जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना अभी दूर की बात
केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का मामला एक बार फिर टाल दिया। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने से पहले सरकार द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक के बाद सरकार की ओर से प्रस्तावित विधायी कामकाज की जो जानकारी दी गई थी, उसमें जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा देने का मुद्दा नहीं था, लेकिन तब कहा गया था कि उसे बाद में शामिल किया जा सकता है। उस समय ‘एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा भी प्रस्तावित कार्यसूची में नहीं था, लेकिन उसे संसद में पेश कर दिया गया, मगर जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव नहीं लाया गया। केन्द्रीय मंत्री और जम्मू-कश्मीर के सांसद जितेंद्र सिंह ने इस मामले में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि सही समय पर जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल होगा और यह वादा सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है। अब सवाल है कि क्या वादा पूरा करने की कोई समय सीमा भी है? सवाल यह भी है कि सही समय कब आएगा? राज्य में विधानसभा का चुनाव हो गया, सरकार बन गई, चुनी हुई सरकार ने विधानसभा में राज्य का दर्जा बहाल करने का प्रस्ताव पारित कर दिया, उप-राज्यपाल ने उसकी मंज़ूरी भी दे दी फिर भी केन्द्र सरकार के लिए उचित समय नहीं आया। सरकार ने वहां चुनाव भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर करवाए थे, अब लगता है उसे राज्य का दर्जा देने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का इंतजार किया जाएगा।
यूसीसी कानून पर केन्द्र पीछे हटा
केन्द्र सरकार ने देश में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने का इरादा लगभग छोड़ दिया है। इस बारे में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक तरह से साफ कर दिया गया है कि सरकार इस संबंध में विधेयक नहीं लाएगी। उन्होंने संविधान पर दो दिन तक राज्यसभा में हुई चर्चा का जवाब देते हुए कहा कि भाजपा शासित राज्यों समान नागरिक संहिता का कानून लागू किया जाएगा। अमित शाह ने उत्तराखंड की मिसाल दी और कहा कि जिस तरह से उत्तराखंड में यूसीसी को लागू किया गया है, उसी तर्ज पर अन्य भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू किया जाएगा। इसका मतलब है कि एक-एक करके भाजपा शासित राज्यों की सरकारें यह विधेयक अपने यहां विधानसभा में पारित कराएंगी। भाजपा ने पिछले दिनों झारखंड विधानसभा चुनाव में वादा किया था कि उसकी सरकार बनी तो वह समान नागरिक संहिता कानून लागू करेगी और आदिवासियों को उससे बाहर रखेगी। कुछ दिन पहले जब उत्तराखंड में कानून लागू हुआ तब असम सरकार ने उसी ड्राफ्ट के आधार पर अपने यहां विधेयक लाने का ऐलान किया था। दिलचस्प बात यह है कि जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई कमेटी की सिफारिशों के आधार पर उत्तराखंड का कानून बना तो विधि आयोग के सदस्यों ने भी उस कमेटी के लोगों से मुलाकात की थी। तब कहा जा रहा था इसी मसौदे के आधार पर केन्द्र सरकार भी बिल लाएगी, लेकिन अब लगता है कि केन्द्र सरकार पीछे हट गई है।
रिज़र्व बैंक के नए गवर्नर की भूमिका
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर पद पर बैठाए गए संजय मल्होत्रा लगातार दूसरे नौकरशाह हैं। उनकी नियुक्ति इस बात का संकेत है कि केन्द्र्र सरकार भविष्य में आरबीआई से कैसी भूमिका की अपेक्षा रखती है। मल्होत्रा ने इस प्रतिष्ठित संस्था की कमान संभालने के तुरंत बाद जो कहा, उससे यह भी ज़ाहिर हो गया कि नए गवर्नर किस रूप में अपनी भूमिका को देखते हैं। मल्होत्रा ने कहा, ‘अब जबकि हम अमृत काल में प्रवेश कर रहे हैं, हमारी अर्थव्यवस्था जिस हाल में हैं, उसे और विकसित होने की ज़रुरत है, ताकि 2047 तक विकसित भारत का सपना साकार हो सके।’ लाज़िमी है कि ऐसे वक्तव्य आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक रंग लिए दिखे। सेंट्रल बैंकों (जिसे भारत में रिज़र्व बैंक कहा जाता है) की क्या भूमिका होनी चाहिए, इस पर सोच अक्सर टकराती रही है। लोकतांत्रिक देशों में सरकारों की अपनी सियासी एवं चुनावी प्राथमिकताएं होती हैं, जो कई बार अर्थव्यवस्था की बड़ी ज़रूरतों के खिलाफ चली जाती है। उस समय सेंट्रल बैंकों से उम्मीद रहती है कि वे शासक दल की ज़रूरत के मुताबिक चलने के बजाय अर्थव्यवस्था के बुनियादी तकाज़ों को प्राथमिकता देंगे। कम से कम 1990 के बाद से भारत में रिज़र्व बैंक की कमान पेशेवर गवर्नरों के हाथ में रही और उन्होंने अपेक्षाकृत स्वायत्त ढंग से फैसले लिए। मगर नरेंद्र मोदी सरकार के आने और शक्तिकांत दास के गवर्नर बनने के बाद से कहानी बदल गई है। अब नए गवर्नर ने जो संकेत दिए हैं, उससे शुरुआती धारणा तो यही बनी है कि रिज़र्व बैंक सरकार की मज़र्ी से काम करेगी।
सेना की गौरव गाथा से नफरत!
वैसे तो भारतीय सेना ने अपनी असाधारण बहादुरी, अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान से देश को गर्व करने के कई मौके दिए हैं, लेकिन अगर देश में आम लोगों से भी पूछा जाए कि भारतीय सेना का सबसे गौरवशाली क्षण कौन सा था, तो ज्यादातर लोगों का जवाब होगा, 1971 की लड़ाई, जिसमें पाकिस्तानी सेना के 96 हज़ार जवानों ने भारत के सामने समर्पण किया था। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी के पिस्तौल रख कर सरेंडर करने की तस्वीर आज भी रोमांचित कर देती है। यह तस्वीर एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है भारतीय सेना के शौर्य का, दक्षिण एशिया के भूगोल बदलने का और भारत के विश्व शक्ति बनने का। इस तस्वीर के घटित होने से दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश नामक देश का जन्म हुआ था और मज़हब के आधार पर भारत से अलग होकर बना पाकिस्तान अपाहिज हो गया था। पाकिस्तान का टूटना जिन्ना और सावरकर-गोलवलकर के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ की हार थी। इसीलिए यह गौरवशाली तस्वीर भारतीय थल सेनाध्यक्ष के कार्यालय के लाउंज में लगाई गई थी, लेकिन जिनका खुद का इतिहास गद्दारी, चापलूसी और कायरता का है, उन्हें देश का स्वर्णिम इतिहास कैसे पसंद आ सकता है? लिहाजा उस तस्वीर को हटवा दिया गया है और उसकी जगह मिथकीय परिकल्पनाओं वाली एक फूहड़ पेंटिंग लगा दी गई है। इस बेहूदा हरकत का युद्ध में भाग लेने वाले सेना के कई रिटायर्ड अफसरों ने विरोध किया है। उनका कहना है कि यह सेना के गौरवशाली इतिहास को दुनिया की नज़रों से दूर करने वाला फैसला है।
संविधान पर बहस बेमतलब रही
संविधान की 75वीं सालगिरह पर संसद में विशेष चर्चा का आयोजन तय हुआ, तो सामान्य स्थितियों में यही अपेक्षा होती कि इस संविधान के तहत 75 साल के अनुभवों पर संसद में गम्भीरता से मंथन होगा। इस दौरान वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था की उपलब्धियों और नाकामियों का ठोस आकलन किया जाएगा ताकि भविष्य को बेहतर बनाने पर विचार-विमर्श हो सके, लेकिन यह सामान्य समय नहीं है। इसमें संविधान भी सियासी मुद्दा है। पक्ष और विपक्ष में होड़ यह बताने की है कि किसने संविधान की भावना का ज़्यादा उल्लंघन किया है। दोनों सदनों में हुई चर्चा पर यह सियासी होड़ ही हावी रही। संविधान की तारीफ अनेक संदर्भों में इसके अयथार्थ महिमामंडन की आम होड़ और उन कसौटियों पर दूसरे पक्ष को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति से संसदीय बहस उबर नहीं पाई। कहा जा सकता है कि संविधान पर किसी सार्थक चर्चा की उम्मीद संसद से करने का कोई फिलहाल आधार नज़र नहीं आता। अगर सचमुच भारतीय संविधान के अनुभवों और आज उसके सामने उपस्थित हुई चुनौतियों पर सार्थक बात करनी है, तो यह दायित्व शायद बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज को ही उठाना होगा। संविधान कोई धर्म ग्रंथ नहीं होता, जिसकी आलोचनात्मक समीक्षा न की जाए। वह वक्त के तकाज़ों के अनुरूप बना रहे, इसलिए आवश्यक है कि उसके हर पहलू पर हमेशा सारगर्भित चर्चा करते हुए अधिकतम आम सहमति हासिल की जाए। मगर आज ऐसी चर्चाएं नागरिक समाज में भी गायब हैं। नतीजतन संविधान को लेकर मिथकों की भरमार हो गई है। संसदीय बहस उन मिथकों में ही उलझी रही।