चुनाव आयोग के लिए बड़ी चुनौती
बिहार के चुनावों में महज़ लगभग चार महीने का समय ही शेष है। भारतीय चुनाव आयोग द्वारा यहां मतदाता सूचियों का विशेष रूप से गहन पुनर्निरीक्षण करने की घोषणा के बाद प्रदेश में ही नहीं, अपितु पूरे देश में एक तरह से बवाल मचा दिखाई देता है। जहां तक सूचियों के संशोधन या पुनर्निरीक्षण की बात है, पिछले समय में इस संबंध में लम्बी और विशाल कवायद चलती रही है। वर्ष 1952, 1961, 1983, 1992, 2002 और 2004 में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में ऐसे संशोधन होते रहे हैं। बिहार में भी मतदाता सूचियों में ऐसा संशोधन 2003 में हुआ था। बाद में इस अभ्यास को एक लम्बा अन्तराल ज़रूर पड़ गया है, परन्तु अब बिहार चुनावों के मामले में ‘वेहड़े आई जंज ते विन्नो कुड़ी दे कन्न’ जैसी बात ही की जाती रही प्रतीत होती है। बिहार में 7 करोड़ से अधिक मतदाता हैं। उनमें से अभी तक भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके पास अपनी पहचान संबंधी कोई ज्यादा तथ्य मौजूद नहीं हैं। ़गरीबी और अनपढ़ता भरा जीवन व्यतीत कर रहे लोगों के लिए ऐसे तथ्यों का कोई अधिक महत्त्व नहीं होता, चाहे अब धीरे-धीरे ऐसे लोगों की पहचान निश्चित करके और सुविधाएं देकर उन्हें मुख्यधारा में लाया जा रहा है। मतदाताओं की पहचान तय करने के लिए जो प्रमाण-पत्र चुनाव आयोग की ओर से भरवाया जाएगा, उसके साथ संलग्न करने के लिए 11 दस्तावेज़ों की ज़रूरत है। ऐसे विवरण कुछ समय में जन-साधारण द्वारा उपलब्ध करवाना कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव प्रतीत होते हैं।
राजनीति में ऐसा भूकम्प इसलिए भी आया है, क्योंकि ज्यादातर विपक्षी पार्टियां इसमें चुनाव आयोग के साथ भाजपा की मिलीभुगत का सन्देह करने लगी हैं और कुछ नेता सरेआम ऐसे आरोप लगा रहे हैं। अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए यदि लोगों के पास संबंधित दस्तावेज़ नहीं होंगे तो उन्हें मताधिकार से वंचित भी किया जा सकता है। इन 11 दस्तावेज़ों में जन्म तिथि और रिहायश का लिखा होना भी ज़रूरी है। इसके विरोध में कई राजनीतिक पार्टियों ने प्रदर्शन और रैलियां भी निकालीं और राष्ट्रीय जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, वामपंथी पार्टियां और शिव सेना (बाल ठाकरे) ने इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा भी खटखटाया। सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं के सन्दर्भ में चुनाव आयोग को अपना पुनर्निरीक्षण का काम जारी रखने का निर्देश तो दे दिया है परन्तु अन्य दस्तावेज़ों के साथ उसे मतदाताओं की पहचान तय करने के लिए आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड आदि को भी शामिल करने का निर्देश दिया है। इस मामले की आगामी सुनवाई न्यायालय द्वारा 28 जुलाई को रखी गई है, परन्तु यह सवाल उठना प्राकृतिक है कि, क्या 4 मास की कम अवधि में चुनाव आयोग मतदाताओं की पहचान की प्रक्रिया सन्तोषजनक ढंग से पूर्ण कर सकेगा।
संविधान की धारा 326 के अनुसार देश के उन सभी व्यक्तियों को मताधिकार प्राप्त है, जो भारत के नागरिक हों और उनकी आयु 18 वर्ष या इससे ऊपर हो। इसके लिए कुछ शर्ते ये भी हैं कि यदि कोई व्यक्ति भारतीय नागरिक नहीं है, मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है या आपराधिक पृष्ठभूमि होने के कारण अयोग्य करार दिया गया है तो वह मतदान नहीं कर सकता। नि:संदेह चुनाव आयोग के लिए इतनी बड़ी संख्या में मतदाताओं की पहचान का काम पारदर्शी ढंग से इतने कम समय में पूर्ण करना बेहद कठिन प्रतीत होता है। आज भारत में आधार कार्ड एक ऐसा पहचान-पत्र बन चुका है, जिसे प्रत्येक क्षेत्र में उचित माना जाता है। सरकार द्वारा करोड़ों लाभार्थियों को बैंकों द्वारा भिन्न-भिन्न योजनाओं के तहत पैसे भेजने के लिए भी आधार कार्ड को ही माना जाता है। इसके साथ-साथ मतदाताओं के पहचान-पत्र भी आज देश के बहुसंख्यक शहरों के पास उपलब्ध हैं, परन्तु इसके साथ ही राशन कार्ड या अब ग्रामीण क्षेत्रों में मनरेगा पहचान कार्ड भी पहचान के आधार माने जाने लगे हैं। चुनाव आयोग ने यह भी घोषणा की है कि बिहार के बाद देश के अन्य राज्यों और क्षेत्रों में भी बिहार की तरह ही मतदाता सूचियों का विशेष ‘गहन पुनर्निरीक्षण’ सम्पन्न किया जाएगा, परन्तु हमारा मानना है कि ऐसे निरीक्षण में पारदर्शिता होना ज़रूरी है।
चुनाव आयोग की घोषणा के अनुसार आज बड़ी संख्या में नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार के लोग भारत में आ बसे हैं, जिनका चुनाव प्रबन्ध में से निपटारा किया जाना ज़रूरी है। ऐसा होना भी चाहिए परन्तु यह काम राजनीतिक पार्टियों तथा जन-साधारण को विश्वास में लेकर ज़रूरी समय लगा कर पूरी पारदर्शिता से सम्पन्न किया जा सकता है, अन्यथा आगामी समय में इस काम के संबंध में अनेक ही किन्तु-परन्तु होने की सम्भावना बनी हुई है। ऐसी स्थिति चुनाव आयोग के लिए बड़ा सिरदर्द बन सकती है। इसलिए उसे अपनी इन गतिविधियों में संतुलन और विश्वासनीयता लाने के लिए बड़े यत्न करने पड़ेंगे।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द