हिंदुत्ववादी शक्तियों के अंदर ही चुनौती का सामना कर रहा है संघ

चार जून, 2024 को आये लोकसभा चुनाव के नतीजों ने एक तरफ तो लोकतंत्र को थोड़ी सी राहत दी, और दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी बचा लिया। अगर मोदी को 350 या उससे ज्यादा सीटें मिल जातीं तो लोकतंत्र का जो होता उसके बारे में हम अंदाज़ा लगा ही सकते हैं, मेरे ़ख्याल से हिंदुत्व की जगह पूरी तरह से मोदीत्व की स्थापना हो जाती। फिर हर जगह विष्णु भगवान के नये सफेद दाढ़ी वाले अवतार के मंदिर बनते। हो सकता है कि इन मंदिरों की प्राणप्रतिष्ठा करने के लिए संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को बुलाया जाता। यह एक बड़ी विडम्बना होती, क्योंकि रामलला के मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा में तो वे दूसरे नंबर रहे थे, और पहले नंबर के प्राणप्रतिष्ठाकारक के मंदिरों का उद्घाटन उनसे करवाया जा रहा है। जो भी हो, वोटरों ने मोहन भागवत के हाथ में फिर से भाजपा और हिंदुत्व की कमान सौंप दी है। आज मोदी-शाह की जोड़ी उनकी किसी भी राय या निर्देश की उपेक्षा करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन, अब उन्हें दूसरी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। कुछ ऐसी समस्याओं का जिनके बारे में उन्होंने पहले अंदाज़ा नहीं लगाया था। शायद, ये अनपेक्षित समस्याएं पहले से अनुमानित हो भी नहीं सकती थीं। 
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो चाहता था, वह हो चुका है। लेकिन वह जो चाहता है, वह नहीं हो पा रहा है। 35 साल पहले शुरु किये गये राममंदिर आंदोलन के ज़रिये राजनीति और समाज पर अपना दबदबा कायम करने की उसकी योजना पूरी हो गयी है। परंतु इस प्रभुत्व को जारी रखने और उत्तरोत्तर मज़बूत करने की योजनाओं में एक अजीब सी बाधा पैदा हो गई है। अगर यह वामपंथियों, कांग्रेसियों और क्षेत्रीय शक्तियों द्वारा खड़ी की गई होती तो ज्यादा चिंता की बात नहीं थी। इस तरह की समस्याओं से निबटने की बहुतेरी युक्तियां संघ परिवार के पास हैं। यह तो हिंदुत्व की पैरोकारी करने वाली ऐसी शक्तियों की कारिस्तानी है जिन्हें मोटे तौर पर संघ परिवार की मित्र-शक्तियों की संज्ञा ही दी जा सकती है। ज्यादा से ज्यादा संघ उन्हें ‘नासमझ’, ‘अनियोजित’ और ‘अनावश्यक’ ही करार दे सकता है। बावजूद इसके कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने उन्हें ‘अस्वीकार्य’ करार दिया है, वे मोदी या योगी सरकार के ज़रिये उनका दमन नहीं करवा सकते। न तो ‘अरबन नक्सल’ या ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ की तज़र् पर उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है, और न ही उनके खिलाफ कोई और ‘नैरेटिव’ चलाया जा सकता है। फिलहाल सरसंघचालक उन्हें नसीहत देने में लगे हुए हैं। करीब ढाई साल पहले उन्होंने यही काम ‘हर मस्ज़िद के नीचे शिवलिंग क्यों ढूंढना’ कह कर किया था। अब नसीहत के दूसरे दौर में उन्होंने कहा है कि ‘रोज़ नये मुद्दे उठा कर घृणा-दुश्मनी फैलाना उचित नहीं है।’
इस मामले में पहली मुश्किल यह है कि राममंदिर आंदोलन को सफल करने के लिए संघ ने जो राजनीतिक टेक्नॉलोजी गढ़ी थी, उसे किसी ़गैर-संघी हिंदुत्ववादी संगठन या व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल करने से नहीं रोका जा सकता। पिछले साढ़े तीन दशक में इसी टेक्नॉलोजी के ज़रिये ही तो बहुसंख्यकवादी शेर को लोकतंत्र और सर्वधर्मसमभाव की ज़ंजीरों से मुक्त करके खुला छोड़ा गया था। अब इस गुर्राते घूम रहे शेर की हर कोई सवारी करना चाहता है। लेकिन राजनीतिक हालात बदल गये हैं। केंद्र और बहुत से राज्यों में कांग्रेस की नहीं, बल्कि संघ द्वारा स्थापित भाजपा सरकारें हैं। अब नया रामजन्मभूमि आंदोलन नहीं चलाया जा सकता। एक बार फिर से दिल्ली की जामा मस्ज़िद और अजमेर की दरगाह पर कारसेवकों की नयी पीढ़ी हमला नहीं बोल सकती। इससे गृहयुद्ध की स्थिति बन जाएगी। दुनिया के पैमाने पर मोदी सरकार की नाक कट जाने का डर है। वैसे भी इतिहास को दोहराना नामुमकिन ही होता है। इसलिए अब मोहन भागवत को हिंदू धर्म की उदारता और ग्रहणशीलता याद आ रही है। उन्हें याद दिलाना पड़ रहा है कि रामकृष्ण मिशन में क्रिसमस मनाया जाता है। 
दूसरी मुश्किल व्यावहारिक राजनीति की है। खुद भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार के खुले प्रोत्साहन से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सम्भल में आज भी हिंदुत्व की यही राजनीतिक टेक्नॉलोजी खुल कर इस्तेमाल की जा रही है। जाट समुदाय की किसान आंदोलनजनित नाराज़गी और जातियों के उभार की काट करने के लिए अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक बार फिर से हिंदूकरण न हुआ तो 2022 के विधानसभा चुनाव से शुरू हुई पराजय 2029 के लोकसभा चुनाव तक पहुंच सकती है। इसलिए भागवतजी योगी सरकार को सम्भल में सर्वे-खुदाई और चालीस साल से बंद पड़े सम्भलेश्वर महादेव की पुन:प्रतिष्ठा रोकने का सुझाव देने के लिए तैयार नहीं हैं। 
तीसरी मुश्किल भागवतजी के वक्तव्य पर हुई अनगिनत हिंदुत्ववादी प्रतिक्रियाओं की है। ज़ाहिर है कि सभी हिंदुत्ववादी संघ के स्वयंसेवक नहीं होते। एक्स के एक स्थापित उग्रदक्षिणपंथी हैंडिल (तकरीबन हर मामले में मोदी सरकार का समर्थक) पर लिखे कुछ वाक्य इसका स्पष्ट उदाहरण पेश करते हैं : ‘भागवतजी .... आपसे आग्रह है कि आप केवल अपनी बातें करें, हिंदुओं को कौन से मंदिर की बात उठानी है, किसकी नहीं, उस पर न बोलें। राममंदिर आस्था थी और सम्भल का हरिहर मंदिर घृणाजनित हो गया? आपको शत्रु में प्रेम की संभावना दिखती है तो आप दिखाइए। घर के किवाड़ खोलिये। हिंदुओं को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, वो आप हिंदुओं पर छोड़ दीजिए।’ यह प्रतिक्रिया शालीन किस्म की है। भागवतजी को बुरी तरह से ललकारने और झिड़कने वाली प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। 
इसी से जुड़ी हुई चौथी मुश्किल यह है कि संघ द्वारा हिंदुत्व का एकमात्र पंच बनने की दावेदारी पर यह पूरा प्रकरण एक बड़ा सवालिया निशान लगा देता है। जब बाल ठाकरे जीवित थे, तो वे संघ की इस इजारेदारी को चुनौती देते रहते थे। बाबरी मस्ज़िद ध्वस्त करने का श्रेय उन्होंने उस समय आगे बढ़ कर लिया था जब अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी इस श्रेय को लेने में दुविधाग्रस्त लग रहे थे। एक ज़माने में तो गोरखपीठ के महंत अवैद्यनाथ और उनके उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ भी संघ और भाजपा की लाइन मानने से इंकार करते रहते थे। हिंदुत्व के सम्भल-प्रकरण की पृष्ठभूमि में भी कल्कि पीठ के वे कर्ताधर्ता दिख सकते हैं जिनका संघ की कतारों से कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है। जिस तरह कभी सभी लोग किसी न किसी प्रकार के समाजवादी होते थे, उसी तरह अब ज्यादातर लोग किसी न किसी प्रकार के हिंदुत्ववादी होने लगे हैं। प्रश्न यह है कि इन तरह-तरह के नये-पुराने हिंदुत्ववादियों को संघ कैसे अनुशासित करेगा? कैसे उन्हें अपने बताये रास्ते पर चलने के लिए मज़बूर करेगा? देश की समस्त हिंदू आबादी को अपने स्वयंसेवकों में बदल देने का स्वप्न देखने वाले इस सौ साल पुराने संगठन के लिए पैदा हुई यह नयी चुनौती कुछ अलग ़िकस्म की साबित हो सकती है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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