गिरता रुपया और फाईव ट्रिलियन की अर्थ-व्यवस्था !
अमरीकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये की विनिमय दर 85 के आंकड़े को पार कर गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो 1 डॉलर खरीदने के लिए 85 रुपये चुकाने होंगे। अप्रैल में, यह ‘विनिमय दर’ 83 के आसपास थी। एक दशक पहले, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कार्यभार संभाला था, यह 61 के आसपास थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कई भाषणों में 5 ट्रिलियन इकॉनमी की खूब चर्चा हो रही है। वह पूरे आत्म विश्वास के साथ कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाना बिल्कुल संभव है। लेकिन जिस तरह से डालर के मुकाबले लगातार रुपया गिर रहा है, उसे देखकर 5 ट्रिलियन डॉलर (350 लाख करोड़ रुपये) इकॉनमी देश की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य अभी दूर दिख रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था अभी लगभग 3.8 ट्रिलियन डॉलर है।
रुपये में ऐतिहासिक गिरावट 19 दिसम्बर 24 को दर्ज की गई। भारतीय मुद्रा लुढ़क कर 85 रुपये प्रति डॉलर के नीचे बंद हुई। यह रुपये का अब तक का सबसे निचला स्तर है। अंतरबैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाज़ार में 19 पैसे की गिरावट के साथ रुपया 85.13 प्रति डॉलर (अस्थायी) पर पहुंचा। अमरीकी फेडरल रिजर्व के 2025 के अनुमानों में बदलाव के चलते उभरते बाज़ारों की मुद्राओं पर दबाव बढ़ा। डालर के 85 के पार जाने से चिंता बढ़ गई है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए नई चुनौती है। अमरीकी फेडरल रिजर्व के फैसले का असर दुनिया भर के बाज़ारों पर दिख रहा है। जब जब रुपया कमजोर होता है तो विदेशी निवेश पर इसका असर साफ नज़र आ सकता है। भारत में निवेश करने से निवेशक हिचकिचा सकते हैं। इसके पीछे की वजह यह है कि उन्हें लगता है कि भविष्य में रुपये का मूल्य और कम हो सकता है, जिसकी वजह से उन्हें नुकसान हो सकता है। इधर रुपये के कमजोर होते ही रुपये को मज़बूत करने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक कुछ कदम उठा सकते हैं। वे ब्याज दरें बढ़ा सकते हैं। इससे लोगों को लोन लेना महंगा पड़ेगा। कारोबार पर भी इसका असर पड़ता नज़र आ सकता है।
जानकारों के अनुसार डालर के मुकाबले रुपये में गिरावट अमरीकी फेडरल रिजर्व द्वारा अपनी नीतियों में बदलाव की वजह से ऐसा हुआ है। कोरोना के बाद दुनिया के अधिकतर देश मंदी की चपेट में आ गए थे। उससे उबरने के लिए सभी ने अपने-अपने तरीके से उपाय किए। अमरीकी फेडरल ने अपनी ब्याज दरों में कटौती कर उसे साढ़े चार प्रतिशत पर ला दिया है। इस तरह डालर की स्थिति मज़बूत हुई है। यह भी कहा जा रहा है कि जब से राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की विजय हुई है, निवेशकों को लगने लगा है कि वहां निवेश करना सबसे फायदेमंद है। इसलिए बहुत सारे निवेशकों ने भारत से पैसे निकाल कर अमरीका का रुख कर लिया है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार में भी छीजन दर्ज शुरू हो गई। पिछले कुछ समय तक डालर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट लगभग रुकी हुई थी। तब विशेषज्ञों ने कहना शुरू कर दिया कि सरकार ने विदेशी मुद्रा भंडार से डालर की निकासी करके रुपए की कीमत को रोक रखा है, मगर अब वह तरीका भी शायद काम नहीं आ रहा। अब डालर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट का असर व्यापार, पर्यटन, शिक्षा आदि पर पड़ेगा। भारत अपनी ज़रूरत का अधिकतर ईंधन तेल दूसरे देशों से खरीदता है। ऐसे में जब भी कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है, तो सरकार का खर्च बढ़ जाता है। इसके अलावा, दवाइयों के लिए कच्चा माल, खाद्य तेल, इलेक्ट्रानिक साजो-सामान आदि के लिए भी हम दूसरे देशों पर निर्भर हैं। विदेश पढ़ने गए विद्यार्थियों और पर्यटकों की जेब पर बोझ बढ़ जाता है। इसलिए रुपए की कीमत का गिरना चिंताजनक होता है।
सरकार द्वारा लगातार व्यापार घाटा पाटने के लिए कई विदेशी वस्तुओं के आयात पर रोक लगाने और देसी वस्तुओं को प्रश्रय देने की कोशिश की गई। इसका कुछ असर भी हुआ मगर फिर भी व्यापार घाटा कम नहीं हो पा रहा। खासकर चीन के साथ हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। यही नहीं, महंगाई पर काबू पाने के मकसद से रिजर्व बैंक ने लगातार रेपो दर को ऊंचा बनाए रखा है, मगर स्थिति यह है कि बाज़ार में पूंजी का अपेक्षित प्रवाह नहीं बन पा रहा। इसकी बड़ी वजह लोगों की आय में बढ़ोतरी न हो पाना है। पिछले कुछ समय से हमारी विकास दर और उसमें विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति संतोषजनक नहीं है। ऐसे में डालर की आवक कम हुई है। इस स्थिति में रुपए की कीमत घटना शुरू हो जाती है। भारत में यह सिलसिला लगातार बना हुआ है। इससे अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। सरकार अर्थव्यवस्था को पांच लाख करोड़ डालर तक ले जाने को संकल्पित है, मगर रुपए की गिरावट का रुख देखते हुए इसका भरोसा नहीं बन पाता। कुल मिलाकर यह कि अब सरकार को प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोत्तरी करना होगा। कृषि क्षेत्र पर उदारता का प्रदर्शन करना होगा और बेरोज़गारी की विस्फोटक स्थिति पर काबू करना होगा।