‘एक देश, एक चुनाव’ पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए

‘एक देश, एक चुनाव’ पर बहस दो संबंधित विषयों—तकनीकी व्यवहार्यता और राजनीतिक उद्देश्यों के इर्द-गिर्द घूमती हुई प्रतीत हो रही है। इस मकसद के समर्थक कुछ तकनीकी मुद्दों को उठाते हैं —जैसे चुनाव की बढ़ती लागत, प्रशासनिक तकनीकी समस्याएं और भ्रष्टाचार की संभावनाएं, शासन पर लगातार चुनावों का नकारात्मक प्रभाव और नीतिगत पहल का चुनाव-केंद्रित होना। 
ये चिंताएं बिल्कुल नई नहीं हैं। चुनाव सुधारों पर विभिन्न आधिकारिक रिपोर्टों, जिनमें विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट भी शामिल है जिसका हाल ही में जारी सरकारी अधिसूचना में प्रमुखता से उल्लेख किया गया है, ने कई मौकों पर इन महत्वपूर्ण तकनीकी प्रशासनिक सवालों को उठाया है। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि ये मुद्दे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति के कार्यात्मक पहलुओं को प्रभावित करते हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ का विरोध करने वाले भाजपा के राजनीतिक उत्साह पर सवाल उठाते हैं। सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति को एक सोची-समझी राजनीतिक चाल के रूप में देखा जा रहा है। इस प्रस्ताव को लागू कैसे किया जा सकता है, उसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में गठित एक उच्चस्तरीय समिति में विपक्ष के नेता के रूप में शामिल किये गये कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने समिति के संदर्भ की शर्तों की आलोचना की है। 
अधीर रंजन चौधरी की राय में यह प्रस्ताव राजनीति से प्रेरित है तथा ‘आधारभूत रूप से गैर-व्यवहार्य और तार्किक रूप से कार्यान्वित नहीं हो सकने वाला’ है। दिल्ली के मुख्यमंत्री और ‘आप’ नेता अरविंद केजरीवाल अपनी आलोचना में एक कदम और आगे बढ़ गये हैं। उनके मुताबिक अगर ‘एक देश, एक चुनाव’ लागू हो गया तो भाजपा नेता पांच साल तक अपना चेहरा नहीं दिखायेंगे।’
चुनाव सुधार बनाम राजनीतिक मकसद की बहस ने निश्चित रूप से हमारी सार्वजनिक बहस में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। चुनाव, जिसे हमेशा हमारी राजनीतिक व्यवस्था का एक सुलझा हुआ मुद्दा माना जाता रहा है, लोकतंत्र का एक खुला और अनसुलझा प्रश्न बनकर उभरा है। इसी कारण संविधान की ओर वापस जाने की आवश्यकता है जो लोकतंत्र की एक स्पष्ट, निरन्तर विकसित होने वाली अवधारणा की परिकल्पना करता है। इस अर्थ में संविधान को ‘एक देश, एक चुनाव’ प्रस्ताव के पुनर्मूल्यांकन के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बिंदु के रूप में लिया जा सकता है। विशेष रूप से हमें एक बहुत ही बुनियादी प्रश्न की जांच करने की आवश्यकता है कि औपनिवेशिक भारतीय संदर्भ में संवैधानिक लोकतंत्र और चुनावों के बीच क्या संबंध है?
यह याद रखना चाहिए कि भारतीय संविधान एक राजनीतिक आंदोलन का परिणाम है। हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम, विशेष रूप से महात्मा गांधी के नेतृत्व में इसका प्रमुख संघर्ष केवल उप-निवेशवाद विरोधी नहीं था, यह सामाजिक परिवर्तन के व्यापक उद्देश्य को प्राप्त करने में लोगों की भागीदारी के विचार के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध था। यह राजनीतिक कल्पना उन संसाधनों में से एक थी जिसने संविधान सभा में विचार-विमर्श को प्रभावित किया। 
संविधान ने अंतत: संसदीय लोकतंत्र को न केवल सरकार के एक रूप में, बल्कि भविष्य के भारत में राष्ट्रीय आंदोलन की आकांक्षाओं को साकार करने के एक साधन के रूप में भी अपनाया। इस अर्थ में संविधान हमें समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित एक धर्म-निरपेक्ष राजनीति बनाने के लिए लोकतंत्र का भविष्योन्मुख अर्थ प्रदान करता है। संविधान सरकार को यह याद दिलाता प्रतीत होता है कि लोकतंत्र एक राजनीतिक गुण है, जिसे डा. बी.आर. अम्बेदकर द्वारा संवैधानिक नैतिकता कहे जाने वाले सिद्धांत को विकसित करके पूरी तरह से महसूस किया जाना चाहिए और इस तर्क के अनुसार स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना राजनीति को उत्तरदायी और लोकतांत्रिक बनाने का सबसे महत्वपूर्ण साधन है।
संविधान सर्वोच्च विधायी निकाय, संसद को इस लोकतंत्र-चुनाव संतुलन को मज़बूत करने के लिए भविष्य के कानून बनाने का अधिकार देता है। साथ ही यह अपेक्षा की जाती है कि न्यायपालिका जन-आधारित कानूनी व्याख्याओं को विकसित करके इस संवैधानिक जनादेश की फिर से रक्षा करे। बुनियादी संरचना सिद्धांत इस संबंध में एक अच्छा उदाहरण है। (संवाद)