अमृत काल की अमृत उपलब्धि बने ‘एक देश, एक चुनाव’
नरेन्द्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने के मौके पर भाजपा ने ‘एक देश एक चुनाव’ के अपने चुनौतीपूर्ण संकल्प को लागू करने की बात कहकर राजनीतिक चर्चा को गरमा दिया है। भारत के लोकतंत्र की मजबूती एवं चुनावी प्रक्रिया को अधिक प्रासंगिक एवं कम खर्चीला बनाने के लिये ‘एक देश एक चुनाव’ पर चर्चा होती रही है। इसको लेकर भाजपा जिस तरह बेझिझक होकर तेजी से आगे बढ़ रही है, उससे अंदाजा लगाया जा रहा कि केंद्र को सहयोगी दलों का पूरा समर्थन मिल रहा।
दो बड़े दलों में से एक जेडीयू ने मोदी के ‘एक देश एक चुनाव’ वाले इरादे पर सहमति जता दी है। कहा गया कि राजग सरकार अपने वर्तमान कार्यकाल के भीतर इस महत्वपूर्ण चुनाव सुधार को लागू कराने को लेकर आशावादी है और उसके इस आशावाद में देश को एक नई दिशा मिल सकेगी। भारत की वर्तमान चुनावी प्रणाली में निहित कई चुनौतियों का समाधान करने के लिए ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा एक संभावित समाधान के रूप में उभरी है। शासन के सभी स्तरों- पंचायत, नगरपालिका, राज्य और राष्ट्रीय- में एक साथ चुनाव कराने से लागत (खर्च)-प्रभावशीलता और प्रशासनिक दक्षता से लेकर बेहतर शासन और नीति निरंतरता तक कई लाभ मिल सकते हैं। यह नये भारत, सशक्त भारत एवं विकसित भारत के संकल्प को आकार देने का मुख्य आधार बन सकता है एवं आजादी के अमृतकाल की एक अमृत उपलब्धि बनकर सामने आ सकता है।
भले ही स्पष्ट बहुमत के अभाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग की तीसरी पारी में बदलावकारी फैसले लेना उतना सहज नहीं रह गया है, जितना पहली-दूसरी पारी में नज़र आता था लेकिन भाजपा की सरकार इतनी भी कमजोर नहीं है कि अपने चुनावी वायदों एवं विकासमूलक कार्ययोजनाओं को लागू न कर सके। नरेन्द्र मोदी जैसा साहसी एवं करिश्माई नेतृत्व है तो उसके द्वारा देशहित की योजनाओं में आने वाले अवरोध वह दूर कर ही लेंगे। एक दशक की विकासमूलक कार्यशैली के बाद अब भी भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर अपनी योजनाओं को अंजाम तक पहुंचाने में जुटी है। भले ही भाजपा-सरकार कई मुद्दों पर यू-टर्न लेते हुए भी नज़र आई। बहरहाल, लोकसभा में पहले के मुकाबले कमजोर स्थिति होने के बावजूद खुद को साहसिक निर्णय लेने वाली पार्टी के रूप में एक बार फिर अपने एक मुख्य एजेंडे ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को आकार देने के लिये तत्पर हो गयी है। इसके लिए सरकार ने पक्ष-विपक्ष के सभी नेताओं से एक साथ आने का अनुरोध किया था। नि:संदेह, एक राष्ट्र, एक चुनाव के लिये भाजपा द्वारा नई पहल किए जाने के निहितार्थ राजनीति से ज्यादा राष्ट्रहित में है।
निश्चिय ही ‘एक देश एक चुनाव’ की योजना को लागू करना राजग के लिये बड़ी चुनौती होगी क्योंकि इस बार विपक्ष पहले के मुकाबले मजबूत भी है और एकजुट भी है। इसमें दो राय नहीं कि यह बात तार्किक है कि एक राष्ट्र, एक चुनाव का प्रयास शासन में सुनिश्चितता लाएगा। वहीं बार-बार के चुनाव खर्चीले होते हैं। दूसरे राज्य-दर-राज्य लंबी आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य भी बाधित होते हैं। साथ ही साथ शासन-प्रशासन व सुरक्षा बलों की ऊर्जा के क्षय के अलावा जनशक्ति का अनावश्यक व्यय होता है। विगत लोकसभा चुनावों में कुल सरकारी खर्च 6600 करोड़ रुपये आया था जो भारत जैसे विविधतापूर्ण विशाल देश को देखते हुए भले ही जायज कहा जाये, लेकिन बार-बार होने वाले चुनावों से होने वाले ऐसे भारी-भरकम खर्चे देश की अर्थ-व्यवस्था पर बोझ तो डालते ही है। भारत में भ्रष्टाचार की जड़ भी महंगी होती चुनाव व्यवस्था है क्योंकि जब करोड़ों रुपये खर्च करके कोई विधानसभा या लोकसभा का प्रत्याशी जनप्रतिनिधि बनेगा तो वह विजयी होने के बाद सबसे पहले अपने भारी खर्च की भरपाई करने की कोशिश करेगा। अत: असल में बात सम्पूर्ण चुनावी व्यवस्था के सुधार की होनी चाहिए। मगर इसकी बात करने पर सभी राजनैतिक दलों में एक सन्नाटा पसर जाता है। लेकिन पक्ष एवं विपक्ष को अपने राजनीतिक हितों की बजाय देशहित को सामने रखकर इस मुद्दे पर आम सहमति बनानी चाहिए। पारदर्शी व निष्पक्ष चुनाव के लिये एक साथ चुनावी मशीनरी तथा सुरक्षा बलों की उपलब्धता के यक्ष प्रश्न को भी सामने रखकर इस पर सकारात्मक रूख अपनाना चाहिए और इसके सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, भारत हमेशा से राजनीतिक विचारधाराओं, विविध संस्कृतियों और विशाल आबादी का मिश्रण रहा है। हर गुजरते चुनाव चक्र के साथ, राष्ट्र लोकतांत्रिक उत्साह का महाकुंभ देखता है, जहां लाखों लोग अपने वोट के अधिकार का प्रयोग करते हैं और अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। हालांकि, इस जीवंत लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बीच, विभिन्न स्तरों-स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय-पर चुनावों के समन्वय को लेकर बहस ने हाल के वर्षों में काफी जोर पकड़ा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने एक दशक के शासन एवं पिछले महीने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से किए गए अपने संबोधन में ‘एक देश, एक चुनाव’ की जोरदार वकालत की थी और कहा था कि बार-बार चुनाव होने से देश की प्रगति में बाधा उत्पन्न हो रही है। उन्होंने राजनीतिक दलों से लाल किले से और राष्ट्रीय तिरंगे को साक्षी मानकर राष्ट्र की प्रगति सुनिश्चित करने का आग्रह किया था। हाल में सम्पन्न लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा द्वारा जारी चुनाव घोषणा-पत्र में उसने ‘एक देश, एक चुनाव’ को प्रमुख वादों के रूप में शामिल किया था।
जब दुनिया के अनेक देशों में ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की परम्परा सफलतापूर्वक संचालित हो रही है तो भारत में इसे लागू करने में इतने किन्तु-परन्तु क्यों है? देश में इसे लागू करने से सरकार कुछ-कुछ समय बाद चुनावी मोड में रहने के बजाय शासन यानी विकास योजना पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकती है। इससे समय एवं संसाधनों की भी बचत होगी। एक साथ चुनाव कराने से मतदान प्रतिशत भी बढ़ेगा, क्योंकि लोगों के लिए एक साथ कई मत डालना आसान हो जाएगा। इन सब स्थितियों के साथ-साथ एक साथ चुनाव कराये जाने पर क्षेत्रीय पार्टियों को होने वाले नुकसान एवं अन्य स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा। क्योंकि एक आदर्श एवं सशक्त लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दलों के लिये समान अवसर उपलब्ध होना भी ज़रूरी है।