संसद में भाषा का गिरता स्तर, बढ़ते हंगामें और घटता कामकाज
यह जानने के लिए सचमुच किसी राकेट साइंस की ज़रूरत नहीं है कि कैसे हमारी संसद का स्तर लगातार गिरता जा रहा है? संसद के कामकाज के दिन कम हो रहे हैं, जो दिन हैं वे भी लगातार हंगामें में व्यर्थ हो जाते हैं, तथ्यों और संदर्भों की दृष्टि से तो संसद की बहसों का स्तर गिर ही रहा है, भाषा और आपसी लिहाज की दृष्टि से भी संसद के सदन भयावह होते जा रहे हैं। 20 दिसम्बर 2024 को सम्पन्न शीत सत्र को ही लें। 25 नवम्बर से शुरू हुए इस सत्र में कुल 70 घंटे से ज्यादा का व्यवधान हुआ,जिसमें 65 घंटे का नुकसान तो केवल अंतिम पांच दिनों में हुआ। 19 दिसम्बर को हुई झड़प के बाद तो स्थिति इतनी बिगड़ गयी कि सत्र के अंतिम 72 घंटों में से 65 घंटे 15 मिनट का समय हंगामे की भेंट ही चढ़ गया। संसद के शीत सत्र के आखिरी चरण में नियम 377 के तहत 397 ऐसे मुद्दे उठाए गए जिनका सदन के मौजूदा सामान्य कामकाज से सीधा रिश्ता नहीं था, लेकिन संसद में ऐसे मुद्दे इस नियम के तहत कोई भी सांसद, स्पीकर की अनुमति से उठा सकता है। इसलिए इन्हें सदन के कीमती समय को बर्बाद करने का मौक़ा मिल गया। इससे ऐसा हुआ कि सामान्य कामकाज की स्थिति ही नहीं रही, इसलिए अंतत: सत्र को ‘साइने डाई’ (अनिश्चित काल के लिए समाप्त) कर दिया गया।
अगर हम अपनी संसद को जिगासावश कुछ सामान्य सवालों की कसौटी में कसें मसलन देश की संसद साल में कितने घंटे काम करती है ? कामकाज के लिहाज से भारतीय संसद का प्रदर्शन दुनिया के दूसरी देशों की संसद के मुकाबले कहां आता है? क्या भारतीय संसद में कामकाज की प्रवृत्ति लगातार घट रही है? आखिर संसद के संचालन का कितना खर्च आता है? और यह भी कि भारतीय संसद लगातार प्रदर्शन के लिहाज से पतन की राह में क्यों है ? इन सवालों पर अगर रिसर्च करेंगे तो हैरान रह जायेंगे क्योंकि हम करीब करीब सभी सवालों में बहुत निचले पायदान में आते हैं। मसलन अगर यह सवाल लें कि दुनिया के अन्य देशों की संसदें साल में कितने घंटे काम करती हैं? तो चैट जीपीटी या विकीपीडिया से पता चलेगा कि संसद के कामकाज के घंटों में विभिन्न देशों के सामने हमारी क्या स्थिति है। उदाहरण के लिए हम ब्रिटेन को लें तो यहां की संसद यानी हाउस ऑफ कामंस में औसतन सालाना 1400-1500 घंटे काम होता है। अमरीका की संसद, अमरीकी कांग्रेस (हाउस और सीनेट) को लें तो इससे भी साल में लगभग 1500-1600 घंटे काम होता है। इसी तरह जर्मनी की संसद बुंडेसटाग साल में लगभग 900-1000 घंटे काम करती है। जबकि हमारी यानी भारतीय संसद साल में औसतन 60-70 दिन यानी 300-350 घंटे काम करती है। इसमें भी हम उन घंटों को नहीं गिन रहे जो पक्ष-विपक्ष की जिद के चलते जाया हो जाते हैं।
अगर पिछले 5-10 साल के औसत को देखें तो संसद के कामकाज के इस औसत समय का भी 50 से 60 फीसदी हंगामों, गतिरोध आदि में बर्बाद हो गया है और बचे हुए समय में जो संसदीय बहसें हुई हैं, उनमें भी भाषा का जो स्तर रहा है,खालिस आरोप-प्रत्यारोप का जो हिस्सा रहा है, उस सबके हिसाब से तो हमारी संसद बाकी देशों की संसदों के मुकाबले 25 फीसदी भी काम नहीं करती जबकि हमारी संसद को इन देशों की संसदों के मुकाबले कम से कम 4 से पांच गुना ज्यादा काम करने की ज़रूरत है। क्योंकि हमारे देश के नागरिकों की समस्याएं इन देशों के नागरिकों के मुकाबले सैकड़ों गुना ज्यादा हैं। अगर हम अपने देश की संसद की कार्य उत्पादकता को अन्य देशों की संसदों की कार्य उत्पादकता से तुलना करें तो नतीजा क्या होगा, इसका अंदाज़ा हमारी संसद के साल 2023-24 की उत्पादकता से लगा सकते हैं जो कि लोकसभा की करीब 45 से 50 फीसदी है,जबकि राज्यसभा की कार्य उत्पादकता सिर्फ 40-45 फीसदी है। इसके विपरीत अमरीका,ब्रिटेन,जर्मनी और जापान आदि कि संसदों की कार्य-उत्पादकता औसतन 85 से 90 फीसदी है। ज़ाहिर है इन देशों की संसदों में हंगामे कम,काम ज्यादा होते हैं और विधेयकों पर चर्चा जमकर होती है।
भारत में विधायी प्रक्रिया पर चर्चा का समय लगातार घट रहा है। यह बेहद चिंता का विषय है। लेकिन हमेशा से इतनी खराब स्थिति नहीं थी। 1950-60 के दशक में संसद में औसतन सालाना 120-140 दिन काम होता था जबकि 2020 के दशक में यह घटकर औसतन 60-70 दिन पर आ गया है। सवाल है समस्या क्या है ? दरअसल विधायी सत्र हंगामे के कारण बाधित हो रहे हैं। इसलिए कई विधेयक चर्चा के बिना ही पास हो जाते हैं या पास करा लिए जाते हैं। सबसे खतरनाक बात यह हो रही है कि बजट पर चर्चा का समय लगातार कम हो रहा है। संसद में हंगामा होना कोई गलत बात नहीं है, लेकिन सिर्फ हंगामा खड़ा करना मकसद नहीं होना चाहिए। क्योंकि भारत की जीडीपी आंकड़ों में कितनी ही बढ़ गयी हो, लेकिन हमारे पास दुनिया की सबसे ज्यादा जनसंख्या का जो बोझ है, उस लिहाज से हमें अभी बहुत दिन तक बुनियादी सुविधाओं से ही जूझना है। ऐसे में संसद का भारी-भरकम संचालन का खर्च गरीब भारतीयों पर अमीर बोझ है। भारतीय संसद के संचालन का औसतन खर्च 1000 करोड़ रुपये सालाना है। इस लिहाज से एक दिन का खर्च करीब 2.5 करोड़ से 3 करोड़ रुपये बैठता है। ऐसे में अगर सत्र बाधित होता है तो यह भारी-भरकम पैसा व्यर्थ चला जाता है।
सवाल है भारतीय संसद का प्रदर्शन इस कदर गिरता क्यों जा रहा है ? इसका कारण राजनीतिक ध्रुवीकरण है। विपक्ष और सत्तापक्ष के बीच सार्थक संवाद की कमी है। हंगामा और वॉकआउट को हमने बहस और चर्चा के बजाय ताकत दिखाने का सबसे बड़ा हथियार मान लिया है। हमारी प्राथमिकताओं में बदलाव होना चाहिए। विधायी चर्चा के बजाय राजनीतिक बयानबाजी को महत्व देने से बचा जाना चाहिए। संसद के सत्र लगातार छोटे होते जा रहे हैं, इन्हें बढ़ाया जाना चाहिए। सबसे ज़रूरी बात कि इस सबकी पहल सत्तापक्ष से होनी चाहिए। उसे बड़ा दिल दिखाना चाहिए। याद रखिये भारतीय संसद का प्रदर्शन लोकतंत्र की गुणवत्ता पर सीधा असर डालता है। यदि सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो यह प्रवृत्ति भविष्य में और गंभीर हो सकती है। अगर एक बच्चे को पालने में एक पूरा गांव लग जाता है, तो लोकतंत्र को बनाए रखने में सत्ता पक्ष और विपक्ष की सार्थक भूमिका क्यों नहीं होनी चाहिए? इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा है, क्योंकि लोकतंत्र के असफल होने की शुरुआत इसकी संस्थाओं की खराब सेहत से होती है, खासकर सत्ता पर नियंत्रण रखने के लिए बनाई गई संस्थाओं की सेहत गिरने से। हमारी कल्पना में संसद का उद्देश्य चाहे जो भी हो, संविधान में इसे एक प्रतिनिधि, कानून बनाने वाली, जवाबदेही चाहने वाली संस्था के रूप में ही परिकल्पित किया गया है। जबकि आज यह इनमें से किसी भी काम को ठीक से करने के लिए संघर्ष कर रही है।
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