‘एक देश, एक चुनाव’ की सुगबुगाहट, राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ी हलचल

केन्द्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने एक बड़ा फैसला लेते हुए संसद का विशेष सत्र बुलाया है। केन्द्र के संसदीय मामलों के मंत्री प्रह्लाद जोशी ने बताया है कि संसद का विशेष सत्र 18 से 22 सितम्बर तक चलेगा। इसमें 5 बैठकें होंगी। उन्होंने कहा है कि अमृत काल के बीच संसद के विशेष सत्र में सार्थक चर्चा और बहस की उम्मीद है। यह दिलचस्प है कि इस सत्र का ऐलान ऐसे समय में हुआ है जब विपक्षी गठबंधन की तीसरी बैठक मुम्बई में हुई है। इसी बीच यह सुगबुगाहट ज़रूर है कि इस दौरान सरकार ‘एक देश-एक चुनाव’ बिल ला सकती है, अगर ऐसा होता है तो यह बड़ा कदम होगा। इस समय पक्ष हो या विपक्ष, दोनों में सुगबुगाहट है कि विशेष सत्र का मुख्य विषय यही होगा। इसी बीच केन्द्र   सरकार ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिए एक समिति का भी गठन कर दिया है। यह समिति पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित की गई है जिसके सदस्यों का भी जल्द ऐलान हो सकता है। इससे भी इस सुगबुगाहट को बल मिलता दिखाई दे रहा है ।
सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है इस बिल की टाइमिंग को लेकर। दरअसल इस साल के आखिर में ही राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में कयास लगाए जाने लगे कि क्या केन्द्र  सरकार पहले आम चुनाव करा सकती है? इस बात की चर्चा सियासी गलियारों में ज़ोर-शोर से हुए कि मोदी सरकार इस बार दिसम्बर में ही आम चुनाव करवा सकती है। इसे बल तब मिला, जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस संबंधी बात की।
दरअसल यह नया मुद्दा नहीं है। इसकी चर्चा सन् 2019 से हो रही है जब 19 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। इसके बाद एक बार फिर यह मुद्दा सतह पर आ गया, जो प्रधानमंत्री के एजेंडे में अहम माना जाता है। यह पहला अवसर नहीं था जब ‘एक देश, एक चुनाव’ के मुद्दे पर चर्चा हुई थी। विगत में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न मंचों में यह मुद्दा चर्चा का विषय बनता रहा है। ‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार के तहत देश में चुनाव चक्र को इस तरह से संरचित करने का प्रस्ताव है, जिसमें लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएंगे।
वैसे देखा जाये तो इस मुद्दे पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। ‘एक देश,एक चुनाव’ लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने का एक वैचारिक उपक्रम है। देश में इनके अलावा पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव भी होते हैं लेकिन ‘एक देश, एक चुनाव’ की प्रक्रिया में इन्हें शामिल नहीं किया जाता।
बेशक यह मुद्दा आज बहस का केन्द्र है, लेकिन विगत में 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गईं। वर्ष 1971 में पहली बार लोकसभा चुनाव समय से पहले हुए थे। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब क्या समस्या है?
निश्चित ही ऐसी परिस्थतियों में ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार पहली नज़र में अच्छा प्रतीत होता है, परन्तु यह व्यावहारिक है या नहीं, इस पर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय है। बेशक बार-बार होने वाले चुनावों के बजाय एक स्थायित्व वाली सरकार बेहतर होती है लेकिन इसके लिये सबसे ज़रूरी है आम सहमति का होना और यह कार्य बेहद मुश्किल है। राजनीतिक सर्वसम्मति के अभाव में संविधान में आवश्यक संशोधन करना संभव नहीं होगा क्योंकि इसके लिये दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत पड़ेगी जो कि बिना आम सहमति के नहीं किया जा सकता।
कुछ लोगों का मानना है कि  ‘एक देश, एक चुनाव’ के सिद्धांत को अमल में लाकर चुनाव के खर्च, पार्टी के खर्च आदि पर नज़र तथा नियंत्रण रखने में आसानी होगी। बताया जाता है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ से सार्वजनिक धन की बचत होगी, प्रशासनिक सेटअप और सुरक्षा बलों पर बोझ कम होगा, सरकार की नीतियों का समय पर कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सकेगा और यह भी सुनिश्चित होगा कि प्रशासनिक मशीनरी चुनावी गतिविधियों में संलग्न रहने के बजाय विकासात्मक गतिविधियों में लगी रहे। मतदाता सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को राज्य और केंद्रीय दोनों स्तरों पर परख सकेंगे। इसके अलावा मतदाताओं के लिये यह तय करने में आसानी होगी कि किस राजनीतिक दल ने क्या वायदे किये थे और वह उन पर कितना खरा उतरा।
‘एक देश, एक चुनाव’ के समक्ष प्रमुख चुनौतियां भी हैं जैसे इसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को समन्वित करने की है ताकि दोनों का चुनाव निश्चित समय के भीतर हो सके। राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ समन्वित करने के लिये राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को तदनुसार घटाया और बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये कुछ संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी। अनुच्छेद 83 में कहा गया है कि लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष का होगा। अनुच्छेद 85 राष्ट्रपति को लोकसभा भंग करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 172 में कहा गया है कि विधानसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पांच वर्ष का होगा। अनुच्छेद 174  राज्य के राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 356 केंद्र सरकार को राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मद्देनज़र राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार देता है। इनके अलावा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ संबंधित संसदीय प्रक्रिया में भी संशोधन करना होगा। ‘एक देश, एक चुनाव’ के लिये सभी राजनीतिक दलों को राज़ी करना आसान काम नहीं है। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का यह मानना है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ की आवधारणा देश के संघात्मक ढांचे के विपरीत सिद्ध हो सकती है। 
‘एक देश, एक चुनाव’ के समर्थक तर्क देते हैं कि जब ‘एक देश, एक टैक्स’ लागू किया जा सकता है तो ‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार को भी आगे बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये यह आम सहमति बनाने की ज़रूरत है कि क्या राष्ट्र को ‘एक देश, एक चुनाव’ की जरूरत है या नहीं?