क्या अकाली दल का उप-चुनाव न लड़ने का फैसला सही है ?

लगभग पौने दो माह पहले 30 अगस्त को इन्हीं कालमों में हमने पंजाब की 4 प्रमुख पार्टियों के पंजाब के 4 विधानसभा क्षेत्रों के उप-चुनाव के सम्भावित उम्मीदवारों के नामों पर चर्चा की थी। अब जब अकाली दल ने हालात के मुताबिक चुनाव न लड़ने का फैसला कर लिया है और भाजपा, कांग्रेस तथा ‘आप’ ने अपने-अपने उम्मीदवारों ने नामों की घोषणा कर दी है तो यह स्पष्ट है कि इन नामों में से अधिकतर नाम वही हैं जो इन कालमों में बताए गए थे। यह भी स्पष्ट है कि यदि अकाली दल चुनाव लड़ता तो सम्भावित रूप में सुखबीर सिंह बादल ही गिद्दड़बाहा से अकाली उम्मीदवार होते। खैर, उम्मीदवार कौन हो अंतिम फैसला तो पार्टी ने ही लेना होता है। हालांकि पहले यह कहा जाता था कि 4 विधानसभाओं के उप-चुनावों में मुख्य मुकाबला ‘आप’ तथा कांग्रेस के बीच ही होगा और भाजपा की मुख्य लड़ाई लोकसभा के 2024 के चुनाव में प्राप्त वोट प्रतिशत बचाने की होगी, परन्तु अब भाजपा के गिद्दड़बाहा के उम्मीदवार पूर्व मंत्री मनप्रीत सिंह बादल के लिए सम्भावना बन सकती है कि अकाली दल के चुनाव न लड़ने के कारण अधिकतर अकाली पक्षीय वोट उनके पक्ष में भी भुगत जाएं और वह सीधे मुकाबले में आ जाएं। इसी प्रकार चब्बेवाल में भी पूर्व मंत्री सोहन सिंह ठंडल के अकाली दल छोड़ कर भाजपा में जाने पर सम्भावित रूप में उनके उम्मीदवार बनने से वह मुकाबले में आ सकते हैं, क्योंकि हशियारपुर जिले में भाजपा पहले भी काफी मज़बूत रही है।
हम समझते हैं कि जिस प्रकार के हालात, अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल को श्री अकाल तख्त साहिब तन्खाहिया करार दिये जाने से बने हैं, उसके अनुसार अकाली दल का फैसला उचित लगता है। चाहे कई लोगों के नुक्ता-निगाह से यह मैदान छेड़ कर भाग जाने वाली बात होगी, परन्तु हमारी समझ के अनुसार जब किसी पार्टी के सीधे दो भाग हो चुके हों और उसके अध्यक्ष जिसने स्वयं चुनाव लड़ना हो, को धार्मिक तौर पर सज़ा लगी हो, जिसके अनुसार न वह चुनाव प्रचार कर सकता हो और न ही चुनाव लड़ सकता हो तो पार्टी का चुनाव न लड़ने का फैसला ही सही है क्योंकि इस उप-चुनाव में एक-आध सीट जीत जाने से भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जबकि हार जाने के आसार साफ हैं और बड़े अंतर से हार पार्टी का ज़्यादा बड़ा नुकसान कर सकती है। हां, इन हालात में पार्टी सम्भाल रहे अकाली नेताओं की ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाएगी कि वे अपना काडर कैसे पार्टी के साथ जोड़ कर रख सकेंगे। इस बीच यदि 28 अक्तूबर को शिरोमणि कमेटी प्रधान के चुनाव में अकाली दल बड़े अंतर से जीत जाता है तो वह एक बात सिद्ध करने में सफल रहेगा कि वह अभी भी विरोधी पक्ष से मज़बूत है। वैसे बात सारी हालात की होती है। समय बदलता रहता है। इस समय तो अकाली दल बादल की हालत साहिर लुधियानवी के इस शे’अर जैसी ही है : 
कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया,
बात निकली तो हर एक बात पे रोना आया।
धान के मंडीकरण का मामला 
मेरी बर्बादी में हिस्सा है अपनों का,
मुमकिन है ये बात, गलत हो, पर लगता है।
ए.जी. जोश का यह शे’अर मुझे धान की फसल की हो रही बेकद्री के संबंध में याद आया है। चाहे वास्तव में यह शे’अर पंजाब की प्रत्येक तरह की तथा प्रत्येक समय की बर्बादी पर भी चरितार्थ होता है। खैर, यहां हम बात कर रहे हैं धान की फसल की खरीद न होने की। आरोप लगाए जा रहे हैं कि केन्द्र सरकार किसान आन्दोलन के बीच हुई बदनामी एवं तीन कृषि कानूनों को वापिस लेने के लिए मजबूर करने का पंजाब से बदला लेने के लिए ऐसा कर रही है। हां, ऐसा प्रतीत होता है, परन्तु इसमें पंजाब सरकार की लापरवाही भी कुछ सीमा तक शामिल है क्योंकि जब पंजाब सरकार को पता था कि केन्द्र ने पंजाब के गोदामों में पड़ा चावल एवं अन्य फसलें दूसरे राज्यों को नहीं भेजीं तो क्यों नहीं पंजाब सरकार ने समय रहते ही इस हेतु यत्न किये। यदि केन्द्र पंजाब सरकार की बात नहीं सुन रहा था तो पंजाब इसके लिए कोई संघर्ष या कानूनी रास्ता भी अपना सकता था जबकि पिछले साल ही भंडारण सामर्थ्य की कमी के कारण धान के बदले चावल देने का सीज़न जो 31 मार्च तक ही खत्म हो जाता था, 30 सितम्बर, 24 तक भी निपटा नहीं था। इस प्रकार पंजाब सरकार को धान खरीदने के लिए कज़र् की सीमा पर अधिक  बयाज भी देना पड़ा होगा।
एक अनुमान के अनुसार धान की खरीद के मामले में जो कुछ चल रहा है, उसके कई पहलू हैं, परन्तु दो प्रमुख पहलू तो ये हैं कि एक ओर धान की 126 किस्म जो पंजाब सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारी पर बिजवाई थी और धान की कुछ अनधिकृत हाईब्रिड किस्मों का धान इस समय आढ़तियों तथा शैलर मालिकों का एक नैक्सस (गठबंधन) कट्ट लगाकर खरीद रहा है। इसका कोई सुबूत नहीं दिया जा सकता क्योंकि हमें बताया गया है कि धान का बिल तो पूरी कीमत का ही बनता है, परन्तु निजी तौर पर पैसे 200 से 300 रुपये प्रति क्ंिवटल कम दिये जा रहे हैं या 6 से 10 क्ंिवटल धान ही कम लिखा जा रहा है। यदि धान कम लिखा जाता है तो खरीदने वाले शैलर मालिक, आढ़ती के खरीद एजेंसी के अधिकारियों की मिलीभगत से इस पर लगने वाले 6 प्रतिशत टैक्स भी चोरी हो जाते हैं। खैर, यह नुककान तो किसान का है या कुछ टैक्स की चोरी का भी है, परन्तु पाठकों को शायद याद होगा कि वर्ष 2016-17 में केन्द्र ने फसलों की खरीद के लिए दी जाती राशि की बीच के अंतर का 31 हज़ार करोड़ रुपया पंजाब के सिर कज़र् के रूप में डाल दिया था। बेशक यह एक अलग संदर्भ में डाला गया था और यह अंतर भी 14-15 वर्षों के हिसाब का था, परन्तु जो कुछ अब हो रहा है, उसमें तो एक वर्ष में ही पंजाब को 20 हज़ार से 30 हज़ार करोड़ रुपये वार्षिक का घाटा पड़ सकता है, जो पंजाब की पहले ही दयनीय आर्थिक स्थिति के लिए बहुत बड़ी ठेस सिद्ध होगी। 
यह नुकसान कैसे होगा, इसका उदाहरण यह है कि एक तो इस बार चाहे सरकार के दबाव एवं डर के तहत 5000 से अधिक शैलरों में से लगभग 3000 शैलर मालिक लिखित एग्रीमैंट (समझौता) कर चुके हैं, परन्तु क्रियात्मक रूप से वे 126 किस्म तथा हाईब्रिड किस्मों का धान शैलरों में लगवा नहीं रहे। वे चाहते हैं कि सरकार धान खरीद कर अपनी कस्टडी में शैलरों में लगवा ले, परन्तु सरकार इसके लिए नहीं मान रही, क्योंकि यदि ऐसा होता है तो इसकी सम्भाल तथा कमी या किस्म के कारण हुए नुकसान की भरपाई अधिकारिओँ के ज़िम्मे पड़ सकती है। इसलिए अफसरशाही सरकार को मानने नहीं दे रही। इस प्रकार यदि धान शैलरों में न लगा या समय पर धान की मिलिंग (छड़ाई) न हुई तो धान का चावल बदरंग, काला हो सकता है और टोटा भी बढ़ जाएगा, जिसे केन्द्र सरकार नहीं उठाएगी। दूसरी तरफ केन्द्र के गोदाम खाली नहीं हो रहे तो जब तक सरकार एफ.सी.आई. को चावल नहीं दे देती, धान की खरीद के लिए कज़र् सीमा एवं ब्याज भी पंजाब सरकार के सिर ही पड़ेगी। वैसे एक बात नोट करने वाली है कि अभी 26 सितम्बर, 2024 को संगरूर से चावलों की एक स्पैशल रेल गाड़ी चावल लेकर अरुणाचल प्रदेश गई थी, जहां 19 सैम्पल लिए गए। इनमें से 15 सैम्पल गुणवत्ता के रूप  में रद्द कर दिए गए और 3 सैम्पल मानवीय उपभोग के योग्य नहीं पाये गए। अब संसरूर ज़िले के सैकड़ों शैलरों की जांच कई टीमों द्वारा की जा रही है।
यहां यह भी नोट करने वाली बात है कि यदि धान इसी प्रकार रखा गया तो वह दो-अढाई माह में ही खराब हो जाएगा, परन्तु यदि इसका चावल बना लिया जाए तो वह 1 से 2 वर्ष आराम से सम्भाला जा सकता है। केन्द्र की नीयत इस बात से भी पता चलती है कि केन्द्रीय खाद्य मंत्री ने पंजाब के शैलर मालिकों के साथ बैठक की परन्तु मामला फिलहाल लटका दिया गया है। वैसे हमारी जानकारी के अनुसार शैलर मालिक चाहे 126 तथा हाईब्रिड किस्मों के धान में से चावल की वापिसी 67 किलो के स्थान पर 62 किलो करने की मांग कर रहे हैं, परन्तु कुछ प्रमुख व्यक्ति ऐसे संकेत भी दे रहे हैं कि वे 64 या 65 किलो प्रति क्ंिवटल तक देने के लिए सहमत हो सकते हैं जबकि सरकारी अधिकारी कहते हैं कि शैलर मालिकों को अकेली मिलिंग की कीमत ही नहीं मिलती अपितु 6 से 8 किलो राइस बरान भी बचता है और फाक भी बचती है। वह भी तो मूल्य ही बिकती है, जो शैलर मालिकों की बचत है परन्तु शैलर मालिक कहते हैं कि उन्हें पिछले वर्ष 30 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। हम समझते हैं कि केन्द्र तथा पंजाब सरकार को आपस में एक-दूसरे के खिलाफ दुष्प्रचार करने का खेल छोड़ कर किसानों की तथा पंजाब की चिन्ता करनी चाहिए। कम से कम धान की खरीद करके शैलरों में पड़ी जगह पर लगवाने के लिए ठोस कदम तो उठाने ही चाहिएं। शैलर मालिकों को छूट देने या उनकी मांगों पर विचार के लिए समय है, परन्तु धान जो अब तक सिर्फ 3841744 मीट्रिक टन आया है, आगामी सिर्फ 7 दिन में ही कम से कम सवा लाख टन और आने की उम्मीद है। इसमें से भी लगभग 28 लाख टन धान अभी मंडियों में से उठाना शेष है तो सवा लाख टन और आने पर कहां रखा जाएगा? याद रखें, यदि पंजाब को इस आपसी ‘ब्लेम गेम’ से नुकसान हुआ तो इतिहास न पंजाब के शासकों को माफ करेगा और न ही केन्द्र के शसकों को। यह हालत पंजाब को एक नई तरह का बेआरामी के माहौल में पहुंचा देगी, जो किसी भी देश तथा पंजाब दोनों के लिए सुखद नहीं होगी।
सुनेगा जब ज़माना 
मेरी बर्बादी के अ़फसाने,
तुम्हारा नाम भी आएगा 
मेरे नाम से पहले।
(कतील श़िफाई)
वैसे यह स्थिति पंजाब के भविष्य के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं कि यदि पंजाब ने अपनी फसलों की डाईवर्सिफिकेशन (फसली विभिन्नता) न की तो वह कभी भी बड़ी बर्बादी के मुंह में जा सकता है। फिर कम होते भू-जल का मामला तो पहले ही खतरनाक मोड़ लो चुका है।

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