नये मिज़ाज का शहर

उन्होंने कहा कि हमें आदत हो गई है काम न करने की। हमारे जवाब से वह चिहुंक उठे, हमने कहा ‘काम न करने की या काम न मिलने की।’
‘हर बात में राजनीति लाने की कोशिश न किया करो। क्या यह कहना चाहते हो कि इस देश के कर्णधार इतने फिसड्डी हो गये हैं, कि वे सबके लिए नौकरियों का प्रबन्ध नहीं कर पाते। यानि यह कि देश की आबादी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, कि सबके लिए नौकरियों का प्रबन्ध करना कितना कठिन हो गया है।’
लो अब बढ़ती हुई जनसंख्या का पचड़ा लेकर बैठ गये। गिनी चुनी बातें हैं तुम्हारे पास। इसके बाद बढ़ती हुई महंगाई का रोना शुरू कर देना। इससे फारिग हो जाओ तो भ्रष्टाचारी लोगों और रिश्वतखोरों की बात लेकर बैठ जाना।
—यह तो बहुत पुरानी बात हो गई है, जनाब, बहुत बरस पहले सुना करते थे, रिश्वत लेना और देना अपराध है। पीछे दफ्तर की दीवार पर हथकड़ियां पहने हाथों का चित्र बना रहता। हम देखते और इसे देखने के बाद भी रिश्वत दे देते।
—तब चित्र लगे रहते थे, आजकल ज़िन्दगी संवारने के सूत्र वाक्य लिखे रहते हैं। वैसे पिछली सरकार बदल जाये तो उनके स्वनाम धन्य नेता अब स्वर्गीय हो, नये माहौल में महा-भ्रष्टाचारी साबित हो जाता है। हां, रिश्वत देने वाला अब भी कम ही पकड़ा जाते देखा है। उनको दफ्तरों में काम करवाने के लिए दनदनाते रहना चाहिए न। थैलीवान ज़िन्दा रहेंगे तो थैलियों का कारवां चलता रहेगा। और ये घोषणाएं भी कि हमारी सरकार में शून्य भ्रष्टाचार होगा। खर्ची पर्ची की सरकारों के दिन गुज़र गये। अब सीधा कल्याण आपके घर के द्वार आकर दस्तक देगा। उसे बीच के आदमियों की बैसाखियों की ज़रूरत नहीं रहेगी।
अब आपकी फाइलों को एक से दूसरी मेज तक जाते हुए चांदी के पहियों के सहारे नहीं चलना पड़ेगा। सुविधा केन्द्र बनाये जाएंगे, तो वे असुविधा केन्द्र नहीं बनेंगे बल्कि दफ्तर आपके द्वार तक आयेगा, और आपका सब काम निपटा कर आपका धन्यवाद करके जाएगा, कि ‘शुक्र है आपने हमें सेवा का मौका दिया।’ ऐसी बातें सुनते हैं तो लगता है युग बदल गया। किसी महा-पण्डित ने कहा भी था, कि ‘कलयुग अब खत्म होने ही वाला है। युग चक्र घूम गया है क्या? लगता है, सतयुग की शुरुआत हो गई।’
हम कितने भाग्यवान हैं कि पहले जिन आंखों ने कलयुग देखा, वह अब सतयुग भी देख रही हैं। हम इस सतयुग की पहचान करने निकले। नेताओं के चेहरे बदल गये थे, वह अब सचमुच दानवीर बन चुके थे। उन्होंने घोषणा कर दी थी, कि अब इस देश में किसी को भूख से नहीं मरने देंगे। अनाज और राशन ऐसे बांटेंगे कि वह कौड़ियों के भाव आपके थैलों में आ जाएगा। हमने संकल्प कर लिया है कि अब कोई भूख से नहीं मरेगा, केवल काम न मिलने की दहशत से अकाल मृत्यु को प्राप्त होगा। बड़े लोगों की बड़ी बातें। तो यूं अब उन्होंने हमारे लिये नहीं तो कम से कम अपने लिये तो युग पलट लिया। फुटपाथ पर जीते थे, अब देखो एक प्रासादनुमा घर में चले आये। इस सतयुग की भाषा भी बिल्कुल अपनी ही होती है। इसलिये वे इसे प्रासाद नहीं सेवा कुटीर कहते हैं, और हर नया मौसम बदलने पर इसकी एक और मंज़िल उठा देते हैं। सतयुग के मसीहा हैं, बहुंमज़िली इमारतों में रहेंगे, और शाम होते ही उसे रंगीन करते हुए बहुमूल्य बोतलों से कोई द्रव्य निकाल कर पीते हुए दर्दनाक ़गज़लों पर सिर धुनते हुए कलात्मक अभिरुचियों से सम्पन्न हो जाएंगे।
वीर वहूटियों की तरह आजकल ऐसे कला संरक्षकों के पीछे-पीछे मुसाहिबों के जुलूस चलते हैं जो कदम-कदम पर उनकी हर बात पर मरेहबा कहते हैं, और कला जगत की नई उम्मीद की उपाधि पाते हैं।
इस नये युग की एक बढ़िया बात देखी है साहब। कला हो या समाज। राजनीति हो या धर्म की ठेकेदारी, इसमें नई युवा शक्ति अथवा नये खून के आने पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई जाती। परिवारवाद को खूब गाली दी जाती है, लेकिन कुर्सी पर बैठ आदमी अपने भाई-भतीजों, नाती-पोतों को हमेशा अपवाद मान कर चलता है। आखिर उनके खून में अनुभव है, और अनुभव जनित तथ्य भी कि राजा का बेटा हमेशा अच्छा राजा बनता है, और वजीर का बेटा वजीर। लेकिन इस सूत्र को निभाते निभाते एक और सच भी तो उभर कर सामने आ गया कि गरीब का बेटा हमेशा गरीब पैदा होगा। बल्कि आज तो बात और बिगड़ गई। गरीब का बेटा तो और भी फटीचर हो गया और अब सस्ता राशन बांटने वाली कतार में अनन्त काल के लिए खड़ा हो गया। अपना देश निरन्तर तरक्की कर रहा है, और दुनिया में आर्थिक ताकत के लिहाज़ से नम्बर एक हो जाने का सपना देख रहा है, इसलिए उसे अपनी रिकार्ड बनाने वाली परम्परा को तो तोड़ना नहीं है। अभी हम दुनिया में सबसे अधिक किसी देश की आबादी में सस्ता अनाज बांट रहे हैं, यह अनाज बांटते रहेंगे आने वाले सब बरसों में भी। अभी एक फैसला किया गया था कि तरक्की के नाम पर सस्ती दुकानों की कतारों के बाहर ही नहीं, बल्कि ज़रूरतमन्दों के घरों तक पहुंचा दिया जाएगा। 
तर्क था कि तरक्की की एक मानवीय धरातल होती है। उस पर यह हो जाना चाहिए। बेशक इससे आपके घर तक राशन ढोने वालों को तो काम मिल गया। लेकिन सत्ता के जो चहेते सस्ते राशन की दुकानें खोल कर बैठे हुए थे और इन दुकानों का पिछला दरवाज़ा उन्होंने चोर गलियों में खोल रखा था, उनका काम तो छिन गया। फिर जो कतार तोड़ कर आपको पहले अनाज दिलवा देते थे, उनका प्रभामण्डल तो क्षरित हो गया। ये सब बीच के लोग थे। देश में उभर आई एक सम्पर्क या मध्यस्थ संस्कृति के पैरोकार थे। अब ये सब लोग बेकाम हो जाते तो समाज की मुखियागिरी और राजनैतिक मसीहागिरी का काम कैसे चलता। इसलिए यूं माननीय हो जाने की गलती जल्दी सुधार दी गई। अब सस्ती दुकानों के बाहर वही कतारों के मेले हैं। इन दुकानों के पिछवाड़े खुलने वाले जो दरवाज़े बन्द हो गये थे, अब फिर से खुल गये हैं। माहौल में फिर वही धुन बजने लगी है, ‘हाल चाल ठीक ठाक है, सब कुछ ठीक ठाक है।’
बेशक युग तो नहीं बदला, लेकिन चुनिन्दा लोगों के लिए सतयुग के आ जाने से एक पुराना शे’अर फिर से तरो-ताज़ा होकर सामने आ गया,
‘कोई हाथ भी न मिलाएगा, 
जो गले मिलेंगे तपाक से
यह नये मिज़ाज का शहर है, 
ज़रा फासले से मिला करो।’ क्यों बन्धु?