चुनाव आयोग का संवैधानिक अधिकार सर्वव्यापी नहीं : सर्वोच्च न्यायालय

बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर सर्वोच्च न्यायालय के रुख से सबसे महत्वपूर्ण सीख यह है कि भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) के पास स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने का संवैधानिक अधिकार तो है लेकिन उसे अनियंत्रित विवेकाधिकार से कार्य करने का अधिकार नहीं है। पुनरीक्षण प्रक्रिया पर रोक लगाने से न्यायालय का इन्कार पहली नज़र में आयोग की पहल का समर्थन प्रतीत हो सकता है, लेकिन निर्णय का अंतर्निहित स्वर और सार एक खाली चेक से कहीं अधिक है। इसके विपरीत न्यायालय ने मनमानी के विरुद्ध एक सख्त चेतावनी जारी की है, जिसमें आयोग को याद दिलाया गया है कि संवैधानिक स्वायत्तता का अर्थ उसकी मनमानी की संवैधानिक सुरक्षा नहीं है।
यह घटनाक्रम इस बढ़ती धारणा के आलोक में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि हाल के वर्षों में चुनाव आयोग अपने संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से बाहर के क्षेत्रों में भटक गया है। बिहार मामले में मतदाता सूची के संशोधन को नागरिकता के सवालों से जोड़ने के आयोग के प्रयास पर अदालत ने कड़ी फटकार लगायी। पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि नागरिकता का निर्धारण चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। यह दावा करके अदालत ने न केवल बिहार की इस प्रक्रिया पर कानूनी अंकुश लगाया, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावी अधिकारियों की बढ़ती दखलंदाजी के बारे में एक बड़ा और अधिक गंभीर सवाल भी उठाया।
यह निर्णय उस व्यापक राजनीतिक और संस्थागत संदर्भ को देखते हुए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें यह उभरा है। चुनाव आयोग को कई क्षेत्रों से, खासकर विपक्ष से, बढ़ती आलोचना का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि इसे कार्यपालिका के एजेंडे के साथ इसके बढ़ते तालमेल के रूप में देखा जा रहा है। इस आलोचना के केंद्र में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) को लेकर चल रहा विवाद है, जिसमें वरिष्ठ विपक्षी नेता राहुल गांधी उनकी विश्वसनीयता और आयोग की निष्पक्षता, दोनों पर सवाल उठाने वाली सबसे लगातार आवाज़ बन गये हैं। उनके आरोप लगातार लोकतांत्रिक संस्थाओं में विश्वास के क्षरण के व्यापक विषय को छूते रहे हैं, जहां चुनाव आयोग का महत्वपूर्ण स्थान है। इन चिंताओं को उठाकर, गांधी केवल एक राजनीतिक अभियान ही नहीं चला रहे हैं, बल्कि भारत के प्रमुख संवैधानिक निकायों में से एक में विश्वास के संकट की ओर भी ध्यान आकर्षित कर रहे हैं।
बिहार प्रकरण को केवल एक राज्य-स्तरीय विवाद से कहीं अधिक माना जा रहा है जिसकी प्रकृति इसका प्रयोग अन्यत्र व्यापक उपयोग है, जो सवालों के घेरे में आ गयी है। मतदाता सूची में संशोधन करने की चुनाव आयोग की शक्ति सर्वविदित है। हालांकि समस्या तब उत्पन्न होती है जब ऐसा लगता है कि इस तरह के संशोधन का आधार प्रशासनिक आवश्यकता से नहीं, बल्कि अस्पष्ट मानदंडों या संदिग्ध उद्देश्यों से उत्पन्न होता है। बिहार में एसआईआर प्रक्रिया ने अपने समय, कार्यान्वयन के तरीके और इसके संभावित जनसांख्यिकीय निहितार्थों के कारण लोगों को चौंका दिया। यह तथ्य कि आयोग ने मतदाता सूची प्रबंधन को नागरिकता सत्यापन के साथ मिलाने का प्रयास किया, एक ऐसे इरादे की ओर इशारा करता है जो उसके संवैधानिक अधिकार क्षेत्र से परे था। इस कारण सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा और एक सीमा निर्धारित करनी पड़ी। यह दर्शाता है कि अगर इसे अनियंत्रित छोड़ दिया जाये तो संस्थागत अतिक्रमण कितनी आसानी से सामान्य हो सकता है।
केंद्र सरकार द्वारा ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ प्रस्ताव को आगे बढ़ाने के संदर्भ में ये चिंताएं और भी गंभीर हो जाती हैं। यह एक व्यापक सुधार है जिसका उद्देश्य लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराना है। पहली नज़र में, यह विचार दक्षता और लागत-प्रभावशीलता का वायदा करता है। हालांकि, आलोचकों का तर्क है कि इससे पहले से ही नाज़ुक शक्ति संतुलन केंद्र सरकार के पक्ष में झुकने का खतरा है। इन चुनावों को कराने का मुख्य तंत्र, निश्चित रूप से, चुनाव आयोग ही होगा। इसलिए एक समन्वित चुनावी कैलेंडर के चश्मे से देखने पर आयोग की निष्पक्षता पर कोई भी संदेह और भी गहरा हो जाता है।पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने मूलत: इस बात पर ज़ोर दिया कि एक राष्ट्र, एक चुनाव मॉडल गलत परिस्थितियों में, चुनाव आयोग को न्यूनतम जवाबदेही वाली एक अर्ध-संप्रभु संस्था में बदल सकता है। इसलिए बिहार का मामला सिर्फ एक राज्य या एक चुनाव का मामला नहीं है। यह एक व्यापक प्रवृत्ति का प्रतीक है- प्रशासनिक सुव्यवस्थितीकरण की आड़ में, अति-केंद्रीकरण की ओर एक संस्थागत झुकाव। न्यायपालिका का हस्तक्षेप ठीक इसी प्रवृत्ति को रोकने का प्रयास करता है। 
दूसरे स्तर पर इस न्यायिक क्षण को भारत के लोकतांत्रिक लचीलेपन में एक शांत विश्वास मत के रूप में भी देखा जा सकता है। जब राजनीतिक टकराव और चुनाव आयोग जैसे स्वायत्त संस्थाओं की परीक्षा होती है, तब संवैधानिक प्रहरी के रूप में कार्य करने की न्यायालय की क्षमता अक्षुण्ण बनी रहती है। हालांकि यह तथ्य कि चुनाव आयोग को ऐसी चेतावनी जारी करनी पड़ी, यह दर्शाता है कि संस्थागत औचित्य की सीमा रेखा का उल्लंघन खतरनाक नियमितता के साथ किया जा रहा है। न्यायालय और आयोग के बीच इस तरह के टकराव की पुनरावृत्ति, लोकतांत्रिक राज्य के विभिन्न अंगों के बीच बढ़ते अविश्वास का भी संकेत देती है।
भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र में, चुनावी प्रक्रिया की वैधता केवल तकनीकी सुदृढ़ता पर ही नहीं, बल्कि निष्पक्षता की जनधारणा पर भी निर्भर करती है। यदि मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को यह संदेह होने लगे कि मतदाता सूचियों में चुनिंदा ढंग से संशोधन किया जा रहा है, या मशीनों से छेड़छाड़ की जा रही है, या कोई एक संस्था चुनावी कैलेंडर पर अनुचित नियंत्रण हासिल कर रही है, तो लोकतंत्र स्वयं कमज़ोर हो जाता है। राहुल गांधी और अन्य अपनी आलोचनाओं में इसी लोकतांत्रिक कमज़ोरी की भावना व्यक्त कर रहे हैं। उनकी चेतावनियां राजनीति से प्रेरित हो सकती हैं लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें दम नहीं है। (संवाद)

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