव देते हैं कि वह प्रधानमंत्री से खुश नहीं हैं। इसका दूसरा तात्कालिक कारण यह प्रतीत होता है कि भाजपा को 4 विधानसभा चुनावों में अपना कोर वोट बैंक खिसकता दिखाई दे रहा है और यह प्रस्ताव उसके कोर वोट बैंक की भाजपा की ओर फिर आकर्षित करेगा। वास्तव में भाजपा की चाहत कुछ और होती है और उसके काम तथा भाषा कुछ  और कहती होती है। 
चाहत कुछ है, कहते कुछ हैं, करना कुछ है
हम को समझो, इतना भी आसान नहीं है।
आम आदमी पार्टी में सब अच्छा नहीं 
नि:संदेह आम आदमी पार्टी के पास पंजाब में प्रचंड बहुमत है और किसी खुली बगावत के भी कोई आसार नहीं हैं, जो पार्टी को दोफाड़ कर सकती हो, परन्तु फिर भी पंजाब की आम आदमी पार्टी आंतरिक फूट के भंवर में फंसी दिखाई दे रही है और आपसी गुटबंदी काफी तीव्र हो गई है। हालांकि गिनती के दो-तीन विधायकों के अतिरिक्त खुल कर कोई  भी नहीं बोल रहा। जो सूचनाएं मिल रही हैं, उनके अनुसार इस पार्टी की पंजाब शाखा में सब अच्छा नहीं है। प्राप्त जानकारी के अनुसार एक समय तो पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान पंजाब के स्पीकर कुलतार सिंह संधवां को हटाने के लिए बज़िद हो गए थे, परन्तु राघव चड्ढा तथा अन्य केन्द्रीय नेताओं ने इस मामले पर संधवां की मदद की बताई जाती है,जबकि पार्टी के प्रमुख नेता संदीप पाठक निष्पक्ष रहे। दूसरी ओर मंत्रिमंडल में शामिल कुछ मंत्री तथा विधायक भी पार्टी हाईकमान के पास मुख्यमंत्री का विरोध कर रहे बताए जाते हैं और उनकी कारगुज़ारी तथा भ्रष्टाचार में हुई वृद्धि के बारे में प्रश्न उठा रहे हैं। यह भी चर्चा है कि मुख्यमंत्री भी अपना विरोध करने वाले मंत्रियों की छुट्टी करने के लिए मंत्रिमंडल में फेरबदल करना चाहते हैं, परन्तु पता चला है कि पार्टी सुप्रीमो अरविन्द केजरीवाल ने मुख्यमंत्री को अभी इसकी अनुमति नहीं दी। यह भी चर्चा है कि केजरीवाल की रिहाई के बाद मुख्यमंत्री भगवंत मान को पहले जैसा महत्व अब नहीं दिया जा रहा। इस संदर्भ में हरियाणा चुनाव में पंजाब के ‘आप’ विधायकों की ड्यूटी भी सीधे डा. संदीप पाठक द्वारा लगाए जाने की बात चर्चा में है, परन्तु इसके साथ ही यह भी चर्चा है कि चाहे पार्टी के भीतर गुटबंदी काफी तीव्र है,परन्तु अरविन्द केजरीवाल अभी इसके बारे कुछ भी नहीं कह रहे और प्रतीत होता है कि वह हरियाणा चुनाव के बाद ही इस मामले को सुलझाने के लिए कुछ करेंगे। 
डूबना लिखा हो तकदीर में ‘इमरान’ अगर,
आप बन जाते हैं गिरदाब किनारे सारे।
-इमरान-उल-हक चौहान 
(गिरदाब-भंवर)   
-मो. 92168-60000