एक देश-एक चुनाव

मोदी सरकार के पिछले दो कार्यकालों और इस मौजूदा कार्यकाल में भी एक राष्ट्र-एक चुनाव की चर्चा चलती रही है। भारतीय जनता पार्टी एवं उसकी सहयोगी पार्टियां इसके पक्ष में रही हैं परन्तु अन्य ज्यादातर विपक्षी दल इसके विरुद्ध रहे हैं। दोनों पक्षों की ओर से इसके लाभ एवं नुक्सान की बात भी की जाती रही है। सत्तारूढ़ पक्ष की दलील रही है कि देश में एक साथ चुनाव होने से जहां पैसों की बचत होगी वहीं इनमें व्यस्त रहने वाले लाखों कर्मचारियों को राहत मिल सकेगी। वहीं देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर बार-बार चुनाव होने के झंझट से छुटकारा मिलेगा। स्थान-स्थान पर लगती आचार संहिता से निजात मिलने से विकास कार्यों की निरन्तरता बनी रहेगी। प्रत्येक स्तर पर अफसरशाही का इस काम के लिए लगता समय बचाया जा सकेगा।
 दूसरी तरफ इसका विरोध करने वालों द्वारा बड़ी दलील यह दी जाती है कि इस प्रक्रिया से देश का फैडरल (संघीय) ढांचा कमज़ोर होगा। भिन्न-भिन्न राज्यों के अपने स्थानीय मामले होते हैं, जिन्हें आधार बना कर वहां राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पार्टियां चुनाव लड़ती हैं। चुने गये विधायकों को एक ही बार चुनाव की व्यवस्था होने के कारण पांच वर्ष की पूरी टर्म नहीं मिलती। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया की भावना को आघात पहुंचेगा। लोकसभा के चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव होने से राज्यों के स्थानीय मामलों पर ध्यान केन्द्रित नहीं रहेगा तथा इसके साथ ही यह भी आशंका प्रकट की जाती रही है कि कोई एक पार्टी या पक्ष कहीं इसके एवज में तानाशाही की ओर तो नहीं बढ़ सकेगा? इस पूरी चर्चा के दौरान सरकार ने सितम्बर, 2023 में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द के नेतृत्व में इसके हर पहलू पर विस्तारपूर्वक विचार -विमर्श करने के लिए समिति बनाई थी जिसने लगभग तीन मास पहले सरकार को अपना प्रारूप सौंप दिया था। अपनी तीसरी पारी में मोदी सरकार का पहले जैसा प्रभाव दिखाई नहीं देता। संसद एवं देश के विधानसभाओं में भी कोई नया संवैधानिक संशोधन पारित करवाना उसके लिए आसान नहीं प्रतीत होता। इसके बावजूद संसद के शीतकालीन अधिवेशन में सरकार की ओर से इस बिल को लोकसभा में पेश कर दिया गया है। इससे पहले संविधान में अब तक 128 संशोधन हो चुके हैं। इस बार दो बिल पेश किये गये हैं। इनमें एक पुडुचेरी, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर आदि केन्द्र शासित क्षेत्रों में एक ही समय में चुनाव करवाने से संबंधित है। दूसरा शेष राज्यों में एक ही समय चुनाव करवाने से सम्बद्ध है। इस पर लोकसभा में 90 मिनट हुई बहस में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, डी.एम.के., भारत राष्ट्र समिति एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार) ने इसका विरोध किया। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी, एकनाथ शिंदे की शिव सेना आदि ने इसके पक्ष में आवाज़ उठाई। इस बिल के पक्ष में 269 तथा विरोध में 198 वोट पड़े। अभी तकनीकी रूप से इन बिलों ने कई चरण पार करने हैं। यदि किसी न किसी तरह यह बिल पारित हो जाते हैं तो भी इनके आधार पर बना कानून 2034 से पहले लागू नहीं किया जा सकेगा क्योंकि संसद के दोनों सदनों में पारित होने के बाद इसे 50 प्रतिशत राज्यों की विधानसभाओं से भी स्वीकृति लेने की ज़रूरत होगी। 
हम देश को दरपेश ज़रूरतों संबंधी आम-सहमति से संविधान में संशोधन के विरुद्ध नहीं हैं परन्तु ऐसा करते हुए हमारे संबंधित कानून निर्माताओं को संविधान की भावना, जिसका आधार लोकतंत्र, धर्म-निरपेक्षता एवं समानता है, का विशेष रूप से ध्यान रखने की ज़रूरत है। फिलहाल इन बिलों को संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष विचार हेतु भेज दिया गया है, जो पुन: इसके हर पहलू पर गनहता एवं विस्तारपूर्वक विचार करेगी। इसके साथ ही इस बात के लिए भी पहरेदारी की ज़रूरत होगी, कि कोई भी संशोधन बिल देश की संघीय भावना को कमज़ोर करने वाला सिद्ध न हो।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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