विपक्ष की परीक्षा में सफल नहीं हो सका ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ विधेयक
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के लिए विवादास्पद विधेयक के पेश होने से स्वीकृति से ज्यादा हंगामा मचा है। भाजपा इस पर बात करती रही है लेकिन अब इसे पेश करने के बाद इसे संसद की संयुक्त चयन समिति के पास भेज दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के अधूरे एजंडे को पूरा करने की जल्दी में हैं। उन्होंने पहले ही अयोध्या मंदिर का उद्घाटन कर दिया है और संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया है, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था।
लम्बे समय से प्रतीक्षित इस विधेयक का उद्देश्य 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना है, जिसमें लगभग एक अरब मतदाता हैं। इस विधेयक ने व्यापक बहस, महत्वपूर्ण रुचि और विभिन्न दलों के विरोध को जन्म दिया है। हालांकि एक साथ चुनाव कराने के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन कुछ सवालों के जवाब की ज़रूरत है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या मोदी के पास संसद में विधेयक पारित कराने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत है? क्या कोई राजनीतिक सहमति है? क्या विपक्ष इसमें शामिल होगा? क्या विधेयक का समय सही है? अधिकांश विपक्षी दल एक साथ चुनाव कराने के विचार को खारिज करते हैं। इनमें कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस और क्षेत्रीय तथा छोटी पार्टियां शामिल हैं। वे मुख्य रूप से राजनीतिक हिसाब-किताब बराबर करने और इस आशंका के कारण इसे खारिज करते हैं कि विधेयक से भाजपा को फायदा हो सकता है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पिछले साल एक साथ चुनाव कराने की सिफारिश करने वाली नौ सदस्यीय समिति की अध्यक्षता की थी और इसे ‘गेम चेंजर’ करार दिया था। 32 दलों ने इस अवधारणा का समर्थन किया और 15 ने इसे खारिज कर दिया। समिति ने यह भी सलाह दी कि केंद्र इस प्रस्ताव के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए एक समिति बनाये। साथ ही, सभी चुनावों के लिए एक संयुक्त मतदाता सूची होनी चाहिए ताकि मतदाता राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय चुनावों के लिए एक ही सूची का उपयोग करें।
पिछले कुछ वर्षों में चुनाव एक मानक विशेषता बन गये हैं, लेकिन ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ विधेयक में हमारी चुनाव प्रक्रिया को नया रूप देने की क्षमता है। विधेयक के समर्थकों का तर्क है कि यह अभियान लागत को काफी कम कर सकता है, प्रशासनिक संसाधनों पर दबाव कम कर सकता है और शासन को सुव्यवस्थित कर सकता है। यह अंतत: चुनावों की आवृत्ति को कम करके जनता को लाभान्वित कर सकता है, एक ऐसी संभावना जो आशावादी है।
भारत में चुनाव विभिन्न स्तरों पर होते हैं। पहला पंचायत, उसके बाद ज़िला स्तर, राज्य विधानसभा स्तर और अंत में राष्ट्रीय स्तर पर। वे अलग-अलग समय पर होते हैं, और सरकार इस प्रणाली को सुव्यवस्थित करना चाहती है। दिलचस्प बात यह है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। ऐतिहासिक रूप से, 1952 से 1967 तक एक साथ चुनाव होता था। विभिन्न सरकारों की समय से पहले बर्खास्तगी और विधानसभाओं के विघटन के परिणामस्वरूप चुनावों में देरी हुई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कई विपक्ष शासित राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा को सहयोगियों और मित्र दलों के समर्थन की आवश्यकता है। हाल ही में हुए 2024 के चुनावों के बाद भाजपा की लोकसभा में बहुमत से 40 सीटें कम थी और वह केवल जेडी (यू) और तेलुगू देशम की मदद से सरकार बना सकी। अधिकांश विरोधी दल एक साथ चुनाव कराने को अस्वीकार करते हैं, जिनमें कांग्रेस, वामपंथी दल, तृणमूल कांग्रेस और क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां शामिल हैं। यहां तक कि भाजपा में भी, विधेयक पेश किये जाने के समय 20 सांसद अनुपस्थित थे। कोविंद पैनल ने वोट को दो भागों में रखने का भी सुझाव दिया। पहला भाग लोकसभा और विधानसभा के लिए होगा और दूसरा भाग स्थानीय पंचायती राज चुनावों के लिए होगा। इस विधेयक के सामने महत्वपूर्ण संवैधानिक, कानूनी और राजनीतिक चुनौतियां हैं। (संवाद)