कठिन है ‘एक देश, एक चुनाव’ की डगर

भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों। आज़ादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से एक देश-एक चुनाव की परम्परा समाप्त हो गई, लेकिन मई 2014 में जब केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार आई, तो कुछ समय बाद ही ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर बहस शुरू हो गई। दिसम्बर 2015 में कानून आयोग ने ‘एक देश, एक चुनाव’ पर एक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें बताया था कि अगर देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव करवाए जाते हैं, तो इससे करोड़ों रुपये बचाये जा सकते हैं। इसके साथ ही बार-बार चुनाव आचार संहिता न लगने की वजह से विकास कार्यों पर भी असर नहीं पड़ेगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए 2015 में सिफारिश की गई थी कि देश में एक साथ चुनाव करवाए जाने चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने जून 2019 में पहली बार औपचारिक तौर पर सभी पार्टियों के साथ इस मामले पर विचार-विमर्श के लिए बैठक बुलाई थी। तब केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता रवि शंकर प्रसाद ने कहा था कि देश में कमोबेश हर महीने चुनाव होते हैं, उसमें खर्चा होता है। आचार संहिता लगने के कारण कई प्रशासनिक काम भी रुक जाते हैं। हालांकि, कई पार्टियों ने विरोध दर्ज कराया था। 2020 में प्रधानमंत्री मोदी ने एक सम्मेलन में ‘एक देश, एक चुनाव’ को भारत की ज़रूरत बताया था। 
केंद्र सरकार द्वारा संसद का यह विशेष सत्र पांच दिनों के लिये 18 से 22 सितम्बर के बीच बुलाया गया है। यूं तो विगत में भी कई बार विशेष सत्र बुलाए गए हैं लेकिन जब इस साल पांच राज्यों में विधानसभा और अगले साल कुछ राज्यों की विधानसभा के साथ लोकसभा के चुनाव होने हैं, तो इस विशेष सत्र को लेकर कयासों का बाज़ार गर्म है। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार ‘एक देश, एक चुनाव’ के एजेंडे पर आगे बढ़ सकती है। हालांकि, संसदीय कार्यमंत्री ने विशेष सत्र के एजेंडे के बारे में कोई संकेत नहीं दिये हैं, लेकिन संसद के विशेष सत्र की घोषणा के बाद ‘एक देश, एक चुनाव’ पर एक समिति बनाये जाने से इन चर्चाओं को बल मिला है। मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘एक देश एक चुनाव’ की संभावना तलाशने के लिये एक समिति गठित की है। संसदीय कार्यमंत्री की दलील है कि समिति इस मुद्दे पर रिपोर्ट तैयार करेगी, उस पर विमर्श होगा, संसद में चर्चा होगी। यह भी कि पुराने व सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने नये विषयों का आना व चर्चा होना सामान्य बात है। दलील दी जा रही है कि 1967 तक देश में लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे, मौजूदा दौर में इस मुद्दे पर चर्चा तो होनी चाहिए। वैसे  भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर चर्चा करते रहे हैं। इस मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक भी बुलाई गई थी। राष्ट्रपति रहते हुए भी रामनाथ कोविंद ने कहा था कि देश की ऊर्जा व धन की बचत के लिये एक साथ चुनाव होने चाहिए। तर्क दिया गया था कि बार-बार आचार संहिता लागू होने से विकास की प्रक्रिया बाधित होती है।
प्रश्न तो बहुत है जैसे क्या विपक्ष को विश्वास में लिये बिना केन्द्र सरकार इतना बड़ा कदम उठा सकती है? क्या ये संविधान सम्मत है? क्या इस बड़े बदलाव के लिये संसद में सरकार के पास  बहुमत है? राजनीतिक पंडित कयास लगा रहे हैं कि यह सत्र संसद को पुरानी इमारत से नई इमारत में शिफ्ट करने के इरादे से बुलाया जा रहा होगा। संभव है कि कोई अन्य महत्वपूर्ण बिल सरकार पारित करवाना चाहती होगी। दूसरी ओर विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि सरकार यह कदम ऐसे समय में उठा रही है जब मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल समाप्ति की ओर है। राजग राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनाव परिदृश्य को लेकर चिंतित है। नया मुद्दा भाजपा को राजनीतिक रूप से लाभ देगा, पार्टी इस सोच के साथ आगे बढ़ रही है। कुछ लोग मानते हैं कि राज्यों में विधानसभा चुनावों को केंद्र आम चुनाव के साथ आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकता है। आम चुनावों के साथ भी चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।
 हालांकि विकासशील समाजों के अध्ययन का केन्द्र (सीएसडीएस) के प्रोफेसर संजय कुमार के मुताबिक ‘एक देश, एक चुनाव’ को लेकर दो परिदृश्य हैं—संसद कानून बना सकती है या इसके लिए दो-तिहाई राज्यों की समहति की ज़रूरत होगी। अगर बाकी राज्यों से सहमति लेने की ज़रूरत हुई तो ज्यादातर गैर-भाजपा सरकारें इसका विरोध करेंगी। अगर सिर्फ  संसद से पारित कराकर कानून बनाना संभव हुआ तो भी कई मुश्किलें होंगी। जैसे, एक साथ चुनाव कब कराया जाए? जिन राज्यों में अभी चुनाव हुए उनका क्या होगा? क्या इन सरकारों को बर्खास्त कर दिया जाएगा? साफ  है कि कानूनी तौर पर कई अड़चनें आने वाली हैं। कानूनी आधार पर इस समस्या का हल कर पाना संभव नहीं है। इसके लिए दूसरे राज्यों की सहमति बहुत जरूरी है। राजनीतिक विशेषज्ञ राशिद किदवई के मुताबिक अभी जिन राज्यों में हाल में सरकार चुनी गई है, वो इसका विरोध करेंगे। 
एक बात साफ  है कि अगर सरकार ऐसा करेगी तो इस मामले का सुप्रीम कोर्ट में जाना तय है। हालांकि दुनिया के कई देश पहले से ही ‘एक देश, एक चुनाव’ के फार्मूले पर चल रहे हैं। जर्मनी, हंगरी, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, स्पेन, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड और बेल्जियम जैसे देशों में एक ही बार चुनाव कराने की परम्परा है। पिछले दिनों स्वीडन ने भी एक साथ अपने चुनाव कराए थे, जिसके बाद ये भी उन देशों की सूची में शामिल हो गया जो ‘एक देश, एक चुनाव’ के फार्मूले पर चल रहे हैं। हालांकि भारत में ‘एक देश, एक चुनाव’ की परम्परा की शुरुआत होना आसान नहीं है।