मोहन भागवत के भाषण के पीछे की रणनीति क्या है ?
समुंदर ये तेरी ़खामोशियां कुछ और कहती हैं।
मगर साहिल पे टूटी कश्तियां कुछ और कहती हैं।
(खुशबीर सिंह शाद)
आर.एस.एस. मुखी मोहन भागवत का बयान है कि हर दिन मंदिर-मस्जिद विवाद नहीं उठाया जाना चाहिए। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोग मानते हैं कि वे ऐसे मुद्दे उठा कर हिन्दुओं के नेता बन जाएंगे।
इस बयान के बाद एक हड़कंप मचा हुआ है, जैसे संघ प्रमुख और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और यू.पी. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बीच कोई ‘जंग’ छिड़ गई हो। दूसरे क्रम के भाजपा नेता और कई अन्य हिन्दू संगठनों के साथ संबंधित नेताओं के समर्थक भागवत पर हमलावर हैं। यहां तक कि आर.एस.एस. के अपने लोग भी इसका विरोध कर रहे हैं।
हालात यह हैं कि संगीत रागी जैसे आर.एस.एस. के विद्वान प्रवक्ता इस ब्यान को किस प्रकार दरकिनार और अर्थहीन करते हैं, यह देखने वाली बात है। रागी कहते हैं कि भागवत जी ने मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने से रोका है। हमारे 33 करोड़ देवता हैं। हम उनके मंदिर तो खोज ही सकते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया में जो जोरदार बहस चल रही है, वह तो यहां तक प्रभाव दे रही है जैसे संघ और भाजपा में संबंध-विच्छेद हो सकता है या संघ ही दोफाड़ होने की और बढ़ सकता है, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं। मोहन भागवत ने ऐसे ब्यान पहली बार नहीं दिये। वह पहले भी ऐसे बयान दे चुके हैं और समय आने पर वह इससे 180 डिग्री उल्ट बयान देने में भी देर नहीं लगाते। हमारी समझ के अनुसार यह बयान कई निशाने एक ही तीर से ढूंढने के लिए दिया गया है। इस बार इस बयान का जोर-शोर से विरोध और उसका प्रचार (मेन स्ट्रीम) के मीडिया पर भी होना यह प्रभाव बनाता है कि इसके परिणाम से भाजपा और आर.एस.एस. नेतृत्व पूरी तरह अवगत है। वैसे भी चाहे निचले स्तर पर भागवत का जितना चाहे विरोध हो रहा हो, पर यह देखने वाली बात है कि जब भागवत कुछ सख्त बोलते हैं, उस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चुप रहते हैं, और जब मोदी बोलते हैं तो उस समय भागवत कुछ नहीं बोलते। हम समझते हैं कि इस बहस का वास्तविक लक्ष्य आर.एस.एस. की हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ने की एक सार्थक कोशिश है। वैसे भी एक भी पत्रकार या जानकार यह दावा नहीं कर सकता कि भाजपा और आर.एस.एस. की हिन्दू राष्ट्र की ओर बढ़ने की रणनीति क्या है? ऐसे बयान किसी उद्देश्य के बिना नहीं होते।
इस समय इस बयान पर मचा हड़कम्प भाजपा के लिए फौरी तौर पर इसलिए फायदेमंद है कि इस बहस ने गृहमंत्री अमित शाह द्वारा संसद में डा. अंबेडकर के बारे में की गई टिप्पणी पर कांग्रेस और विपक्षी दल द्वारा डाले जा रहे शोर को पीछे धकेल दिया है। यदि यह लहर चर्चा में रहती है तो भाजपा को दलितों से दूर करने का कारण बन सकती थी, जो देश में 17 से 18 प्रतिशत हैं। इस रणनीति को चुनाव विश्लेषक अमिताभ तिवाड़ी के नज़रिये से भी समझा जा सकता है। वह कहते हैं कि देश में कट्टर हिंदुत्व के हिमायती करीब 27 प्रतिशत हैं, जो भाजपा समर्थक हैं और आर.एस.एस. यह समझ चुका है कि नरम हिंदुत्व के हिमायतियों के वोट जो दलितों सहित 23 प्रतिशत हैं, को साथ लिए बिना अगले चुनाव जीतना और हिन्दू राष्ट्र बनाना संभव नहीं। गौरतलब है कि यह बयान भागवत ने भारत के विश्व गुरु बनने संबंधी भाषण में दिया है। यह अच्छी तरह समझते हैं कि देश में शान्ति और सद्भावना के संदेश बिना भारत विश्व नेता नहीं बन सकता। संघ का अंतिम निशाना हिन्दू राष्ट्र तभी बन सकता है यदि देश में बसते 20 प्रतिशत अल्पसंख्यक विरोध में न खड़े हों। भाजपा एवं आर.एस.एस. सिखों के साथ रिश्ते ठीक रखने की कोशिश तो करते ही रहते हैं पर देश के 20 करोड़ मुसलमानों को साधे बिना यह मकसद पूरा नहीं हो सकता। समझा जा सकता है कि इस लक्ष्य के लिए एक तरफ भाजपा और उसके समर्थक कट्टर हिन्दूवादी संगठन मुसलमानों का मनोबल तोड़ने की नीतियों पर चलते हैं, और दूसरी तरफ संघ मुखी उनको साधने के लिए ही सहानुभूतपूर्ण व्यवहार अपना रहे हैं। वैसे भी देश में बढ़ती कट्टरता दुनिया भर में भारत के खिलाफ आलोचना को उभार रही है और मोहन भागवत हमेशा भाजपा की परेशानियां दूर करने के लिए हर संभव कोशिश करते रहते हैं।
इस सब कुछ के बावजूद भागवत के इस बयान की प्रशंसा करनी बनती है पर सिखों के लिए खास तौर पर एक अल्पसंख्यक के तौर पर इस ब्यान को ‘जी आयां’ कहते हुए भी इस पिछली रणनीति को समझना ज़रूरी है पर अफसोस है कि सिख राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व के पास भविष्य के अगले 10-20 सालों या 50 सालों के लिए सोचने के लिए समय ही नहीं है। हां, यह पक्का है कि शोर जितना चाहे डालते जाएं, न तो भाजपा और आर.एस.एस. में कोई संबंध-विच्छेद होगा और न ही आर.एस.एस. में कोई विभाजन ही होगा।
लगता है पेच-ओ-ताब के आगे कुछ और है।
इस शोर-ए- इऩ्कलाब के आगे कुछ और है।
(खुर्शीद तलब)
पुलिस मुकाबले पर उठते सवाल
जीवन देना जिसके बस में
लेना भी अधिकार उसी का,
तुम किस हक से ब़ाग-ए-दुनिया
की कलियों को नोच रहे हो?
विश्वभर के 144 देशों में फांसी या सज़ा-ए-मौत देना वर्जित हो चुका है। इसका साफ भाव है कि दुनिया के मुहज्जब लोग यह समझते हैं, कि किसी को मार देने का अधिकार उनके पास नहीं है। वास्तव में अपराध करने वाले के लिए किसी सज़ा इसलिए की जाती है कि वह और उसके जैसे अन्य लोग यह समझ सकें कि उन्होंने जो किया, वह ठीक नहीं था। लेकिन यदि मार दिया जाता है, तो उसके सुधरने की सम्भावनाएं भी उसके सुधरने की सम्भवनाएं भी उसके साथ ही खत्म हो जाती हैं, किन्तु ऐसी स्थिति किसी को उसके बेगुनाह नज़दीकियों के लिए सज़ा ज़रूर बन जाती है। वास्तव में किसी सज़ा का असल उद्देश्य अच्छे समाज का निर्माण होना चाहिए, और कुछ भी नहीं।
यह भूमिका पीलीभीत के पूरनपुर में एक कथित पुलिस मुकाबले में मारे गये तीन पंजाबी नौजवानों के बारे में बात करने के लिए लिखनी पड़ी है। बेशक हम नहीं कहते कि वे तीन नौजवान या उनके अन्य साथी थानों के बाहर खाली स्थानों पर किये गये कथित धमाकों के साथ नहीं जुड़े होंगे? यह तो जांच का विषय है। जिस तरह इस मुकाबले की कहानी सामने आई है, उस पर कई सवाल तो उठने ही हैं पर इस मुकाबले पर सवाल उठाने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि वे नौजवान ऐसे मार्ग की ओर आकर्षित क्यों हुए हैं? इसके तीन मुख्य कारण सामने हैं। पहला अनपढ़ता या कम पढ़े लिखे होना, दूसरा गरीबी और तीसरा कारण बेरोज़गारी है। इन तीनों में से पैदा हुआ चौथा कारण हो सकता है अच्छे जीवन का लालच मिलना कि आपको भारत से बाहर बसा दिया जाएगा, क्योंकि इस मुकाबले में मारे गये तीन नौजवान ही न वेषभूशा से, न चेहरे से और न ही उनकी पहली जीवन शैली से वे किसी लहर या सोच के साथ जुड़े हुए लोग लगते हैं। उनका ऐसे काम में जाने का स्पष्ट कारण उनकी बुरी आर्थिक और सामाजिक हालत में से निकलने का लालच ही होगा। हमारी सरकारों का फज़र् है कि वे ऐसे हालातों को ही खत्म करें न कि उन हालातों का शिकार हुए व्यक्तियों को। इस बात का इशारा उनके पंजाब से पूरनपुर की ओर जाने से भी मिलता है, क्योंकि पूरनपुर से नेपाल की सीमा सिर्फ 345 किलोमीटर की दूरी पर ही रह जाती है और ऐसे केसों में फंसे लोगों के लिए देश में से निकलने और आगे जाने के लिए नेपाल से अच्छा कोई और स्थान नहीं है।
समय का की सितम-ज़ऱीफी देखो कि जब एक तरफ अदालत 1992 में दो नौजवानों को झूठे पुलिस मुकाबले में मारे जाने की सज़ा एक अधिकारी सहित 3 पुलिस कर्मचारियों को देती है, उसी समय ही इस मुकाबले की खबर आ जाती है। हम बिल्कुल नहीं कहते कि यह मुकाबला झूठा है, पर कुछ सवाल ज़रूर हैं जो इस मामले की जांच की मांग करते हैं। वैसे तो भारत में पुलिस के हाथों मारे गये हर मामले पर मैजिस्ट्रेटी जांच होती ही है पर ऐसे मामले जो अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ जुड़े होने की जांच बड़े और ज्यादा विश्वासयोग्य अधिकारियों द्वारा होनी ज़रूरी है। सबसे पहले सवाल तो यह है कि पंजाब और उत्तर प्रदेश पुलिस दोनों की छवि झूठे पुलिस मुकाबलों के बारे द़ागदार है। दूसरा पंजाब पुलिस ने अभी तक इस बारे में सिर्फ एकतरफा बयान ही दिया है। इस बारे में विस्तार देने से क्यों बचा जा रहा है, जैसे मारे गये नौजवानों के पहले पहने कपड़ों और मरने के समय पहने कपड़ों का एक सा होने के बारे और कई और सवाल भी जवाब तो मांगते ही हैं। वैसे यह भी वर्णनीय है कि इन धमाकों का उद्देश्य क्या है क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि ये धमाके किसी को जानी नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं थे, क्योंकि ये थानों के बाहर खाली स्थानों पर किये गये थे। इस प्रकार लगता है कि ये नौजवान किसी विदेशी एजेंसी के प्रचार के हिस्से के तौर पर काम कर रहे थे। चाहे वह (सिख्स ़फार जस्टिस, जिसने इसकी जिम्मेदारी ली) हो या फिर कथित खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स हो या कोई अन्य एजेंसी, पर हमें तो यह डर सता रहा है कि कहीं धीरे-धीरे ऐसी घटनाएं और पुलिस मुकाबले पंजाब को एक बार फिर 1992 जैसे काले दौर की और न धकेल दें। इसलिए ज़रूरी है कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट स्यूमोटो (अपने-आप) इसका नोटिस लोकर इसकी जांच करवाये। 1992 की हालत पर पंजाबी के प्रमुख शायर गुरबचन गिल के इस टप्पे का ज़िक्र रूह को कंपा रहा है:
खंभ खिल्लरे ने कावां दे
रोक लओ निशाने-बाज़ीयां,
पुत्त मुक चले मावां दे।
-1044 गुरु नानक स्ट्रीट, समराल रोड़, खन्ना
मो-98168-60000