अपने आप कैसे बढ़ जाते हैं ईवीएम में बंद पड़े वोट 

भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना अब टेढ़ी खीर बन चुकी है। चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से लेकर वोटरों को प्रभावित करने के लिए राम रहीम जैसे सज़ायाफताओं की बार-बार पेरोल के निर्णयों ने पूरी प्रक्रिया को संदेहास्पद कर दिया है। चुनावी आचार संहिता का निष्ठापूर्वक पालन करना अतीत की बात बन चुकी है। आयोग पूरी तरह से हर बार सत्तारूढ़ दल (भाजपा) की खुलेआम तरफदारी करता हुआ दिखता है। पता नहीं इस हालात में हमारे लोकतंत्र का भविष्य क्या होगा?
मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित करते हुए दावा किया है कि उनके आयोग ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने के मामले में ‘गोल्ड स्टेंडर्ड’ की स्थापना कर दी है। राजीव कुमार के शब्दों का इस्तेमाल किया जाए तो ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ की तज़र् पर आयोग की आलोचनाओं को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए। यानी, भारत में चुनाव-पद्धति सोने की तरह खरी है, और चुनाव आयुक्त का यह दावा संदेह से परे है। राजीव कुमार की यह बात सही मानी जा सकती है, लेकिन केवल ऐतिहासिक दृष्टि से। 1990-96 के बीच मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी.एन. शेषन ने अपनी निष्पक्षता और नियमबद्धता के दम पर चुनावी आचार संहिता को मानक बनाते हुए जो शानदार परम्परा स्थापित की थी, उसने सारी दुनिया में भारतीय चुनाव आयोग का लोहा मनवा दिया था। आयोग की टीमें दूसरे देशों के अनुरोध पर वहां जाकर उन्हें चुनाव का संचालन करना सिखाती थीं। लेकिन, आज स्थिति बदल चुकी है। पिछले पिछले पांच साल से जिस तरह चुनाव करवाये जा रहे हैं, उसके कारण आयोग की शेषनकालीन उपलब्धियां तिरोहित हो चुकी हैं। सोने की तरह खरी होना तो दूर, हमारी चुनाव-पद्धति तरह-तरह के संदेहों और सवालों से घिर चुकी है। पूरे सोशल मीडिया, समाचार-पत्रों के कॉलमों, नागरिक समाज की चर्चाओं और राजनीतिक दायरों में बहुत से प्रश्नों की अनुगूंज है। इस विवाद को समझने के लिए इन्हीं में से केवल दो सवाल यहां संक्षेप में पेश किये जा रहे हैं। 
पहला सवाल यह है कि क्या ईवीएम में पड़ चुके वोटों की संख्या कुछ घंटे बाद या कुछ दिन बाद अपने-आप बढ़ सकती है? किसी भी पोलिंग सेंटर पर पूरे दिन के मतदान बाद अंत में ईवीएम अधिकारिक रूप से सील कर दी जाती है। कायदे के मुताबिक उसमें डाले गये या न डाले गये वोटों की संख्या फॉर्म 17-सी में दर्ज करके मतदान केंद्र के पीठासीन अधिकारी और विभिन्न पार्टियों के पोलिंग एजेंटों के दस्त़खत करवा लिये जाते हैं। आखिर वे कौन सी परिस्थितियां हैं जिनके तहत ईवीएम में पड़ चुके वोटों की संख्या बढ़ जाती है जिसकी घोषणा चुनाव आयोग बढ़े हुए मतदान प्रतिशत के रूप में एक से अधिक बार करता है? ये परिस्थितियां तर्कसंगत और स्वाभाविक हैं या संदेहास्पद और कृत्रिम? 2019 के लोकसभा चुनाव से हाल ही में सम्पन्न हुआ हरियाणा के विधानसभा चुनाव तक ऐसा लगातार क्यों हो रहा है? और, बढ़े हुए वोटों का लाभ तकरीबन हमेशा ही सत्ताधारी दल के ही पक्ष में क्यों जाता है? शुरू में और बाद में घोषित प्रतिशत के बीच कोई भिन्नता नहीं नहीं होनी चाहिए। और, अगर किसी असाधारण स्थिति में हो भी, तो एक प्रतिशत से ज्यादा की तो किसी कीमत पर नहीं होनी चाहिए। 
उदाहरण है लिए 2024 में ही हुए लोकसभा चुनाव और हरियाणा चुनाव पर गौर किया जा सकता है। हम जानते हैं कि हरियाणा में 22 ज़िले और 90 निर्वाचन क्षेत्र हैं। पांच अक्तूबर को जब वोट पड़े तो सात बजे तक सभी ज़िलों में ईवीएम सील हो चुकी थीं, और फॉर्म 17-सी पर पीठासीन अधिकारी व पोलिंग एजेंटों के हस्ताक्षर हो चुके थे। आयोग ने सात बजे तक सभी ज़िलों का मतदान प्रतिशत भी घोषित कर दिया। लेकिन, इसके पौने पांच घंटे यानी पौने बारह बजे इस प्रतिशत को बड़े पैमाने पर बढ़ा कर घोषित किया गया। इसका नतीजा 0.81 से लेकर 7.83 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी में निकला। केवल दो ज़िलों (पंचकुला और चरखी) में प्रतिशत नहीं बढ़ा। यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकी। दो दिन बाद सात अक्तूबर (मतगणना से एक दिन पहले) रात को पौने नौ बजे एक और बढ़ोतरी घोषित की गई। इसमें ज़िलावार 0.15 से 11.48 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। केवल मेवात ज़िले में प्रतिशत 0.02 प्रतिशत घटा। जब पांच को प्रतिशत बढ़ाया गया था तो वोटों की संख्या के लिहाज़ प्रति निर्वाचन-क्षेत्र 1566 से 29196 के बीच वोटों की बढ़ोतरी हो गई थी। दूसरी बार जब प्रतिशत बढ़ाया गया तो प्रति निर्वाचन-क्षेत्र 308 से 23322 के बीच वोटों की बढ़ोतरी दिखी। 
क्या ये आश्चर्यजनक बढ़ोतरियां शक और सवालों को जन्म देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं? अगर वोटों की बढ़ोतरी के नतीजों पर पड़े असर का विश्लेषण किया जाए तो साफ दिखाई देता है कि अगर पांच को सात बजे घोषित प्रतिशत पर की मतगणना होती तो चुनाव हारने वाली पार्टी को 17 सीटें ज्यादा यानी कुल 54 सीटें मिलतीं। अगर पांच को ही पहली बढ़ोतरी ही अंतिम रहती तो उसे 46 सीटें मिलतीं। यानी दोनों सूरतों में वह बहुमत पाती। पहली और दूसरी बढ़ोतरी के कारण जीतने वाली पार्टी को क्रमश: 17 और नौ सीटों का लाभ मिलते हुए दिखाई देता है। चुनाव नतीजों के अनुसार सात सीटें ऐसी थीं जिनका फैसला महज़ 32 वोटों से लेकर 1341 वोटों के अंतर से हुआ है। यहां बात किसी पर आरोप लगाने या किसी की नियत पर शक करने का नहीं है। जून में हुए लोकसभा चुनाव में हर दौर में मतदान का प्रतिशत थोड़ा-बहुत नहीं, बल्कि काफी-काफी बढ़ाया गया। पहले घोषित प्रतिशत और अंतिम घोषित प्रतिशत के बीच 4,65,46,885 (4.72 प्रतिशत) वोटों का अंतर रहा। नागरिक समाज के संगठनों द्वारा चुनाव आयोग के सामने पेश किये जाने विश्लेषण के अनुसार पूरे देश में 76 सीटें ऐसी थीं जो इसी कारण से सत्तारूढ़ दल के पक्ष में चली गईं (अकेले ओडीशा में 18 और बंगाल में 10 सीटें)।  
दूसरा सवाल यह है कि चुनाव आयोग एक बार या कई बार में जितने वोटों के पड़ने की घोषणा करता है, उनकी गिनती होने पर वे कम या ज्यादा क्यों निकलते हैं? लोकसभा चुनाव के दौरान देश के 542 निर्वाचन क्षेत्रों में केवल तीन को छोड़ कर बाकी 539 में एक वोट से लेकर 16,791 वोटों का अंतर निकला। प्रत्येक वोट का मूल्य समान होता है। उसकी रक्षा करने का दायित्व चुनाव आयोग का है। 1951 में बने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 65 के मुताबिक इसका उल्लंघन कानूनी कार्रवाई को निमंत्रण देना है। संदेह और प्रश्न बहुत से हैं। इनमें से केवल ये दो प्रश्न ही चुनाव प्रक्रिया के ‘गोल्ड स्टेंडर्ड’ होने के दावे पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी हैं।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।