भाजपा से नहीं, खुद से हार जाती है कांग्रेस 

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय तक देश पर एक छत्र शासन करने वाली कांग्रेस में आखिर ऐसी क्या कमी आ गई जो एक दशक लगातार रही मनमोहन सिंह सरकार के बाद वह न तो केंद्र की सत्ता में लौट पा रही है और न ही राज्यों में पहले जैसी ताकत दिखा पा रही है। साथ ही जो मतदाता कांग्रेस पर विश्वास करता था, वह उससे क्यों रूठ गया है। जिन कार्यकर्ताओं की बदौलत कांग्रेस सत्ता का सुख भोग रही थी, वही कार्यकर्ता अब बूथ पर मोर्चा संभालने के बजाय घर क्यों बैठ गया है। शायद इन्ही असुलझे सवालों के चक्रव्यूह में फंसकर कांग्रेस बार-बार जीती हुई बाज़ी हार जाती है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में यही तो हुआ है। भारतीय जनता पार्टी से कांग्रेस जीती हुई लड़ाई क्यों हार जाती है, यह भी हरियाणा के चुनाव परिणाम से समझा जा सकता है। 
हम कह सकते हैं कि इस चुनाव में कांग्रेस को भूपेंद्र सिंह हुड्डा पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा करना महंगा पड़ा है। हुड्डा के कारण ही कांग्रेस की कलह सार्वजनिक मंचों पर सामने आई और पार्टी की एकजुटता को ग्रहण लगा। राहुल गांधी ने चुनाव के लिए सैलजा और हुड्डा का हाथ तो मिलवाया मगर दिल नहीं मिला सके। इस हार का एक बड़ा कारण कांग्रेस अपनी विरोधी पार्टी भाजपा के खिलाफ  उपजे गुस्से को भुनाने में कामयाब नहीं हुई। चुनाव प्रचार के आखिरी समय में भाजपा ने अपनी कमियां दूर कीं, लेकिन कांग्रेस अपना परिवार नहीं संभाल पाई। हरियाणा विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस में शुरू से ही भूपेंद्र सिंह हुड्डा की चली। उन्होंने टिकट भी अपनी मज़र्ी से बांटे। कांग्रेस हाईकमान से फ्री हैंड होने के बाद न सिर्फ  अपने समर्थकों को टिकट बांटे बल्कि सैलजा समर्थकों को मात्र 9 सीट देकर हाशियो पर ला दिया। इस तरह उन्होंने पार्टी में कलह के बीज रोप दिए थे। तभी तो सैलजा की नाराज़गी के बाद कांग्रेस के दलित कार्यकर्ता कांग्रेस से छिटक गए। भूपेंद्र हुड्डा के कारण आम आदमी पार्टी से गठबंधन का रास्ता भी बंद हो गया और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ  लगभग सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतार दिए। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के ही वोट काटे। साथ ही अन्य जातियों के मुकाबले जाटों को ज्यादा टिकट देकर कांग्रेस ने अन्य जातियों को नाराज़ कर लिया। दूसरी ओर भाजपा का मज़बूत संगठन हरियाणा की हारी बाजी को जीत में बदलने में कामयाब हो गया। भाजपा को जिताने में भाजपा के कार्यकर्ताओं का सबसे बड़ा हाथ है, जिनको साधने के लिए सबसे मजबूत कड़ी भाजपा का संगठनात्मक ढांचा है। भाजपा की रणनीति में बूथ मैनेजमेंट का प्रबंधन उनकी जीत का आधार रहा है।  सक्रिय और समर्पित कार्यकताओं के जरिए भाजपा परिणाम बदलने की ताकत रखती है।
 हरियाणा में वोट के बिखराव के कई कारण बन गए या बनाए गए। इनेलो और जेजेपी को अकेले चुनाव लड़ने के पीछे भाजपा की शक्ति काम कर रही थी। जननायक जनता पार्टी और आज़ाद समाज पार्टी तथा इनेलो और बसपा के गठबंधन के पीछे भी भाजपा का हाथ रहा है। इन दोनों गठबंधन का हरियाणा के जाट और दलित वोटों में कुछ असर प्रभावी रहा, जिसकी वजह से कांग्रेस अपेक्षित वोट हासिल नहीं कर पाई। आम आदमी पार्टी भी वोट के विभाजन का कारण बनी। वह भले ही शून्य पर सिमट गई, लेकिन उसे जो 2 प्रतिशत वोट मिला, वह कांग्रेस को गठबंधन की हालत में जिताने के लिए काफी था। कांग्रेस जिस किसान, जवान और पहलवान के मुद्दे के सहारे भाजपा को परास्त करने की रणनीति बना रही थी, वह उसे मंचों तक ही सीमित रख पाई। इस विरोध को कांग्रेस जन-जन पहुंचाने में विफल रही है। जवान के मामले में कांग्रेस ने अग्निवीर को मुद्दा बनाया परन्तु नायब सिंह सैनी ने अग्निवीरों को राज्य सरकार के द्वारा नौकरी देने की घोषणा कर डैमेज कंट्रोल कर लिया। किसानों की नाराज़गी को पी.एम. पेंशन योजना, फसलों को एमएसपी तथा अन्य लाभकारी योजना के जरिये मन बदलने की कोशिश की गई।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ जब सत्ता विरोधी लहर का मामला उठा तो तत्काल मुख्यमंत्री का चेहरा नायब सिंह सैनी को बना कर डैमेज कंट्रोल किया गया। चुनाव प्रचार के दौरान खट्टर की छवि आगे आने लगी तो खट्टर को न केवल मंच पर बुलाना बंद कर दिया गया बल्कि चुनावी पोस्टर से खट्टर का चेहरा तक गायब कर भाजपा ने अपनी छवि ठीक की। चुनावी रणनीति के तहत भाजपा का हरियाणा के चुनाव को जाट बनाम गैर-जाट करना भी काम कर गया। भाजपा ने इसी रणनीति के तहत गैर-जाट को ज्यादा टिकट दिया। ब्राह्मण, वैश्य, पंजाबी और अन्य जातियों के उम्मीदवार को प्राथमिकता देना भी भाजपा के काम आया।
हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी सैलजा के बीच के विवाद का भी नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ा है। मुख्यमंत्री पद की लड़ाई खुल कर सामने आ गई थी। भूपेंद्र हुड्डा दिल्ली आला कमान को मना कर अपने पसंदीदा नेताओं को टिकट दिलाने में कामयाब हुए। सैलजा इस मामले में पीछे रह गई। वह जानती थी कि मुख्यमंत्री का खेल विधायकों की संख्या से ही तय होगा। इस कारण उनका प्रचार से दूर रहना दलित मतों के विभाजन का कारण बना जिससे कहा जा सकता है कि कांग्रेस को भाजपा नहीं हराती, बल्कि वह खुद से ही हार जाती है। कहीं नेताओं के बड़बोलेपन के कारण तो कहीं कार्यकर्ताओ की उपेक्षा के कारण। (युवराज)