झूठे पुलिस मुकाबलों की कटु सच्चाई

पंजाब में 1980 से लेकर 1993 तक जो कुछ घटित हुआ है, उसका हृदय-विदारक वृत्तांत अभी भी  जब कभी सामने आता है तो रूह कांप उठती है। सरकारी और गैर-सरकारी हिंसा में उस समय जन-साधारण को जो कुछ सहन करना पड़ा, उसे शब्दों में बयान करना आज भी कठिन प्रतीत होता है। उस समय के घटनाक्रम के अनेक पहलू एवं अनेक कारण हो सकते हैं, परन्तु इनमें से एक बड़ी एवं कड़वी सच्चाई यह भी थी कि उस समय की पंजाब की सरकारें चाहे उनका नेतृत्व राज्यपालों ने किया हो या मुख्यमंत्रियों ने, खाड़कूवाद को दबाने के लिए केन्द्र सरकारों की सहमति से सरकारी हिंसा का स्पष्ट तौर पर सहारा लिया था तथा इस सरकारी नीति के परिणाम-स्वरूप ही पंजाब में व्यापक स्तर पर झूठे पुलिस मुकाबले बनाने की पुलिस अधिकारियों एवं कर्मचारियों को छूट दी गई थी। यह भिन्न बात है कि इस छूट से लाभ उठाते हुए पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों ने पैसे इकट्ठे करने एवं तरक्की हासिल करने के लिए बहुत-से ऐसे लोगों को भी अपना शिकार बनाया जिनका दूर-दूर तक भी खाड़कूवाद की लहर से कोई संबंध नहीं था।
इस सन्दर्भ में 24 दिसम्बर मंगलवार को अजीत में प्रकाशित दो समाचारों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1. मोहाली की एक सी.बी.आई. अदालत ने 1992 में स्वतंत्रता सेनानी बाबा सोहन सिंह भकना के साथी सुलक्खन सिंह भकना एवं उसके दामाद सुखदेव सिंह का घर से अपहरण करके उनकी हत्या करने के आरोप में उस समय के थाना सरहाली के एस.एच.ओ. सुरिन्दरपाल सिंह को भिन्न-भिन्न धाराओं 120-बी में 10 वर्ष कैद, 2 लाख रुपए जुर्माना, धारा 364 आई.पी.सी. में 10 वर्ष की कैद, 2 लाख का जुर्माना, धारा 365 आई.पी.सी. में 7 वर्ष की कैद, 70 हज़ार जुर्माना और धारा 342 में तीन वर्ष की कैद एवं 10 हज़ार जुर्माने की सज़ा सुनाई है। यहां यह भी वर्णनीय है कि आरोपी पुलिस अधिकारी सुरिन्दरपाल सिंह पहले ही जेल में है तथा फैसले के समय बरनाला में, जहां वह एक अन्य मामले में उम्र कैद भुगत रहा है, को वीडियो कान्फ्रैंस द्वारा यह सज़ा सुनाई गई।
2. 1992 के दौरान जहां पुलिस कर्मचारियों द्वारा युवाओं को घरों से उठा कर झूठे पुलिस मुकाबलों में मार दिया गया, वही उस समय के दौरान कई पुलिस कर्मचारियों ने अपने पुलिस साथियों को भी नहीं छोड़ा। तरनतारन के एक मामले में थाना सिटी के उस समय के एस.एच.ओ. गुरबचन सिंह उर्फ (मानो- चाहल) के नेतृत्व में पुलिस पार्टी ने पंजाब पुलिस कांस्टेबल जगदीप सिंह मक्खन और एक एस.पी.ओ. गुरनाम सिंह पाली को घर से उठा कर हथियारों की बरामदगी के लिए लेकर जाने के दौरान एक पुलिस मुकाबले में मार दिया गया था तथा स्वयं ही उनका संस्कार भी कर दिया था। इस मामले में 32 वर्ष बाद मोहाली की सी.बी.आई. अदालत द्वारा पूर्व एस.एच.ओ. गुरबचन सिंह, सब-इंस्पैक्टर रेशम सिंह एवं सब-इंस्पैक्टर हंसराज को उम्र कैद की सज़ा सुनाई गई है। इस घटना के सामने आए विवरण के अनुसार कांस्टेबल जगदीप सिंह उर्फ मक्खन को उसके गांव जौड़ा से उसके ससुराल घर से जबरन उठा लिया गया था। दरवाज़ा न खोलने पर पुलिस द्वारा चलाई गई गोलियों से जगदीप सिंह की सास सविन्दर कौर जोकि शिरोमणि कमेटी की कर्मचारी थी की भी गोली लगने से मौत हो गई थी।
ऐसे घटनाक्रम को घटित हुए चाहे तीन दशक से भी अधिक का समय हो गया है परन्तु इस पूरे समय के दौरान किसी भी केन्द्रीय एवं राज्य सरकार ने इन पीड़ित लोगों का हाथ नहीं थामा, अपितु उन्हें झूठे पुलिस मुकाबलों का शिकार हुए अपने पारिवारिक सदस्यों के लिए स्वयं ही लम्बी तथा कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी, जबकि झूठे पुलिस मुकाबलों के आरोपी पुलिस अधिकारियों एवं कर्मचारियों को पंजाब की हर सरकार द्वारा मुफ्त कानूनी सहायता दी गई और हर तरह से उनकी वित्तीय सहायता भी की जाती रही। बहुत-सी अदालतों द्वारा आरोपी करार दिए गए पुलिस कर्मचारियों को भी सरकारों ने उनके पदों पर बनाये रखा था। उन्हें तभी पदों से हटाया गया जब मीडिया अथवा मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने इस संबंध में आवाज़ बुलन्द की। पीड़ित परिवारों के अपने यत्नों के परिणाम-स्वरूप ही कुछ दर्जन पुलिस अधिकारियों एवं कर्मचारियों को अदालतों की ओर झूठे पुलिस मुकाबलों के मामलों में सज़ाएं सुनाई गई हैं तथा ये सज़ाएं होने की प्रक्रिया अभी भी चल रहा है। एक अनुमान के अनुसार पंजाब में पुलिस मुकाबलों में लगभग 25000 युवक मारे गये थे तथा इनमें से ज्यादातर पुलिस मुकाबले झूठे ही बनाये गये थे। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले प्रसिद्ध कार्यकर्त्ता जसवंत सिंह खालड़ा ने यह सच्चाई सामने लाई थी, परन्तु वह स्वयं पुलिस  के अत्याचार का शिकार हो गए थे। 1997 के विधानसभा चुनावों के दौरान शिरोमणि अकाली दल ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में प्रदेश के लोगों से यह वायदा किया था कि झूठे पुलिस मुकाबलों की जांच करवा के पीड़ित परिवारों को इन्साफ दिया जाएगा तथा आरोपी पुलिस कर्मचारियों के विरुद्ध बनती कार्रवाई की जाएगी, परन्तु सत्ता में आने के बाद शिरोमणि अकाली दल ने अपना यह वायदा भुला दिया। इस संबंध में जांच के ़गैर-सरकारी तौर पर हुए यत्न भी ज्यादातर सफल नहीं हुए।
पंजाब के इतिहास की यह कड़वी सच्चाई आज भी मांग करती है कि पंजाब सरकार झूठे पुलिस मुकाबलों की जांच करने के लिए किसी शक्तिशाली आयोग की नियुक्ति करे तथा पीड़ित परिवारों को न केवल इन्स़ाफ दिलाया जाये, अपितु उनकी वित्तीय सहायता भी की जाये। इससे उनके ज़ख्मों पर कुछ न कुछ मरहम अवश्य लगेगी। बहुत-से कानूनी विशेषज्ञों एवं मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का विचार है कि दक्षिण अफ्रीका की तज़र् पर जस्टिस एंड रीकॉन्सिलेशन आयोग बना कर इस कार्य को आगे बढ़ाया जाये। अब यह देखना बनता है कि मौजूदा पंजाब सरकार इस संबंध में कोई कदम उठाती है या नहीं?

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