‘एक देश एक चुनाव’ केवल राजनीति नहीं
‘एक देश एक चुनाव’ विषय पर चर्चा इस वक्त गर्म है। इसे मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी योजना मान लिया जाये तो कुछ गलत नहीं होगा। पिछले दो कार्यकालों में भाजपा इसे पहलकदमी से देखती आ रही है। अब कैबिनेट की मंजूरी के बाद 129वां संविधान संशोधन बिल लोकसभा में पेश कर दिया गया। क्योंकि संख्या बल में कमी थी। सो फिलहाल संयुक्त संसदीय कमेटी के पास इसे भेजना पड़ा। आने वाले दिनों में क्या होने वाला है इस पर अभी से कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा। लेकिन सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष द्वारा इसके लाभ और नुकसान की बात ज़ोर-शोर से की जा रही है। वैसे भी जिस तरह की धक्का-मुक्की और रोज के धरना-प्रदर्शन से संसद का काम ठप्प हो रहा है उससे भारतीय आम जन काफी हतोत्साहित है।
सत्ताधारी पार्टी का यह तर्क है कि देश में एक साथ चुनाव होने से काफी आर्थिक बोझ कम हो सकता है। वहीं बार-बार चुनाव करवाने के झंझट से छुटकारा मिल सकता है। बार-बार चुनाव से केवल रियायतों पर ही सोचा जाता है जिनसे देश के बड़े हित और व्यापक कार्यक्रम वाधित होते हैं। अफसरशाही भी जन-हित में कार्य छोड़ कर चुनाव अभियान का हिस्सा बनी रहती है। विरोध करने वाले यह दलील दे रहे हैं कि यह प्रक्रिया संघीय ढांचे (फैडरल) को कमज़ोर करने वाली संरचना होगी, क्योंकि विभिन्न राज्यों के स्थानीय मसले हमेशा से उठाए जाते रहे हैं। उन्हीं मसलों को आधार बना कर पार्टियां चुनाव लड़ती हैं, जो पार्टी जनता को विश्वसनीय लगती है, उसी का शासन पांच साल चलता है, परन्तु इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया खतरे में आ सकती है। जब एक साथ चुनाव होंगे तो राष्ट्रीय मुख्य धारा के शोर के बीच स्थानीय मांगें दब कर रह जाने का अंदेशा होगा। एक यह भी सन्देह व्यक्त किया जा रहा है कि इस तरह के चुनाव में एक ही पार्टी की तानाशाही भी स्थापित हो सकती है जिसमें लोकतंत्र की मूल भावना बेआवाज़ हो जाएगी।
फिलहाल विपक्ष की मांग के अनुरूप इसके लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित होगी। समिति का गठन विभिन्न दलों के सांसदों की अनुपातिक संख्या के आधार पर होता है। भाजपा अधिक सांसदों वाली पार्टी है, इसलिए समिति का अध्यक्ष भाजपा का ही होगा और उसके सदस्यों की संख्या भी अधिक होगी। समझा जा सकता है कि कुछ समय बाद इस बिल को मंजूरी मिल जाएगी। सरकार को असफल रहने की आशंका नहीं के बराबर है। स्पीकर ने पक्ष और विपक्ष को आश्वासन दिया है कि जब यह बिल दुबारा पेश होगा, सभी को अपनी बात रखने का दोबारा मौका मिल सकता है। दोनों पक्षों के पास अपने-अपने तर्क विकसित करने का एक अवसर तो है ही। इस वक्त में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि संसदीय समिति की रिपोर्ट उन प्रश्नों का कौन-सा हल बताती है और क्या तर्क विकसित करती है जो इस दीर्घ सिलसिले में अभी तक अनुदित है।
जब लोकसभा में बिल पेश हुआ तो विपक्ष ने इस पर कड़ा विरोध प्रगट किया था और इसे वापिस लेने की गुहार की थी। विपक्ष के तर्क सिद्धांत पर निर्भर करते हैं। पक्ष के लोग उन आशंकाओं को बेशक निर्मूल बतायें, लेकिन वह जनता का विश्वास नहीं खो सकती। आखिरकार किसी न किसी तरह सभी पार्टियों को जनता को संतुष्ट करना ही होता है। आने वाले दिनों में फिर जनता के बीच ही जाना होता है। ‘एक देश एक चुनाव’ को केवल राजनीति करने से नहीं देखना चाहिए। अपितु देश हित की व्यापक नज़र से देखना-समझना चाहिए तभी हम सार्थक पहलकदमी की तरफ जा सकते हैं, लेकिन फिलहाल यह इतना भी आसान नहीं नज़र आता। वहीं छोटी-छोटी बातों के लिए संसद नहीं चल रही वहीं यह और भी कठिन लगता है।