भारत-चीन में एलएसी पर समझौता : स्वागत हो मगर सजगता से

कज़ान, रूस, में 16वें ब्रिक्स सम्मेलन के आरंभ होने से एक दिन पहले यानी 21 अक्तूबर 2024 को भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने घोषणा की कि भारत और चीन के बीच सीमावर्ती क्षेत्रों में एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) पर पेट्रोलिंग व्यवस्था संबंधी समझौता हो गया है। इससे न सिर्फ डिसइंगेजमेंट (सैनिकों का मोर्चे से बैरकों में लौटना) होगा बल्कि 2020 के सैन्य टकराव से जो मुद्दे उठे थे, उनका भी समाधान हो जायेगा। यह दोनों देशों के बीच स्थिति को सामान्य करने के संदर्भ में बहुत बड़ा कदम है, जिससे पूर्वी लद्दाख में विवादास्पद डिसइंगेजमेंट प्रक्रिया पूर्ण हो गई और पिछले 54 माह से जो सैन्य गतिरोध इस क्षेत्र में बना हुआ था, वह भी समाप्त हो गया है। ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय बैठक तय नहीं है पर होने के बहुत चांस है। इसलिए लद्दाख गतिरोध के समाप्त होने को ब्रिक्स से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की पृष्ठभूमि में देखना मुनासिब होगा। 
यूक्रेन और मध्य पूर्व एशिया में जो युद्ध चल रहे हैं उनके कारण शीत युद्ध के समाप्त होने के बाद संसार एक बार फिर से दो खेमों में विभाजित होता जा रहा है। एक तरफ अमरीका और उसके यूरोपियन साथी हैं, जो यूक्रेन व इज़राइल के समर्थन में खड़े हैं और दूसरी ओर रूस, चीन व ईरान का त्रिकोण है, जो पश्चिम का विरोध कर रहा है। भारत इन दोनों खेमों के बीच फिलहाल पुल है, लेकिन दोनों ही खेमे उसे अपने-अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रहे हैं। चूंकि भारत का चीन से सीधा सीमा विवाद चल रहा था, इसलिए उसके लिए किसी एक खेमे का सदस्य बनना संभव न था। चीन ने सीमा विवाद को हल करके भारत को प्रलोभन अवश्य दिया है, लेकिन सवाल यह है कि चीन पर कितना भरोसा किया जा सकता है? 
इतिहास बताता है कि ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ के नारे लगाने वाला स्वार्थी चीन केवल अपने हित देखता है, इसलिए उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अत: भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि ब्रिक्स पश्चिम-विरोधी समूह बनकर न रह जाये। क्वॉड, औकस, रूस-चीन ‘नो-लिमिट्स पार्टनरशिप’, यूक्रेन युद्ध और ईरान का ब्रिक्स सदस्य बनने के बाद यह दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है कि ब्रिक्स को पश्चिम के विरोध में खड़ा किया जाये, जिसमें मूल सदस्यों ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका के बाद नये सदस्यों के रूप में मिस्र, इथोपिया, ईरान, सऊदी अरब व यूएई भी शामिल हो गये हैं। हालांकि ब्रिक्स के गठन का आधार ही पश्चिम-प्रभावित विश्व व्यवस्था को चुनौती देना था, लेकिन विस्तृत ब्रिक्स को पश्चिम-विरोधी बनने से बचना चाहिए। भारत के पास विशिष्ट अवसर है कि वह अपनी ‘पुल’ स्थिति का प्रयोग ब्रिक्स के भविष्य को दिशा देने के लिए करे। 
वैसे भी भारत ने स्वतंत्र दृष्टिकोण रखने में संकोच नहीं किया है, जैसा कि यूक्रेन-रूस युद्ध में रूस पर पश्चिम की पाबंदी के बावजूद वह रूस से सस्ता तेल लेता रहा और इस तरह दुनिया को बता दिया कि वह किसी एक खेमे का सदस्य नहीं है। नई दिल्ली के लिए ज़रूरी है कि वह चीन के साथ एलएसी समझौते को द्विपक्षीय मामला ही रखे, उसे अंतर्राष्ट्रीय खेमेबाज़ी की राजनीति का हिस्सा न बनने दे। हालांकि इस समझौते की बाबत विक्रम मिस्री ने तो विस्तार से नहीं बताया, लेकिन विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा कि इस ‘सकारात्मक’ समझौते से दोनों पक्ष 2020 की स्थिति में वापस पहुंच गये हैं और डिसइंगेजमेंट प्रक्रिया पूरी हो गई है। उनके अनुसार अब भारतीय सैनिक उसी तरह से पेट्रोलिंग कर सकेंगे जैसा कि वह 2020 के गतिरोध से पहले किया करते थे। गौरतलब है कि एलएसी पर ‘पेट्रोलिंग व्यवस्था’ से टकराव के अन्य प्रमुख स्थानों जैसे डेपसांग व डेमचोक में भी डिसइंगेजमेंट होगा, जिसके ज़मीन पर ठोस आकार लेने में 7 से 10 दिन लग सकते हैं। 
इसका अर्थ यह है कि नई दिल्ली व बीजिंग के बीच ‘पेट्रोलिंग समझौते’ पर अधिक स्पष्टता एक-दो सप्ताह में ही सामने आयेगी और तभी मालूम हो सकेगा कि एलएसी व सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘डिसइंगेजमेंट’ व ‘मुद्दों का समाधान’ कितना हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि भारत व चीन के बीच संबंध निरंतर पिघलती बर्फ की पतली परत पर टिके हुए थे, पूर्वी लद्दाख में 2020 के घातक टकराव के बाद से दोनों पक्ष ज़बरदस्त सैन्य तैयारी में जुटे हुए थे, जैसे किसी भी पल जंग का बिगुल बज जायेगा। गतिरोध वाले क्षेत्रों में बफर ज़ोन के बावजूद दोनों देशों ने अधिक फौज की तैनाती से अपनी अपनी किलेबंदी भी की हुई थी, जोकि निरंतर चिंता का विषय थी, विशेषकर इसलिए कि पिछले चार वर्षों के दौरान हालात को सुधारने के प्रयासों में ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ की स्थिति बनी हुई थी। चूंकि यह समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब रूस में आयोजित ब्रिक्स सम्मेलन में मोदी हिस्सा ले रहे हैं और जिनपिंग से उनकी द्विपक्षीय मुलाकात हो सकती है, इसलिए अंदाज़ा यही है कि अब दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर होने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। 
बीजिंग के दिमाग में निश्चितरूप से यह भी है कि इस्लामाबाद भी वाशिंगटन की तरफ बढ़ता जा रहा है। दरअसल, पाकिस्तान ने चीन को कुंठित कर दिया है, जिनपिंग के प्रिय सीपीईसी प्रोजेक्ट को गति न देकर और चीनी वर्कर्स व इंफ्रास्ट्रक्चर की सुरक्षा सुनिश्चित न करके, जो दोनों ही अतिवादी तत्वों का निशाना हैं। इसके अतिरिक्त, जैसा कि ऊपर बताया गया, विश्व दो खेमों में विभाजित होता जा रहा है, पश्चिम को चुनौती देने के लिए रुसी खेमे को भारत की ज़रूरत है, जिसके लिए आवश्यक था कि भारत व चीन के बीच सीमा विवाद का हल निकले और इन दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर हों। इधर नई दिल्ली भी बीजिंग से समझौता करके वाशिंगटन को संदेश देना चाहता था कि वह पनुन और निज्जर (कनाडा के ज़रिये) के बेबुनियाद केस उछालकर उसे ‘फॉर-ग्रांटेड’ न ले। बहरहाल, शब्द ‘स्थिर’ का उल्लेख अब वाक्यांश ‘यथा स्थिति जो पहले थी’ से अधिक किया जाता है। लेकिन जैसा कि अब हालात हैं और दोनों बीजिंग की प्रतिबद्धता व 21-10-24 की भारत द्वारा संयमी घोषणा के बावजूद संबंध बेहतर करने की दिशा में यह पहला कदम स्वागतयोग्य है।

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