‘एक देश एक चुनाव बिल’ का कच्च-सच्च

आज के दिन ‘एक देश, एक चुनाव’ के मामले पर संसद में विवाद इतना तीव्र हो गया कि केन्द्र सरकार इसके  निपटान के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) बनाने के लिए मजबूर हो गई, जिसकी पहली बैठक 8 जनवरी, 2025 को हो रही है। यह भी तय हो चुका है कि यह समिति आगामी संसदीय सत्र के अंतिम सप्ताह के पहले दिन तक अपनी रिपोर्ट भेज देगी। पाठक इस का कच्च-सच्च जानने के लिए उत्सुक होंगे। विपक्षी पार्टियां इस प्रस्तावित बिल को उस संविधान के लिए खतरा महसूस करती है,  
 जिसमें अन्य के अतिरिक्त महात्मा गांधी तथा बी.आर. अम्बेदकर का विशेष योगदान रहा। इस संविधान की जड़े स्वतंत्रता संग्राम से भी जुड़ी हुई हैं। 
याद रहे कि बी.आर. अम्बेडकर को प्ररूप समिति का चेयरमैन बनाने में महात्मा गांधी का विशेष हाथ था, जिन्होंने प्ररूप तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, परन्तु प्ररूप समिति की बिल्कुल आज़ाद हस्ती नहीं थी। संविधान के प्ररूप को कईर् विषय समिति की सलाह एवं सिफारिश के अनुसार विचार किया गया, संशोधन हुअए एवं अंत में इसे व्यापक संविधान सभा ने अपनाया था। 
संविधान पर हुई चर्चा में नेहरू ने सबसे अहम भूमिका निभाई थी। संविधान निर्णाण की प्रक्रिया 13 दिसम्बर, 1946 को नेहरू द्वारा उद्देश्य एवं लक्ष्यों बारे प्रस्ताव पेश करने से शुरू हुई, जो बाद में प्रस्तावना बनी। लामिसाल उद्देश्य जो प्रस्ताव ने परिभाषित किए, उसमें भारत को एक स्वतंत्र स्वायत्त गणराज्य घोषित किया गया, जिसमें सभी शक्तियां ‘लोगों द्वारा आएंगी’, भारत के सभी लोगों को सामाजिक, अर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की गारंटी, समानता, अवसरों के पक्ष से, कानून के समक्ष प्रकटावे एवं विचारों की स्वतंत्रता, आस्था, विश्वास, पूजा, कामकाज, जुड़ाव तथा क्रिया की स्वतंत्रता, कानून एवं सार्वजनक नैतिकता के दायरे में दी गई।
प्रस्तावना के उद्देश्यों में प्राथमिक सैद्धांतिक ढांचा है, जिसने हमारे विलक्षण संविधान को स्थिरता एवं दृढ़ता दी है। इसका श्रेय अधिकतर संविधान सभा की चर्चाओं में बनाए गए दृष्किणों को जाता है। मौलिक अधिकारों तथा बालिग अधिकारों पर आधारित संविधानवाद ने इतिहास, आस्था तथा पहचान से नाता तोड़, इसकी बजाय औपनिवेशवाद विरोधी जन राष्ट्रवाद को संविधान में अहम स्थान दिया। 19वीं सदी तथा बाद के वर्षों में तथा 20वीं सदी की शुरुआत में उठीं औपनिवेशवाद विरोधी एवं जाति विरोधी समाज सुधार लहरों ने संविधान बनाने की प्रक्रिया में भूमिका निभाई।
भारत द्वारा एक ऐसे संविधान को आपनाना, जिसमें प्रत्येक नागरिक के लिए राजनीतिक समानता समाये हुए थी, आधुनिक संसार की बहुत बड़ी मानवीय एवं राजनीतिक उपलब्धि थी। हालांकि, इन वर्तमान परिस्थितियों में उस समय स्थायी मान कर नहीं चला जा सकता, जब राजनीति ने इस प्रकार के बहुसंख्यकों का भाव पैदा कर दिया है, जो ‘विशेष पहचान’ पर आधारित हैं। जेपीसी के 39 सदस्य में 9 लोकसभा से और 12 राज्यसभा से हैं और इसके अध्यक्ष भाजपा नेता पी.पी. चौधरी हैं। आशा है कि यह समिति भारत के सभी नागरिकों के लिए राजनीतिक समानता वाले इस स्थान को मुख्य रख कर ही अपनी रिपोर्ट देगी।
साहिबज़ादों एवं माता गुजरी की कुर्बानी
यह समय साहिबज़ादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, ज़ोरावर सिंह, फतेह सिंह तथा माता गुजरी जी की अद्वितीय कुर्बानी सहित श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी के बेमिसाल योगदान को याद करने का है। कोटि कोटि प्रणाम।
गुरशरन सिंह की याद में नाट्य उत्सव
इन दिनों में सुचेतक रंगमंच द्वारा गुरशरण सिंह की याद में नाट्य उत्सव रचा के पंजाबी नाटककारी तथा मंचन की उस हस्ती को याद किया गया है, जिसने इस कला को गांवों की गलियों-मुहल्लों तक पहुंचाया। मैं इसकी पेशकारी के दो रंग ‘जिन्हां लाहौर नहीं देखिया’ तथा ‘रीटेक ज़िन्दगी’ गत सप्ताह पंजाब कला परिषद के रंधावा आडिटोरियम में देखे हैं। लाहौर से संबंधित नाटक अस़गर वजाहद की रचना पर निर्मित किया गया है, जो 1947 के देश विभाजन के दुखांत को देखने तथा स्वीकार करने का प्रयास मात्र है। ‘रीटेक ज़िन्दगी’ दम्पति जीवन में समय-समय पर आ रही दरारों की इतनी खूबसूरत पेशकारी है कि प्रत्येक जोड़ी इसका आन्द लेती भी है, निभाती भी है। दोनों नाटकों के मंचन की योजनाबंदी शबदीश जोड़ी की है। पृष्ठिभूमि की गायिका के रूप में भी तथा मंच वृत्तांत में भी। यहां सिर्फ धालीवाल का अभिनय (जिन्हां लाहौर नहीं देखिया) तथा लक्खा लहरी की रचनाकारी और निर्देशन (रीटेक ज़िन्दगी) को शबदीश के काविक शब्द आवश्यक अर्थ प्रदान करते हैं। निम्न दर्ज अंतिका के चुनिंदा शब्द इसकी पुष्टि करेंगे। 

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