चुनावी जीत का नया फार्मूला : महिलाओं को लुभाओ, सरकार बनाओ !
देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव की घोषणा सन्निकट है। जनमन को हर्षाने वाले लोकलुभावन चुनावी वादों का बाज़ार खुलने वाला है। आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को प्रति माह 2100 रुपये देने का वादा किया है, भाजपा भी तैयारी में है, कांग्रेस भी पीछे नहीं रहने वाली। दिल्ली में लगभग डेढ़ करोड़ से अधिक मतदाताओं में से 70 लाख महिला मतदाता हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 70 में से अनधिकृत कालोनी व झुग्गी बस्तियों की अधिकता वाली 30 विधानसभा क्षेत्रों में महिला मतदाताओं का मत प्रतिशत पुरुषों से अधिक था, यह इनकी वोटिंग के प्रति बढ़ती रुझान और जागरूकता के साथ यह भी बताता है कि इनको लुभाने वाला संख्याबल में बाजी मार ले जाएगा। मतदाता को लुभा, ललचाकर मताखेट करना लोकतंत्र का कोई नया शगल नहीं है पर सियासी कामयाबी में इसके हालिया कमाल ने विगत दस सालों से इसे बतौर अमोघ मंत्र स्थापित कर दिया है। मुख्यतया इसका ध्येय केंद्र महिलाएं होती हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का आकलन है कि भाजपा यदि किंचित हार की आशंका वाली चुनावी जंग भी जीत जा रही है, तो इसके पीछे बड़ी वजह महिला मतदाताओं का समर्थन है।
प्रधानमंत्री ने बीते बरस महिला दिवस के मौके पर स्वीकारा था कि महिला मतदाता उनकी ढाल हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त कहते हैं कि देश में कम से कम 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाता अधिक हैं। महिलाएं सामाजिक राजनीतिक तौर पर दशकों से उपेक्षित रही हैं। नए दौर में कम से कम नए माध्यमों पर पार्टियों का प्रचार देखने सुनाने और वोट देने के प्रति उनकी सक्रियता बढ़ी है। संख्याबल के अलावा एक दशक पहले से महिलाओं के बदलते वोटिंग पैटर्न और उनके बढ़ते मतदान प्रतिशत को देखते हुए पार्टियों ने इस कारगर माने जाने वाले लोकलुभावन अस्त्र का रुख उनकी ओर मोड़ दिया है। लोकसभा समेत झारखंड हो या छत्तीसगढ़, राजस्थान हो, मध्य प्रदेश अथवा हिमाचल या बिहार। पिछले कई विधानसभा चुनावों में महिलाओं को लुभाने में कामयाब योजनाओं ने सियासी दलों को सत्ता दिलाई सो देश के 36 में से एक तिहाई राज्य या संघीय क्षेत्र देश की करीब 67 करोड़ महिलाओं के करीब पांचवें हिस्से को लुभाकर अपनी ओर करने के लिये उनसे संबंधित योजनाओं पर हर साल 2 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। महिलाओं के लिये राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखे, उनकी स्थिति बेहतर बनाने, उनके उत्थान के लिये दूरदर्शी योजनाएं, सघन कार्यक्रम, व्यापक जन अभियान चलें, वे सफल हों।
हर देशवासी की यह कामना होगी परंतु वर्तमान में यह सब महज महिला मतों को आकर्षित करने के उद्देश्य से होते देख न सिर्फ इसके सोद्देश्यपूर्णता पर संदेश उपजता है बल्कि दूरगामी तौर पर इसके आर्थिक, सामाजिक दुष्परिणामों की आशंका भी दिखती है। यहां तक कि नाकामी और वादाखिलाफी के भी कुछ मामले सामने हैं। महाराष्ट्र में चुनाव से ठीक पहले, महायुति गठबंधन की सरकार ने महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये देने की घोषणा की। उसको अप्रत्याशित चुनावी सफलता मिली। कई सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने जिन सीटों पर सात हज़ार के आसपास मतों से जीत हासिल की उन पर महिला मतदाताओं की संख्या में भी इतने की ही बढ़ोतरी आंकी गई। साफ है कि महिलाओं ने ही भाजपा और उसके गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाई। झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने मइया सम्मान योजना के तहत हर महीने 2500 रुपये महिलाओं को देने के लिए कहा और चुनाव जीत गये। बिहार में चुनाव दूर हैं लेकिन तेजस्वी यादव ने घोषणा कर दी है कि बिहार चुनाव जीतते ही वे महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देंगे। ममता बनर्जी ने 2021 के विधानसभा चुनाव में हर परिवार की महिला मुखिया को नकद रुपये देने का वादा किया और चुनाव जीतीं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी प्यारी बहना सम्मान निधि के तहत महिलाओं को 1500 रुपये बांटे और सरकार बनाने में कामयाबी पायी। आप ने पंजाब में इस फार्मूले को अपनाया, वादा नहीं निभाया पर सरकार बनाई।
भाजपा भी इसमें पीछे नहीं रही। मध्य प्रदेश की लाडली बहना को आज भी गेमचेंजर माना जाता है। कर्नाटक सरकार ने लक्ष्मी योजना चला रखी है तो तमिलनाडु में कलैगनार मगलीर उरीमई स्कीम चल रही है। कई दूसरे राज्यों में अलग-अलग नामों से महिला मतों को लुभाने के अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं, जो ज्यादातर गरीब, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं के बारे में हैं तो कुछ इन से इतर, युवतियों, सद्य प्रसूता और वृद्धाओं के लिये भी हैं। सवाल यह है कि इनका राजनीतिक, सामाजिक उद्देश्य क्या है? सरकारों का दावा है कि इन योजनाओं से देश या संबंधित राज्य में महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी, उनमें जागरूकता आयेगी, आर्थिक सबलता बढ़ेगी, स्वास्थ्य तथा शैक्षिक स्तर सुधरेगा, जीवन आसान होगा, वे चुनाव प्रक्रिया का हिस्सा बनेंगी, उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा। महिला मतदाताओं की संख्या में वृद्धि ने पार्टियों को महिलाओं की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के प्रति अधिक संवेदनशील होने पर मजबूर तो किया है लेकिन राजनीतिक दलों की ओर से महिला मतदाताओं के लिए व्यक्त चिंता कल्याणकारी, परोपकारी नहीं है।
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